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कथा-कहानी
एक बेचारी मेनका स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
      
हिन्दुस्तानी, चालीस बरस की उम्र में बूढ़ा कहलाता है। तो बस इस बुढ़ापे के आने पर दौलत राम के अंधेरे घर में चांदना हुआ। चांदना तो हुआ, पर आज के लोग उसे अधूरा कहते हैं-यानी लड़की हुई!

लोग कहें तो कहें, पर दौलतराम नहीं कहते। उनके लेखे तो घर जगमगा उठा है, सारा अंधेरा दूर हो गया है, और स्वर्ग के किसी देवी-देवता ने, कन्या रुप में, उनके घर में जन्म लिया है।

उनका तो सारा धन, सारा मान, सारा यश और सारा स्नेह उस कन्या के लिए ही मानो सुरक्षित था और उन्होंने उदारता-पूर्वक उसका उपयोग किया। जो चेहरा अक्सर मुर्झाया रहता था, सहसा कमल की तरह खिल गया। जो शरीर सदा सुस्त और गिरा-गिरा रहता था, हठात्‌ लोहे की कल बन गया। मतलब यह है कि दौलतराम अब वे दौलतराम न रहे। उनकी सूखी हुई जवानी में जैसे फिर एक बार रस का संचार हो गया।

कई बरस से नए कपड़े न बनवाऐ थे। अब दर्जी और बजाजों का तांता लग गया। मुद्दत से मकान बे-मरम्मत, बे-सफेदी पड़ा था। झट राज-मजदूर लग गए। माली और नौकरों को जवाब दे देने से बगिया श्री हत हो गई थी, अब घंटों ही घंटों में रस्ते पर बजरी पड़ गई, क्यारियों में पानी पहुंच गया, सूखे पत्तों की सफ़ाई कर दी गई, और चमेली की डालियों के पास आराम कुर्सियां डाल दी गई।

एक बात और भी हो गई! तीन-चार दिन से जिस वसीयत नामे की रजिस्ट्री करने का विचार कर रहे थे जिसमें एक लाख रुपया 'चैरिटी-फंड' में लिखा था,-वह फाड़कर जला दिया गया। मतलब यह कि वैराग्य की तरफ़ जाते-जाते एक दम रुक गए।

उनकी स्त्री इधर आठ महीने से मायके में थी। वहां भाई के बच्चों से हंस-खेल कर अपनी साध पूरी कर रही थी। गर्भ अनेक बार रहा था, पर बच्चा कभी जीता हुआ नहीं, इसलिए अब की बार चिन्ह नज़र पड़ें तब पतिदेव को ख़बर देकर पहले खुश और पीछे दुःखी करना उसने न चाहा। अतएव जब तक वह अंधेरे घर का चांदना, लड़की, सही-सलामत, राजी-खुशी हो न गई, दौलतराम को ख़बर न मिली। भाई ने भी कुछ इसलिए कि बहन का अपार धन उसे बहन के आगे कान तक न हिलाने देता था, दौलत राम को कोई सूचना न भेजी।

लड़की पैदा हुई, और महीने भर की होकर मां के साथ पिता के घर आई।

दौलतराम ने दौड़कर पहले बेटी को चूमा, फिर स्त्री को। स्त्री बेचारी मन-ही-मन शर्मा गई और मुस्कुराकर बदले में विनोद किया। दौलतराम हंस पड़े।

दौलतराम उसका नाम रखना चाहते थे-मेम। मां ने इसे पसन्द न किया। वह कोई देशी नाम चाहती थी। कहती थी-मेरी बेटी बहुत बड़े घर ब्याही जाएगी, किसी बड़े ओहदेदार से इसका ब्याह करुंगी। अब उसका नाम सुनकर सास-ससुर और उसका दूल्हा नाक-भौंह चढ़ाएंगे। कहेंगे-'कैसे गंवार हैं मां-बाप, नाम भी रखना नहीं जानते।' दौलतराम इस तर्क को न मानते थे। कहते थे-हमें दूसरे की पसन्द से क्या काम? हमारी चीज़ है, हमारी बेटी है, हम चाहे जो नाम उसका रक्खें! सबसे पहले अपनी पसन्द है, पीछे किसी और की! इस पर ख़ासी मीठी बहस हुई। आख़िर इस बात पर समझौता हुआ कि मित्रों से पूछा जाए। जो राय मिले, जो नाम वे बताएं, वही रक्खा जाए! शर्त यह रही कि न दौलतराम अपनी तरफ़ से कोई नाम मित्रों के सामने पेश न करें, न उसका आभास ही दें।

दौलतराम अब सैर भी जाने लगे थे। शाम को खुशी-खुशी लौट कर बोले-लो, नाम निश्चित हो गया! आख़िर तुम्हारे ही मन की रही। बिल्कुल पौराणिक है।

''क्या है?''

''मेनका।''

''मेनका?''

''हां, बिलकुल पौराणिक है।''

पर गृहणी इससे भी सन्तुष्ट न हुई। पुराणों में जिस मेनका की कथा है वह तो नर्त्तकी थी। कैसे यह नाम भले घर में आ सकता है? बोली-ऊं हूं। और कोई।

पर दौलतराम ने इस बार एक न सुनी, उसी क्षण से कन्या का नाम मेनका हो गया।

स्त्री का क्या वश? बहुत सोचा, बहुत विचारा और तब खुद बेचारी उसे मैना कहने लगी।

पुरुषों में वह मेनका कही जाती और स्त्रियों में मैना।

मैना सब तरफ़ से स्नेह में डूबी रहती। मां-बाप का प्यार, मामा-मामी का प्यार, पास-पड़ोसिनों का प्यार, क्लब-घर के प्रौढ़ों का प्यार-हर तरफ़ प्यार ही प्यार था। उसकी सूरत ही कुछ इस किस्म की थी कि प्यार के अलावा और कोई कुछ कर ही नहीं सकता था। पतले होठ, खुली हुई काली-काली आंखें, लम्बी और पतली पलकें, गुलाब से गाल, पतली सी नाक, घुंघराले बाल, ठुमकदार चाल-यह सब कुछ दुश्मन का मन भी मोह लेते थे। पैरों में लाल रंग के जूते-मोजे़ पहने रहती, ऊपर बढ़िया कपड़े का नेकर- कमीज़, गले में लाल रुमाल का 'एकाफ़' दोनों बाहों पर कभी लाल, कभी नीले रंग की खूबसूरत रेशमी कत्तर और दोनों हाथों में हर वक्त रंग-बिरगें फूलों का बड़ा सा संग्रह लिए रहती थी।

एक-एक क्षण करके छः बरस बीत गए। दौलतराम ने इन छः बरसों में जैसे जीवन के असली सुख का उपभोग किया। ये छः बरस इन्हें छः दिन से भी ज्यादा छोटे जान पड़े। जीवन का सारा सुख मेनका या मैना पर केन्द्रित हो गया। उसे वे साथ खिलाते, साथ सुलाते, साथ सैर कराने ले जाते, और जब मास्टर पढ़ाने आता तब अक्सर घण्टों उसके पास ही बैठे हुए उसका पढ़ना देखा करते।

मेनका कोई एक बात कह देती तो उसे दुहरा-दुहरा कर घण्टों हंसते रहते, गृहिणी को सुनाते, मित्रों में कहते, और सौ-सौ बार गोद में लेकर बेटी को चूमते, प्यार करते!

गृहिणी मैना को इतना मुंह न लगाती थी, न उसके उत्पात ही सहन करती थी। यह तो कैसे कहें कि बेटी पर उसे अधिक स्नेह न था। हां, यह कहें, तो कह सकते हैं कि दौलतराम का स्नेह बेटी पर इतनी अधिक मात्रा में था कि गृहिणी के स्नेह को जगह न मिलती थी।

एक लम्बा-चौड़ा कमरा मैना को अलग मिल गया था। उसी में पढ़ती उसी में किताबें रखती, उसी में खिलौने सजाती, और उसी में उसके कपड़ों के सन्दूक रक्खे रहते थे।

तीन बार कपड़े बदले जाते थे। एक जोड़ा तो सुबह बाग में दौड़ने से, लोटने से, गिरने से खराब हो जाता था, एक जोड़ा दोपहर में खाने-पीने में बिगड़ जाता था, एक जोड़ा शाम को साथी-साथिनों के साथ गेंद-बल्ला खेलने में या क्लब घर में बरफ़ खाने या शर्बत पीने में चिपक-पिचककर बदलने लायक हो जाता था।

दिन पर दिन बीतने लगे। नौ, दस, ग्यारह, बारह बरस की हुई। तब नेकर-कमीज़ का वेश बेढंगा सा जंचने लगा। दौलतराम की आंखों में तो चाहे न खटका हो, पर मां ने नाक भौंह चढ़ाकर एक दिन साड़ी पहना दी।

साड़ी पहनी कि उम्र सहसा बढ़-सी गई। मां ने उसे भर नज़र देखा, और नियन्त्रण आरम्भ किया।

खूब खाया-पिया, और खूब खेली। न कुछ फिक्र, न कुछ अनुशासन। मेनका का शरीर खूब निखरा था और खूब खिला था। साड़ी पहनकर बारह बरस की ही वह कितनी बड़ी लगती थी।

मां ने मुंह फेर लिया, कहीं नज़र न लग जाए! कहा-जा पढ़!

दौलतराम ने देखा, खुश हो गए। हाथ फैलाकर बोले-'आ'!

मैना शीशे में देखकर आई थी। न जाने हठात्‌ क्या परिवर्तन हो गया कि उसके मुंह पर कुछ गम्भीरता झलक आई। पिता ने हाथ फैला कर कहा, आ, तब गई नहीं, वहीं खड़ी मुस्कुराने लगी, और अपने कमरे में घुस गई।

पिता को यह परिवर्तन कुछ खटका तो ज़रुर पर कुछ यों ही सा, और वे किसी अपने काम में लग गए।

दो मास्टर उसे पढ़ाने आते थे, उस दिन दोनों ही क्षण-क्षण भर को ठिठके। फिर पढ़ाने में लग गए।

दोपहर को कुछ पड़ोसिन आईं और उसे देखकर आंखों ही आखें में मुस्कुराई।

शाम को रोज़ की तरह क्रिकेट खेलने मिस्टर चैटर्जी के बगंले पर गई। सब साथी समवयस्क थे। मिस्टर चैटर्जी का मंझला लड़का इंड्रेंस में पढ़ता था। उस दिन वह टेनिस खेलने नहीं गया था। दरवाजे की सीढ़ियों पर खड़ा-खड़ा बच्चों का खेल देख रहा था। साड़ी पहने हुए लम्बी-लम्बी मेनका को पहचानकर आज वह भी चौंक पड़ा।

राम! इस साड़ी ने कैसा परिवर्तन ला दिया।

रात को मेनका अपने कमरे में बैठी कहानियों की किताब पढ़ रही थी और पति-पत्नी बाहर के बरामदे में बैठे बातें कर रहे थे।

सहसा गृहिणी ने कहा-क्यों जी?

दौलतराम बोले-हां, कहो।

''तुम्हें कुछ होश है?''

''क्या होश?''

''हां लड़की का।''

दौलतराम की समझ में जैसे सहसा कुछ न आया। मुंह फाड़कर रह गए।

गृहिणी ने पूछा-तो क्या सोचा है?

दौलतराम समझ कर भी ना-समझ बन गए-तो क्या सोचूं ?

''ब्याह!''

''ब्याह?''

''हां किसी लड़के की तलाश कर लेनी चाहिए। बहुत लाड-लड़ा चुके। तेरह बरस की होने आई। हमारी उम्र दिन-दिन गिरती पर है। ब्याह-काज कर छुट्टी पाएं, फ़र्ज़ अदा हो।''

पर दौलतराम के कलेजे में तो जैसे गरम छुरी घुस गई! ब्याह? ओफ़! कन्या का ब्याह होना है? पराए घर जाएगी? अरे हां, अब तक सोचा भी नहीं।

मुंह से निकल पड़ा, हां, अच्छा ?

उसी वक्त एक मित्र आ गए। गृहिणी बात पूरी किए बिना ही उठकर भीतर चली गई।

दौलतराम के कलेजे में तो जैसे घाव हो गया था। उसकी पीड़ा से उनका तो रोम-रोम छटपटा रहा था। उनके नेत्र तो केवल मोटे-मोटे अक्षरों में लिखे हुए एक ही शब्द को देख रहे थे-ब्याह!

बात कुछ जमी नहीं, मित्र उठकर चलते बने।

मेनका जोर-जोर से पढ़ रही थी। दौलतराम उठकर उधर चले, और उसके कमरे में पहुंच कर कुर्सी पर बैठ गए। मेनका ने किताब पर से नज+र उठाकर पिता को ताका। पिता ने हाथ हिलाकर जैसे स्वप्न में कहा, पढ़ो! पढ़ो!

''यह मेरी बच्ची मेनका! यह फूल सी सुकुमारी! इसका ब्याह होगा? यह दूसरे के घर जाएगी? यह दूसरे की हो जाएगी। इस पर मेरा अधिकार न रहेगा। मैं इसे गोद में लेकर प्यार न कर सकूंगा! ओह! आज सुबह मेरी गोद में नहीं आई। क्या उसने इससे कुछ कह दिया था। आज यह साड़ी उसी की कारस्तानी है।

''छिः! मैं भी खूब हूं। ब्याह तो होगा ही। होगा ही? हुए बिना रह नहीं सकता? हाय! मेरा प्यार! प्यार! वाह! मैं भी पचास बरस का हुआ और जरा तमीज+ न आई! ब्याह तो होगा ही। सभी लड़कियों का होता है? सभी दूल्हे के घर जाती हैं, पहले रोती हैं, मां-बाप के गले लगती हैं, फिर मां-बाप को मायके को, सबको भूल जाती हैं, दूल्हे का घर ही उनका घर हो जाता है। दस दफ़ा बुलाई गई तो कभी एक दफ़ा आई।''

''ओह! यह मैंने पहले क्यों नही सोचा?''

इस 'ओह!' ने मेनका को विचलित कर दिया, और किताब उसकी बन्द हो गई। झट आकर पिता की कुर्सी के पास खड़ी हो गई। साड़ी तो आज से पहले कभी बांधी न थी, आज भी खुद नहीं मां ने बांधी थी। दिन में दस-बीस बार खुल पड़ी थी। शीशे में लगती तो अच्छी थी, पर कष्ट बहुत दे रही थी। शाम को क्रिकेट भी न खेल सकी। कष्ट होता है तो हो, अच्छी तो लगती है।

अब भी साड़ी सिर पर न रह कर कन्धे पर थी, और धरती में घिसट रही थी।

''पिताजी, बाबूजी।''

'बाबू जी' सदा से कहती आती है, और पिताजी आज कई बार कहानी की किताब में पढ़ा है-इसी से भूल हुई।

पर बाबूजी ने इसे महत्व दिया। ''आज ही क्यों इसने पिताजी कहा? जरूर कुछ भनक इसके कान में पड़ी है? छिः यह बच्ची? अभी कुछ नहीं समझती! कुछ नहीं। मेरा पागलपन है। अरे! यह मेरा दिल यह मेरे जिगर का टुकड़ा, इसे मैं किसी और को सौंप दूं?

'सौंप दूं' कुछ जोर से निकल गया। और मेनका ने फिर वहीं भूल की-पिताजी, बाबूजी।

और हमेशा की तरह वह उछल कर बाबूजी की गोद में जा पड़ी। बाबूजी, उसे गोद में छिपाकर रोने लगे।

पर गृहिणी ने तो दिन काटने दूभर कर दिए। ''खोजो जी, तलाश करो जी।'' तगादे पर तगादा। डांट-पर-डांट, उलहने पर उलहना।

दौलतराम सुनते हैं, टालते हैं, मेनका को देखते हैं, घंटों बड़बड़ाते हैं, और अकेले में बैठकर बेटी को गोद में चिपकाकर घंटों रोते हैं।

उनका यह भाव मेनका को रुचता नहीं, वह उनसे अब कुछ शर्माती-सी है, उनके पास जाने से कुछ, हिचकती-सी है, उनसे कुछ डरती-सी है। जब देखते हैं, गोद में उठा लेते हैं, चूमते हैं, प्यार करते हैं और रोने लगते हैं। यह क्या बात है?

पहले-पहल गृहिणी से कहा-इस हीरे की कनी को किसी पाजी छोकरे को दे डालूं? इस घर की लक्ष्मी को किसी कमबख्त ग्रेजुएट के पल्ले बांध दूं? इस स्नेह की पुतली को घर से निकल दूं? न! यह असम्भव है।

गृहिणी ने दो-चार बार तो हंस दिया, पर अधिक दफ़ा सुना तब अच्छी तरह डांटा। ''यह क्या कहते हो जी? दुनिया से अनोखी बात! लड़की किसी की रही भी है? किसी अच्छे से लड़के को ढूंढो पढ़ा-लिखा हो बुद्धिमान हो, सदाचारी हो, बड़े घर का हो।''

लड़के की और ब्याह की बात सुनकर दौलतराम की देह जल उठती थी। पर अब तो गृहिणी भी उनके मनोभाव को जानकर आड़े हाथों लेने लगी। अब कैसे उससे कहें? कैसे दिल की आग बाहर निकालें?

कई बार झगड़ा हुआ, और इन्हीं झमेलों में साल भर निकल गया।

आखिर एक दिन गृहिणी कूद पड़ी रण में। बोली-देखो जी, तुम्हारा तो दिमाग बिगड़ गया है, तुम्हारी बातें जो सुनती है वही यह कहती है। अब मैं करती हूं लड़के की तलाश। तुम चाहे करो, चाहे न करो।

क्या सचमुच दिमाग बिगड़ गया? नहीं तो। ठीक है, सही है, सब बात समझते हैं। पर मित्र लोग भी उन पर हंसने लगे हैं। वे कभी कन्या के ब्याह की बात चलाते हैं और अपने विचार प्रकट करते हैं तब सभी उनकी तरफ़ देख-देख कर मुंह छिपाने लगते हैं।

क्या सचमुच उनका दिमाग खराब हो गया है ? जरूर हो ही गया है। ''कन्या का ब्याह।'' क्या सचमुच करना ही होगा? हे परमात्मा, कैसे होगा? क्या होगा? नहीं जी, नहीं होगा?''

सहसा मेनका के किताब पढ़ने की आवाज आई। उठकर चले उधर-ही। बैठ गए जा कर कुर्सी पर। ''यहां आइयो बेटी।''

बेटी भागने की ताक में थी, पर घात न लगी, आना पड़ा। आज उसे गोद में भिंचना नहीं पड़ा, न प्यार देकर बार-बार गाल पोंछनें पड़े, न मोंछों के कड़े बालों से व्याकुल होना पड़ा।

आज पिता ने पास बुलाकर सहसा पूछा-तू ब्याह करेगी?

मेनका का चेहरा एक बारगी लाल हो गया और वह एक सैकेंड भी कमरे में न ठहर सकी!

दौलतराम ने बेटी के मुंह पर न जाने क्या देखा और क्या पढ़ा कि कुर्सी में निढाल हो गए, फिर घंटे भर बाद बहुत लम्बी सांस लेकर बोले-दौलतराम सचमुच तुम्हारा दिमाग खराब हो गया!

दिल्ली में बड़े-घरानों के कई पढ़े-लिखे लड़कों का जि+क्र गृहिणी चला चुकी थी। सुबह उठे और यात्रा का प्रबन्ध करने लगे। गृहिणी ने पूछा-कहां चले?

झट जवाब दिया-दिल्ली। लड़का तलाश करने। मेनका के लिए। ब्याह तो करना होगा न?

गृहिणी ने अजीब नज़र से पति को ताका, कहा-भाई आज आते होंगे। चिटठी लिखी है। उन्हें लेकर जाना।

पर दौलतराम ने किसी की राह न देखी और चाय पीकर स्टेशन चल दिए।

पूरब की गाड़ी उसी समय आई थी। साले साहब प्लेट-फार्म पर मिल गए। बोले-कहां चले? जवाब दिया-दिल्ली चलते हैं। तुम भी साथ चलो। लड़का ढूंढना है। बाकी बातें गाड़ी में होंगी।

साले-बहनोई दिल्ली की गाड़ी में बैठ गए।

होटल में पहुंच कर दौलतराम का तो कलेजा जैसे बैठ गया, मुंह ज़र्द पड़ गया, और आंखों में नमी आ गई। खुद तो पडे+ रहे पलंग पर और साले से बोले-लो भाई, ये पते लो, पहले तुम जाकर लड़कों से और उनके घरवालों से मिलो, फिर मैं।

साले साहब बहनोई का भाव समझने में असमर्थ रहे, फिर भी उनके आदेश का तो अक्षरशः पालन करना था। जबर्दस्ती यह सोच कर कि थक गए हैं, साले साहब पते का कागज लेकर चल दिए।

साले साहब समझते हैं-ब्याह अनिवार्य है, तो भी मन में चाहते हैं, न हो! या ब्याहवाली न होती तो अच्छा था। सच्ची बात यह है कि उनके स्वार्थ में वह बड़ा भारी रोड़ा जब तक न अटकता तभी तक अच्छा था। अभी तक बहन, भाई को, भावज को और भांजे-भांजी को खूब चाहती है, खूब देती है। फिर भला मेनका, उसके पति और उसके बच्चों से स्नेह का कितना अंश बचेगा?

दौलतराम दिन भर सोते रहे, लेटे रहे, और रोते रहे। तीन बजे के करीब साले साहब लौटे और कुर्सी सरका कर बैठ गए। नम्बरवार अपनी रिपोर्ट उन्होंने सुनानी शुरू की।

''देखिए, इसकी तो सगाई कल ही उजागर लाल वकील की लड़की के साथ हो गई है, और इनसे हमारा गोत्र मिल गया है। ये अभी ब्याह नहीं करना चाहते। इनके पिता ने कहा कि लड़के का ब्याह है, उसी से बात करो! लड़के साहब ने इसी साल एम.ए. पास किया है। पहले तो टाल-टूल करते रहे, फिर पूछा- लड़की का फोटो लाओ और उसकी विशेषताएं? जब मैंने कहा, घर पर ही पढ़ी है तब बोले, ओ यू डैम! सिली लड़की! चले जाओ यहां से! उनके एक मिलने वाले से मालूम हुआ, विलायत से कोई लेडी लाने की फिक्र में हैं। ये दो लड़के बचे। शायद इनसे हो जाए रिश्ता। अब आप चल कर दोनों से बात-चीत कर लें, लड़कों को देख लें।

पर दौलतराम ने एक चीख भरी और आंखें फाड़कर बोले-उस पाजी की इतनी हिम्मत! सिली लड़की। चलो, उस बदमाश को जान से मार दूं! नमकहराम, सूअर पाजी कहीं का!

दौलतराम की आंखों से चिंगारियां छूटने लगी, और शरीर सारा पसीने से शराबोर हो गया। नथुनों से जैसे आग के शोले निकलने लगे।

बार-बार दांत पीसकर कहने लगे-ओ पाजी! ओ बदमाश! इतना दम्भ! इतना अहंकार! गोली से उड़ा दूंगा। जान से मार दूंगा। टुकडे-टुकड़े कर डालूंगा। सिली लड़की कहता है! पाजी! नालायक! गधा!

उस दिन न खाया, न पिया, न बोले, और चुपचाप पड़कर सो गए।

सोते-सोते कितनी बार चौंके, इसकी कोई गिनती नहीं। सुबह हुई। साले साहब ने डरते-डरते प्रस्ताव किया, उन दोनों लड़कों से।

चलें। तांगा बाहर खड़ा किया, और साले साहब भीतर पहुंचे। लड़का और लड़के का बाप मौजूद थे। साले साहब दुआ-सलाम के बाद बैठे और बोले -आ गए हैं।

लड़के के बाप ने मोंछों में हंसकर ताने से कहा-उनसे कह दिया है न?

लड़के के बाप जो-कुछ कहलवाना चाहते थे, वह बहनोई के क्रोध और आवेश से डरकर साले साहब वह न कह सके थे। बोले, अब आप खुद ही कह देखिएगा। आ तो गए ही हैं। यह तो आपको बता ही चुका हूं कि एक लड़की है, किसी बात की कमी नहीं है।

लड़के के बाप ने सिर घुमा कर कहा- न साहब! मैं इस झांसे में आने वाला नहीं हूं। मैं तो पहले तय कर लूंगा। अगर बीस हज+ार नकद दें। आपको पता नहीं कितने गुना खर्च कर चुका हूं। मेरी ही छाती थी जो बी.ए. पास कराया। समझे आप? लाख चिराग लेकर ढूढ़ें तो भी ऐसा लड़का नहीं मिल सकता।

कहते-कहते लड़के के बाप अभिमान और गौरव से तनकर हंसने लगे। बोले-तो पहले उनसे कह दीजिए।

''अच्छा, कह दूंगा। लाता हूं उन्हें?''

उनके जाते ही लड़के साहब एक खूब मोटी अंगरेजी की डिक्शनरी उठाकर पढ़ने लगे या देखने लगे।

दौलतराम तांगे में बैठे थे। यह घर। मेरे नौकरों का घर इससे अच्छा है। इसमें आकर बन्द हो जाएगा मेरे जिगर का टुकड़ा, इस पिंजरे में, इस परदेश में मुझ से बिछड़ कर।

साले साहब आए और बोले, चलिए।

''चलिए।''

यह 'चलिए' जैसे बेहोशी में निकल पड़ा हो।

जाकर बैठे। लड़का भी था, लड़के का बाप भी था। लड़का रंग का काला, उंगलियां भद्दी, मोंछें बे-तरतीब, अधेड़ों के से, गाल पिचके हुए, आंखें धंसी हुई, और सिर के बाल रुखे। मैला कमीज-पायजामा पहने, बैठा हुआ पैर हिला रहा था, और आंखें मींच-मींच कर हंस रहा था। जैसे सिर्फ बी.ए. की डिग्री लेकर अपने आप को इतना भारी समझता था कि नए कपड़े पहनने और मुंह धोने और सिर में तेल डालने में अपमान और कमजोरी समझता हो और दौलतराम और उनके साथी को अति तुच्छ।

लड़के वाला उजड्ड और पाजी था। मुंह गंवारों का सा, और मोटे कपड़े की पगड़ी और मिर्ज़ई पहने था। आंखों में भयानक क्रूरता, अहंकार और ताने का भाव झलकता था।

दौलतराम ने चुपचाप दोनों को देखा, और तब सहसा खड़े होकर साले से बोले-चलो, खड़े हो जाओ। गला उनका भरा हुआ था।

साले-साहब कुछ न समझे, और खड़े हो गए। दोनों झटपट बाहर हो गए।

बाप-बेटे के मुंह पर एक रंग आता था, और एक जाता था, जैसे बिजली गिर पड़ी हो।

तांगे में बैठकर साले साहब ने पूछा-क्यों? पसन्द नहीं आया?

दौलतराम ने कहा-नहीं।

कोई प्रवीण होता तो इस एक 'नहीं' को सुनकर उनके दिल का अन्दाजा कर लेता।

साले साहब करीब-करीब दूसरा लड़का दिखाने ले चले। बहनोई के पागलपन ने उन्हें परेशान कर दिया था, पर बहन का भय साधारण न था। ज+रा भी गफलत हो गई तो कच्चा चबा जाएगी।

खैर, पहुंचे। यह लड़का फोर्थ इयर में पढ़ता था, शर्ट-पेंट पहने, मेज़-कुर्सी लगाए बैठा था। कालेज का वक्त नजदीक था। मेज+ पर किताबें फैली पड़ी थी, एक कापी पर कुछ लिख रहा था।

दुबला-पतला था, रंग गोरा था, आंखों पर चश्मा था, जल्दी-जल्दी बोलता था, और जल्दी-जल्दी हाथ-पैर हिलाता था। ये दोनों गए, तो सिर हिलाकर अभिवादन किया और दो मिनट के बाद लिखना खत्म करके किताबें समेटता हुआ जल्दी से बोला- कहिए।

दोनों में से कौन सम्बोधित किया गया, यह साफ न हुआ, तो भी साले साहब ने कहा-कल मैं आया था न।

'' ओ! आई सी, हां तो, 'एस प्लीज,य् आप अंगरेजी समझते हैं?''

दौलतराम के लिए साले साहब से पूछा गया।

'हां' कहने पर पुरशिकन माथा घुमाकर बोलना शुरु किया -ऑल राईट, हाउ ओल्ड योर गर्ल...नो आइ मीन........योर डॉटर इज+?

दौलतराम कुछ न बोले, तो साले साहब ने कहा-फोर्टीन सर।

''आइ सी, फोर्टीन! येस, टॉलरेबिल, सैटिस-फैक्टरी! नाउ प्लीज़ वाट अबाउट हर फीचर्स! आइ वांट टु हैव हर फोटोग्राफ़ फर्सट! डु यू फालो जैण्टिलमैन? नाउ, मी लीव फॉर दि कॉलेज, इट्स गेटिंग लेट! सी मी टु-मारो विद दी फोटाग्राफ।''

सहसा दौलतराम उछलकर खड़े हो गए, और चिल्लाकर बोले-उल्लू! पाजी! बदमाश! और उन्होंने कसकर एक तमाचा लड़के के गाल पर जमाया और बिजली की तरह कमरे से बाहर हो गए।

साले साहब भी भागे।

इधर बाबू साहब चक्कर खाकर दस मिनट तक बे हिले-डुले कुर्सी पर बैठ रहे।

आगे आगे बहनोई थे और पीछे पीछे साले। स्टेशन पर पहुंचे। धड़धड़ाते हुए स्टेशन में घुसकर बहनोई तो बैठ गए गाड़ी में और साले साहब लौटे होटल को।

रास्ते भर बड़बड़ाते गए, और स्टेशन पर उतरे तब भी बड़बड़ाते रहे। टिकट मांगा गया तब हंस पड़े, और चल दिए। टिकट-कलेक्टर उन्हें और उनके रुतबे को जानता था, कुछ न बोला। समझा, प्लेटफार्म पर गए होंगे। सामान कुछ था नहीं।

घर पहुंचे तब करीब-करीब सन्नाटा था। गृहिणी गई थी किसी और जगह, नौकर-चाकर मालिक की अनुपस्थिति का दुरुपयोग करते हुए लेट लगा रहे थे। मेनका अपने कमरे में थी, पर आवाज+ कुछ नहीं आ रही थी।

दवाओं का बक्सा जहां था, वहां पहुंचे, जैसे किसी ने 'हिप्नोटिज़म' कर दिया हो। बक्सा खोला, और एक शीशी उठा ली, फिर पैर दबाकर मेनका के कमरे की तरफ चले।

चेहरा बिलकुल ज़र्द जैसे मुर्दों का! पैर कोई इधर पड़ता था, कोई उधर, हाथ और शरीर कांप रहे थे, और शीशी भी कांप रही थी।

मेनका गद्देदार आराम-कुर्सी पर पड़ी थी। सो रही थी। छाती पर हाथ थे और हाथों में किताब। पढ़ते-पढ़ते नींद आ गई थी।

दौलतराम की आंखें खुली हुई थी, पर कुछ नहीं देख रहे थे, हाथ-पैर चल रहे थे, पर बेकाबू थे। शरीर जाग्रत था पर मस्तिष्क सुषुप्त।

अरे! ज+हर है, उनके हाथ में!

मेनका का मुंह खुला था, जैसे ज़हर की प्रतीक्षा कर रहा था, नाक की नोक पर पसीने की बूंदें थी, दीन-दुनिया से बे-खबर मीठी नींद में थी। शीशी खुली और कॉर्क न जाने किधर फेंक दिया गया। तब शीशी बढ़ी और हाथ बढ़ा। मुंह वैसे ही खुला था।

यह किसका मुंह था? मेनका का।

शीशी और हाथ आगे बढ रहे थे।

मेनका कौन? प्यारी बेटी, जिगर का टुकड़ा हीरे की कनी।

शीशी खुले मुंह के पास पहुंच गई।

कैसी कनी? जो गोद में लेटती थी, जो प्यार किए जाती थी, जिसके प्राण अपने प्राण थे।

हवा चली और किवाड़ हिला, तब ज+रा सा खटका हुआ, जैसे किसी ने दौलतराम के सिर पर हथौड़ा मार दिया हो। बड़े कष्ट से उन्होंने सिर हिलाया, और गर्दन मोड़ी, और आंख फाड़कर मेनका को देखा। तब हाथ लौटा, और शीशी लौटी। और शीशी का ज़हर सबका सब दौलतराम के मुंह में, फिर पेट में, पहुंच गया।

दौलतराम गिरे, तब आवाज़ हुई, और मेनका जाग पड़ी।

(यू.एन.एन.)