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विविध
वहां मौत पर मनाया जाता है जश्न स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       चन्द्रशेखर
दुनिया से एकदम निराला-शायद वह बाली द्वीप ही है, जिसमें मरण के त्यौहार-मरणोत्सव मनाये जाते हैं। दुनिया भर में जहां अन्यत्र किसी की मृत्यु पर रोना-धोना शुरू किया जाता है और मातम मनाया जाता है, वहां बाली-निवासी किसी सगे सम्बन्धी के मरते ही नाच-गाना आरम्भ कर देते हैं और कभी-कभी तो कई दिनों यह नाच रंग रहता है। बाली निवासियों का विश्वास है कि मनुष्य जब तक जीवित रहता है, उसकी आत्मा बन्धनों में फंसी रहती है, लेकिन मृत्यु होते ही आत्मा को छुटकारा मिल जाता है और इस मुक्ति के कारण ही वहां वाले मृत्यु पर आनन्द मनाते हैं और मरण-दिन वहां एक आनन्दोत्सव के रूप में मनाया जाता है।

सैंकड़ों आदमी रंग-बिरंगी पोशाकों में जा रहे हैं, युवतियों की रंग-बिरंगी पोशाक के ऊपर से आभूषण चमक रहे हैं, केशों में सुन्दर फूलों के गुच्छे गुंथे हुए हैं, बाजे बज रहे हैं, खासकर मृदंग की ध्वनि संगीत के साथ उठकर एक अजय समा बांध देती है, और जुलूस इस प्रकार आनन्दोत्सव में थिरकता बढ़ रहा है।

और जुलूस के आगे-आगे वह एक साठ फीट का स्तम्भ कैसा चल रहा है। साठ फीट का स्तम्भ फूल और मालाओं से सुसज्जित, बहुमूल्य रेशमी कपड़ों में लिपटा। यह वह स्तम्भ है, जिसके भीतर मृत व्यक्ति का शव रखा हुआ है। लोग जलूस बनाकर उसे ले जा रहे हैं, जहां उसका अन्तिम संस्कार किया जायेगा। देखिये तो जैसे बारात चल रही है, पर वास्तव में है यह मृत्यु का जुलूस-मरणोत्सव का आनन्दोल्लास। बाली निवासी शव को ले जा रहे हैं और जहां दाह कर्म होगा, वहां शव के साथ कितने ही बहुमूल्य कपड़े, कितने ही हीरे-जवाहरात भी लोग जला देंगे। जिन बाली-निवासियों की यह हालत है कि कभी-कभी पैसे-पैसे के लिए मुहताज रहते हैं, वही शव के साथ हजारों रुपये फूंक देते हैं और इसीलिए यह मरणोत्सव वहां इतना महंगा पड़ता है कि कितने ही साधारण परिवार वाले कभी-कभी तो वर्षों किसी मृत का दाह-कर्म नहीं कर पाते थे। वर्षों वे धन एकत्र करते रहते और काफी सम्पत्ति इकट्ठी हो जाती, तभी ऐसा कर पाते। वहां की प्रथा के अनुसार साधारण ढंग से दाह-कर्म कर डालना बड़ा अपमानजनक समझा जाता है और कहा जाता है कि ऐसा न करने से मुक्ति पाने पर भी आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती और बराबर भटकती रहती है। ऐसी दशा में लोग यह बदनामी लेने के लिए तैयार नहीं होते। किसी बाली-निवासी के लिए इससे बढ़कर और क्या बात होगी, अगर उसने किसी मृत व्यक्ति की आत्मा के लिए अपना घर-बार बेचकर भी अपने कर्त्तव्य का पालन किया।

किसी व्यक्ति के मरते ही दरवाजे पर घी का चिराग जला दिया जाता है और शव को ठीक दहलीज पर रखकर शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा की जाती है। कभी-कभी तो दफनाने का यह शुभ मुहूर्त कई दिनों तक नहीं आता।

शुभ मुहूर्त आने पर पुरोहित, शव को देखता और उस पर पवित्र जल छिड़कर प्रार्थना के मन्त्र पढ़ता है। इसके बाद शव को नंगा कर दिया जाता है और सारे शरीर पर चावल का आटा, नमक और चन्दन का बुरादा मला जाता है। इसके बाद सफेद धागे से पैर और हाथ के अंगूठे एक साथ मिलाकर बांध दिये जाते हैं। हाथ में कौड़ियां बांध दी जाती हैं और हथेलियों को छाती पर इस प्रकार जोड़कर लगा दिया जाता है, मानो शव प्रार्थना करने के लिए हाथ जोड़े हुए हैं। इसके बाद कांच के टुकड़े-टुकड़े करके उसके चूर्ण को आंखों पर बिछा दिया जाता है, लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े दांतों पर रखे जाते हैं और हीरे से जड़ी हुई एक अंगूठी मुंह में रख दी जाती है। नाक में जस्मिन के फूल और दोनों हाथ-पांव पर लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े रखे जाते हैं। यह सब क्रिया इसलिए की जाती है कि जिससे मृत व्यक्ति अगले जन्म में खूब मजबूत हो। कांच के समान चमकीली आंखें, लोहे के समान हाथ-पैर और सुगन्धिपूर्ण नाक, इस्पात के से दांत-ऐसा हो वह व्यक्ति-इसीलिए यह वस्तुयें उस पर दफनाने के पहले चढ़ायी जाती हैं। एक सफेद कपड़े से उसका शरीर ढंक दिया जाता है और चेहरे पर अण्डे का रस मल दिया जाता है। यह इसलिए किया जाता है जिससे अगले जन्म में शरीर स्निग्ध रह सके। इसके बाद सारे शरीर को एक सफेद कपड़े में लपेट दिया जाता है और ऊपर से एक चटाई लपेट दी जाती है।

अगर लाश को ममी में नहीं रखना होगा, तो उसे गाजे-बाजे के साथ ले जाया जाता है और मृत के सगे-सम्बन्धी लाश के साथ गाते-बजाते और बांस के पीपों में भरे पवित्र जल को रह-रहकर लाशपर छिड़कते चलते हैं। जहां लाश दफनाई जाती है, वहां पहुंचने पर कब्र में जो पहले से खोदकर तैयार रखी जाती है-कुछ पैसे रखे जाते हैं और तब धरती माता की प्रार्थना कर लाश कब्र में डाल दी जाती है। लाश के मुंह पर बांस का एक पीपा लगा दिया जाता है और सारी लाश को मिट्टी से ढंकने पर भी इस पीपे को खुला रखा जाता है, जिससे इसकी राह से आत्मा निकल सके। लेकिन आत्मा मुंह से निकलते ही धूप न लग सके और वर्षा से वह भीग न सके, इसलिए बांस के पीपे के ऊपर कागज की एक नफीस बना दी जाती है। इसी दिन से लगातार 12 दिन तक कब्र पर उपहार चढ़ाये जाते हैं। और मृत्यु के दिन से 14 दिन तक फिर उपहार चढ़ाये जाते हैं। दीपक जलाये जाते हैं और माला-फूल से उसकी पूजा की जाती है। इसी बीच में आत्मा शरीर से निकल जाती है। इसके बाद शव का दाह-कर्म किया जा सकता है, बशर्ते कि ऐसे मरणोत्सव के लिए परिवार में रुपये काफी हों।

अब पुरोहित एक बार फिर बुलाया जाता है और उसे अब यह बताना है कि शव के दाह कर्म के लिए क्या मुहूर्त होगा। काफी पहले से इसकी तैयारियां की जाती हैं। मुहूर्त के दिन शब कब्र खोदकर निकाला जाता है। प्रायः एक महीना सात दिन के पहले यह मुहुर्त नहीं रखा जाता, पर कभी-कभी तो वर्षों बाद दाह-कर्म होता रहा है। उस अवस्था में मृत की केवल हड्डियां शेष रह जाती हैं और अगर वे भी न रहीं हों, तो कब्र के नीचे की मिट्टी का ही दाह-कर्म कर दिया जाता है। इस बात में भी बाली-निवासी दुनिया से निराले हैं कि यहां दफनाने तथा दाह-कर्म करने की दोनों ही प्रथायें हैं।

कब्र से शव के अवशेषांश को निकालकर घर लाने के बाद उसे फिर दहलीज पर रखा जाता है। इस बार इसे रेशमी कपड़े से ढंककर कितने ही आभूषणों से सुसज्जित किया जाता है, सोने और चांदी के बर्तन भी उस समय उस पर चढ़ाये जाते हैं। लेकिन यह सब करने के पहले उस पर कितने ही यन्त्रों के निशान बनाये जाते हैं। कहा जाता है कि ये निशान आत्मा की शान्ति के लिए बनाये जाते हैं।

अब शरीर अथवा उसके शव का कोई महत्व नहीं रहा जाता, परिवार को अब केवल उस शरीर में रहने वाली आत्मा की चिन्ता होती है। खजूर के एक पत्ते पर मनुष्य के आकार की एक तस्वीर रंगकर बनाते हैं और दूसरी मूर्ति चन्दन की एक पतली सी तख्ती पर बनायी जाती है। इसके बाद इन दोनों को चांदी के एक बर्तन में रख देते हैं। बर्तन में आत्मा के सुख-आराम के लिए बेलपत्र, सुपारी तथा फूल पहले ही रख दिये जाते हैं। इसके बाद खजूर के पत्तों पर मृत व्यक्ति का नाम लिखकर उन्हें शव के शेषांक के प्रत्येक टुकड़ेपर बांध दिया जाता है, किन्तु यदि किसी की मृत्यु समुद्र में डूबने से हो जाये अथवा किसी की कब्र का पता न लग सके और उसके शव का शेषांक न मिले, तो खजूर पत्ते और चन्दन की तख्ती पर बनी हुई उसकी आत्मा में ही उसका नाम खजूर के पत्ते पर लिख कर बांध दिया जाता है।

अब नये मिट्टी के बर्तनों में सुदूर पहाड़ी झरनों से जल भरकर लाया जाता है और उस स्थान पर रखा जाता है, जहां व्यक्ति की मृत्यु हुई थी। उक्त बर्तनों पर कमल चित्रित किया रहता है और ÷ऊँ' लिखा रहता है। इसके बाद परिवार वाले कब्र के पास जाते और घुटने टेककर प्रार्थना करते हैं। फिर थोड़ी-सी जमीन खोदी जाती है और उस जगह परिवार का सरदार एक हल्की सी ठोकर लगाता है, जिससे सोयी हुई आत्मा जग जाए। इसके बाद अनुमान किया जाता है कि आत्मा घड़ों में आ जाती है और तब उस पर फूलों की वर्षा की जाती है। इस सब बातों के साथ पुरोहित नेतृत्व करता है।

लेकिन पुरोहित का सबसे बड़ा महत्व तो उस दिन दिखाई पड़ता है, जब दाह-कर्म के एक दिन पहले आत्मा की शान्ति के लिए उसके आर्शीवाद की कामना की जाती है। शव शेषांश लिये हुए सुन्दरियां खूब सुसज्जित होकर आगे चलती हैं और उनके पीछे-पीछे युवक भाला, माला, झण्डे आदि लिये हुए नाचते गाते आगे बढ़ते हैं। कतार बांधकर बहुमूल्य साड़ियों में सजी सुन्दरियां, जिनके वस्त्र जमीन पर लिथड़ते चलते हैं, गीत गाती युवकों का नेतृत्व करती हैं और आकाश संगीत की ध्वनि से गूंजने लगता है। किसी अधिक सम्भ्रान्त व्यक्ति के शव का शेषांश परिवार की सबसे छोटी लड़की लेकर चलती है। उस समय लड़की को सुन्दर कपड़ों में हीरे-जवाहरात के आभूषणों से सुसज्जित करके एक पालकी में बैठाया जाता है और श्मशान तक इसी भांति ले जाया जाता है।

श्मशान घाट पर एक नाटक होता है। यह नाटक युगों से बाली में अभिनीत होता आ रहा है। इसका नाम है ÷भीम स्वर्ग।' इसकी कहानी में भीम की स्वर्ग यात्रा का विवरण दिया गया है। कुछ ही मिनटों का यह अभिनय है और इसे मृतात्मा के परिवार वाले करते हैं, लेकिन उपस्थित जन-समूह इसे खड़े होकर सुनता है। इस कहानी के कहने का अर्थ यह है कि आत्मा को पता चल जाए कि स्वर्ग और नरक के सुख-दुःख क्या हैं?

अब वे स्तम्भ लाये जाते हैं, जो दाह-कर्म के लिए ही खासतौर पर कुशल कारीगरों द्वारा बनाये जाते हैं। इसी के भीतर पशु के आकार का कफन बनाकर रखा रहता है। कफन के लिए किस पशु का आकार चुना जाए, इस सम्बन्ध में भी सभी के लिए एक विधान नहीं है। विभिन्न जातियों के लिए विभिन्न पशुओं के आकार के कफन बनाये जाते हैं। शुद्रों के लिए अद्भूत जानवर ÷गंज-मीन' के आकार का कफन बनाया जाता है। यह पौराणिक जानवर है, जिसका अंग हाथी और मच्छली का है। प्रायः सभी शुद्रेतर जातियों में पुरुष के लिए बैल और नारी के लिए गाय के आकार के कफन बनाए जाते हैं।

सब कुछ तैयारी कर लेने के बाद अतिथियों द्वारा अन्तिम पुण्य-दान करने के पश्चात शव का शेषांश श्मशान की ओर चलता है। इस समय पवित्र जल छिड़का जाता है और आग जलाई जाती है, जिससे जल-वृष्टि करने वाले प्रेतों को सन्तुष्ट कर दिया जाए और जल-वृष्टि न हो सके।

श्मशान घाट पहुंचने के पहले सारे रास्ते में भीड़ भक्ड़ के मारे धूल उड़ती रहती है और शोर-गुल के साथ चिल्ला-चिल्लाकर लोग गाते-बजाते चलते हैं, रास्ते में रुक-रुक कर जगह-जगह आतिशबाजियां छूटती रहती हैं। जुलूस के लोग कई टुकड़ियों में विभाजित हो जाते हैं और शव ले चलने के लिए उनमें भारी संघर्ष होता है।

श्मशान पहुंचने पर लाश खोली जाती है-बल्कि लाश का केवल थोड़ा बचा-खुचा अंश। पुरोहित मन्त्र पढ़ना और फिर लाश को जलाने के लिए तैयार किया जाता है। शव में दियासलाई से आग नहीं लगाई जाती, ऐसा करना अपवित्र समझा जाता है। इसके लिए पत्थरों को रगड़कर अथवा आतशी शीशे से आग पैदा की जाती रही है।

आग लगी और तत्काल बैण्ड आदि बजने लगे, लोग नृत्य करने लगे, पुजारी मन्त्रोच्चारण करने लगा। लपटें उठतीं और कुछ ही घण्टों में प्रज्वलित लपटों से सब कुछ भस्मात्‌ हो जाता है।

लेकिन अन्त्येष्टि की विधि इतने से ही समाप्त नहीं हो जाती। शव जल जाने के बाद उसकी राख एकत्र की जाती है और एक कुल्हड़ में-जिसपर ÷ओइम्‌' लिखा रहता है-रखी जाती है और समुद्र में प्रवाहित करने के लिए लोग चल पड़ते हैं। बाली में मृतात्मा को इतना महत्व दिया जाता है कि उसका भस्म-प्रवाह कर देने के बाद भी उसके परिवारवालों का कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता और अगले 42 दिनों तक उसके नाम पर दीप-दान किया जाता है और आत्मा की सन्तुष्टि के लिए कुछ भी उठा नहीं रखा जाता। लेकिन यह सब इस ढंग से किया जाता है कि मातम मालूम ही नहीं होता, यह सब विधियां उत्सवों के समान मनायी जाती हैं।

(यू.एन.एन.)