कथा-कहानी
 
झूठ
श्रीमती उषादेवी मित्र
यज्ञोपवीत का गुच्छा उसके सौन्दर्य को और भी बढ़ा रहा था। सफेद चन्दन का टीका उसके महन्व को और नामावली उसकी निष्ठा, श्रद्धा का। मिश्रजी बीमार थे, इसलिए नारायण को यजमान के घर भेजा था। शहर के प्रायः सभी लोगों के पुरोहित मिश्र थे। बस, वधू
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अभाव की पूर्ति
प्रेमलता देवी
और चित्रकार को उसके अनुरोध से जलपान करना ही पड़ा। जूठे बर्तन उठाकर जाती हुई सविता को वह अपनी पर्णकुटी के द्वार पर खड़ा-खड़ा देखता रहा और अचानक उसकी दृष्टि दूर तक चली गई टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी के अंत पर जा पहुंची- जहां स्थित था वह विशाल मठ,
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नया आविष्कार

चित्रकार ने जोर से पुकारा- 'वैज्ञानिक ' वैज्ञानिक नदी के किनारे पहुंच पानी में पैठ रहा था। चित्रकार सन्न रह गया, कहा फिर, 'डूब जाओगे वैज्ञानिक ।' वैज्ञानिक पानी चीरता आगे बढ़ गया। चित्रकार ने देखा, गले तक पानी था।
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तुलना
विजय वर्मा
आपने ही तो न जाने कितनी बार इसपर दुख प्रकट किया था कि यहां की स्त्रियां स्वतंत्र भावनाओं और स्वतंत्र संस्कृति को भूलकर पुरुषों की क्रीतदासी सी हो गई हैं! मैं तो मेज को ही नहीं, कमरे के फर्श तक को प्रतिदिन दो बार साफ करना और जलपान सामग्री ही नहीं
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पद चिन्ह
उषादेवी मित्रा
ऊषा जाग चुकी थी। प्रभाती की गमक, तरु-हृदय में पक्षी का काकली गान। खुली खिड़की से अरुण प्रकाश कमरे में छिटक रहा था। घड़ी ने छः की घंटी बजा दी। सुधेन्दु सहमकर उठ खड़ा हुआ, उस चेतना से पारिजात भी मानों वास्तव जगत में लौट पड़ी।
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हत्यारा
नित्यानन्द
सुभद्रा वैसी ही थी। तरुण और सुन्दर, और इतनी कोमल कि कोई उसे एक बच्चे की मां नहीं कह सकता था। वह स्त्री का बोझ ढ़ोने लायक नहीं कही जा सकती थी। मुझसे उसने कभी मृत शिशु के बारे में बातचीत नहीं की और मैं चुप रहा। मुझे उस बच्चे का हालचाल सुनने की उत्सुकता तो थी, किन्तु मैं सुभद्रा को दुःख न पहुंचाना चाहता था।
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एक था लेखक रामदुलारे
द्विजेन्द्रनाथ मिश्र
और दोपहर गाड़ी से ननिहाल के लोग आ गये। रामाधार ने आते ही बुआ के पैर छुए, फिर पीढ़ा खींचकर पास बैठ गया, बैठते ही बोला- ''बुआजी, मुझे इस शादी की खबर सुनकर इतनी खुशी हुई है कि कह नहीं सकता। मैं आपसे कभी खुलकर कह नहीं सका था, लेकिन यह बात मेरे मन में बहुत दिनों से थी कि किसी तरह कुसुमा की शादी
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बन गई आखिर वह वेश्या
 
अप्सरा के चरणों का नूपुर 'छूम-छनन' करता रहा और किसी का सुमधुर कण्ठ समूचे कमरे को तन्मय करता रहा। और, अन्त में जब एक रोमांचक झनकार के साथ वह नृत्यमयी नारी प्रतिमा एकाएक बैठ गई, तब मनमोहन का ध्यान टूटा और तपेश के मुंह से निकल पड़ा- 'वाह!'
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एक बेचारी मेनका
 
दौलतराम की आंखों में तो चाहे न खटका हो, पर मां ने नाक भौंह चढ़ाकर एक दिन साड़ी पहना दी। साड़ी पहनी कि उम्र सहसा बढ़-सी गई। मां ने उसे भर नज़र देखा, और नियन्त्रण आरम्भ किया। खूब खाया-पिया, और खूब खेली। न कुछ फिक्र, न कुछ अनुशासन। मेनका का शरीर खूब निखरा था ...
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