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धर्म-संस्कृति
दिव्य ज्योति है ज्योतिष स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        राजेन्द्र भट्ट
''ज्योतिष‌'' का अर्थ है प्रकाश अथवा ज्योति। सरल शब्दों में ज्योतिष वह दिव्य रोशनी है जिसमें हम अपने इर्द-गिर्द की वस्तुओं की सुगमता से पहचान सकते हैं। अतंरिक्ष का विस्तार अनंत है जिसे जान पाना असम्भव है। सूर्य-चन्द्र व अन्य दिव्य पुंजो के रहस्यों को जाना पाना साधारण मनुष्य के लिए कठिन है, किन्तु ज्योतिर्विद् सूर्य-चन्द्र व अनतं तेज पुंजो से देदिप्यमान आकाश में घटित होने वाली प्रत्येक घटना का, पृथ्वीवासियों पर क्या प्रभाव है को समझने का प्रयास करते हैं। हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि अपनी दिव्य दृष्टि से अंतरिक्ष में घटित होने वाली घटनाओं के रहस्यों को समझने व सुलझाने में सक्षम थे। उन्होंने इन रहस्यों को समझने व सुलाझाने के ध्येय से ज्योतिष के सूत्र व सिद्धान्त के रूप में कलमबद्ध करके हमारे समक्ष रखा ताकि इस ''ज्योतिष‌'' अथवा प्रकाश के माध्यम से हम जान सकें कि अतीत में क्या हुआ और भविष्य में हमारे सम्मुख क्या घटित होने वाला है। यों भी अनादि काल से मनुष्य भविष्य को लेकर शंकित रहता है अतः भविष्य के गर्भ में छुपे रहस्यों को जानने के लिए उत्सुक रहता है। ज्योतिष विद्या एक बह्मविद्या है। अध्यात्म से इसका सम्बन्ध है किन्तु आज के भौतिक युग में इस अलौकिक विद्या को बाजरू वस्तु के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। गली मुहल्ले व दूरदर्शन पर इसका इस्तेमाल एक मनोरंजन के साधन के रूप में होना एक चिन्ता का विषय है। अतः इसे गलत इस्तेमाल होने से रोकना नितान्त अनिवार्य है।

सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहू और केतु के साथ-साथ अगणित तेजपुंज (तारे) हर क्षण पृथ्वीवासियों को प्रभावित करते हैं। ज्योतिर्विद् पूर्वजों से प्रदत्त दिव्य ज्ञान के माध्यम से इन प्रभावों को समझ सकता है और निदान भी बता सकता है। ब्रह्मपुराण, विष्णुपुराण तथा श्रीमद्भागवत में आकाश के अनंत विस्तार का वर्णन है। ध्रुव लोक की सप्तर्षियों से दूरी 13 लाख योजन है। अनेक शास्त्रों में आकाश में विस्तृत तेजपुंज का वर्णन ''शिशु मार के रूप में हुआ है जिसकी आकृति का वर्णन करते हुए कहा है ;

''एतद् है व भगवतो विष्णोः सर्वदेवतामयं रूपं'' अर्थात यह विष्णु नारायण का सर्वदेवमय स्वरूप है इसे यह कह कर भी दर्शाया है।

तारामयं भगवतः शिशुमाराकृर्ति प्रभोः।

दिवि रूपं हरेर्यन्तु तस्य पुच्छे स्थितो ध्रुवः॥

ज्योतिष विज्ञान का प्रार्दुभाव वैदिक काल से ही माना जाता है। ज्योतिष शास्त्र वेद के छः अंगों में से एक है। ज्योतिष की श्रेष्ठता इसी बात से आंकी जा सकती है कि इसे वेद के आंख भी कहा जाता है। ज्योतिष को मुख्यतः तीन भागों में बांटा गया है। गणित, फलित व सिद्धान्त। फलित सर्वाधिक प्रिय है व प्रचलित है। शुद्धगणित के बिना सही भविष्य-वाणी सम्भव नहीं, किन्तु यह भी जरूरी नहीं कि एक अच्छा गणितज्ञ अच्छा दैवज्ञ भी हो। धर्म और आध्यात्मिक-ज्ञान से परिपूर्ण व्यक्ति ही सही भविष्यवाणी कर सकता है। अतः पवित्र आचरण होना भी ज्योतिषी के लिए अनिवार्य शर्त है। पुण्यात्मा की जिव्हा पर सरस्वती का वास होता है। केवल ज्योतिष विद्या का ज्ञान ही अच्छे ज्योतिषी की पहचान नहीं है। ज्योतिष के गणित को थोड़े समय के अभ्यास से सीखा जा सकता है किन्तु फलित सीखने के लिए सारा जीवन भी कम पड़ जाता है। इसलिए इस विद्या की तुलना समुद्र से की जाती है। सामान्य जन को गणित की अपेक्षा फलित में रूचि होती है। फलित ज्योतिष में ''वृहत्जातक'' का विशेष स्थान है। वृहत्जातक के अतिरिक्त योग यात्रा, विवाह पटल, लघु जातक, समास संहिता व प्रन्चसिद्धान्तिका आदि अनेक ग्रंथ है।

यह पृथ्वी ब्रह्माण्ड के एक अणु से ज्यादा कुछ भी नहीं और यह अणु सौरमण्डल, तारागणों, ग्रहों व नक्षत्रों से प्रभावित है। यत्‌पिंडे तत्ब्रह्माण्डे'' के सिद्धान्त से स्पष्ट है कि जो कुछ इस शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है। नर, नारायण का एक अणु रूप ही है।

सूर्य व पृथ्वी की परस्पर दूरी साढे+ नौ करोड़ मील है। सूर्य पृथ्वी से बहुत बड़ा है। ज्योतिष के अनुसार 27 नक्षत्र व 9 ग्रहों की प्रधानता है। नक्षत्र स्थिर है जबकि चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति शुक्र व शनि भ्रमणशील है। पृथ्वी के मार्ग को 27 नक्षत्रों में बांटा गया है। वैदिक काल में आषाढ़ और श्रवण नक्षत्र के मध्य अभिजित नक्षत्र की गणना भी की जाती है। पुराणों में भी अभिजित नक्षत्र की चर्चा होती है। सामान्यतः 27 नक्षत्रों को ही पृथ्वी परिभ्रमण के मार्ग का आधार माना जाता है। पृथ्वी अपनी यात्रा अश्‍िवनी नक्षत्र के प्रथम बिंदु से प्रारम्भ करती है और समस्त 27 नक्षत्रों का भ्रमण करती हुई पुनः अश्‍िवनी नक्षत्र के प्रारम्भिक बिन्दु पर आ जाती है। चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर भ्रमण करता है। समस्त औषधी चन्द्रमा से प्रभावित हैं। चन्द्रमा का मनुष्य के जीवन पर कितना प्रभाव होगा इस बात की पुष्टि इसी बात से हो जाती है कि समुद्र में ज्वार भाटे का मूल कारण चन्द्रमा ही है। पृथ्वी की भांति मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि भी सूर्य की प्रदक्षिणा करते हैं। राहू और केतु छाया उपग्रह हैं। राहू का स्वरूप सांप की भांति है। राहू को सर्प का सिर व केतु को पूंछ माना गया है। राहू को पृथ्वी की परिक्रमा में 18 वर्ष का समय लग जाता है यह पीछे की ओर सरकता है अतः इसे वक्री उपग्रह भी कहते हैं।

सूर्य नवग्रह मण्डल में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। (1.) मेष (2.) वृष (3.) मिथुन (4.) कर्क (5.) सिंह (6.) कन्या (7.) तुला (8.) वृश्‍िचक (9.) धनु (10.) मकर (11.) कुम्भ और, (12.) मीन बारह राशियां क्रमश: शरीर में मस्तक, चेहरा, छाती, हृदय, पेट, कमर, नाभि के नीचे, गुप्तांग, जंघाऐ घुटने, टांगें व पैर से सम्बन्ध रखती है। सामान्यतः जिस-जिस राशि में शुभ ग्रह होते हैं शरीर का वह भाग वलिष्ठ व अशुभ ग्रहों से युक्त राशि के अंग निर्बल होते हैं।

(1.) अश्‍िवनी (2.) भरणी (3.) कृतिका (4.) रोहिणी (5.) मृगथिरा (6.) आर्द्रा (7.) पुनर्वसु (8.) पुष्य (9.) आश्लेषा (10.) मधा (11.) पूर्वाफाल्गुनी (12.) उत्तराफाल्गुनी (13.) हस्त (14.) चित्रा (15.) स्वाति (16.) विशाखा (17.) अनुराधा (18.) जेष्ठा (19.) मूल (20.) पूर्वाषाढ़ (21.) उत्तराषाढ़ (22.) श्रवण (23.) घनिष्ठा (24.) शतभिषा (25.) पूर्वाभाद्रपदा (26.) उत्तराभाद्रपदा (27.) रेवती नक्षत्र ज्योतिष में 27 नक्षत्र हैं। एक राशि ढाई नक्षत्र में भ्रमण करती है।

12 राशियों के स्वरूप भिन्न-भिन्न है जैसे मेष का रुप मेढ़ा, वृष का बैल, मिथुन का स्त्री-पुरुष, कर्क का केकड़ा, सिंह का शेर, कन्या का कुंवारी लड़की, तुला का तराजू, वृश्‍िचक का बिच्छु, धनु का धनुष, मकर का मगरमच्छ कुम्भ का घड़ा और मीन का जुड़वा मछलियों का स्वरूप है। मनुष्य के आकार व स्वरूप को बारह राशियां प्रभावित करती हैं।

12 राशियों का निवास क्रमशः उपवन, ग्राम खेत-पर्वत, शयनकक्ष, जलाशय, जंगल, नाव, बाजार, बिल, ग्राम, ग्राम-भूमि में होता है।

मेष व वृश्‍ि‍चक का स्वामी मंगल, वृष व तुला का स्वामी शुक्र, मिथुन व कन्या स्वामी बुध, कर्क का स्वामी चन्द्रमा, सिंह का स्वामी सूर्य, धनु व मीन का स्वामी गुरु तथा मकर व कुम्भ का स्वामी शनि है।

मेष राशि में पहला नवांश मेष का व नौवां नवांश धनु का होता है। द्रेष्काण, होरा, नवमांश, द्वादशांश, त्रिशाशं और लग्न में द्याडवर्ग सज्ञंक हैं।

मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धनु और मकर राशियां रात्रि बली व सिंह, कन्या, तुला, वृश्‍िचक तथा कुम्भ राशि दिनबली हैं। चन्द्रमा जिस राशि, अंश कला, विकला में होता है उस हिस्से का स्वामी नक्षत्र कहलाता है।

योग का अर्थ है सूर्य और चन्द्रमा की राशि, अंश, कला व विकला का जोड़। ज्योतिष में 27 योग है;

(1.) विष्कुम्भ (2.) प्रीति (3.) आयुष्मान (4.) सौभाग्य (5.) शोभन (6.) अतिगड (7.) सुकर्मा (8.) धृति (9.) शूल (10.) गंड (11.) वृद्धि (12.) ध्रुव (13.) व्याघात (14.) हर्षण (15.) वैर (16.) सिद्धि (17.) व्यतीपात (18.) बरीयान (19.) परिध (20.) शिव (21.) सिद्ध (22.) साध्य (23.) शुभ (24.) शुक्ल (25.) ब्रह्म (26.) इन्द्र और (27.) वैधृति।

सूर्य प्रत्येक संक्राति को एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है प्रतिदिन सूर्य एक अंश आगे बढ़ता रहता है।

ज्योतिष का अध्ययन पंचांग से प्रारम्भ होता है। पंचांग का अर्थ है 'पंच+अंग' का ज्ञान। ये पांच अंग क्रमश तिथि, वार, नक्षत्र योग और करण है। तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है। विष्टि करण को 'भद्रा' भी कहते है। पंचाग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण के अलावा सम्वत्सर, अमन ऋतु, मास, पक्ष दिनमान, रात्रिमान,, सूर्योदय, सूर्योस्त व ग्रह स्पष्ट दर्शाये होते हैं।

(यू.एन.एन.)