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धर्म-संस्कृति
श्रीबज्रेश्वरी नगरकोट कांगड़ा स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
महाभारत काल के त्रिगर्त नरेश सुशर्मन का सुशर्मपुर यहां के अजेय दुर्ग की प्रसिद्धि के कारण बाद में नगरकोट कहलाया। कोट शब्द दुर्ग या किला का अर्थ देता है और नगर से तात्पर्य यहां सुख-सुविधा सम्पन्न शहर से है, जो कि उस काल में विशाल त्रिार्गत राज्य का मुख्यालय था। यही स्थल आज कल कागंड़ा के नाम से जाना जाता है। जिसकी ख्याति देवी बज्रेश्वरी की मान्यता के कारण दूर-दूर तक फैली है। यह स्थान जिला मुख्यालय धर्मशाला से 19 किलोमीटर और शिमला से 260 किलोमीटर दूर है। सब ओर से सड़क मार्ग से जुड़ा है। पठानकोट-जोगिन्द्रनगर रेलवे लाईन पर कांगड़ा मन्दिर नामक समीपस्थ रेलवे स्टेशन मन्दिर से 2 किलोमीटर की दूरी पर है।

बज्रेश्वरी देवी का प्रादुर्भाव

पौराणिक कथा के अनुसार अपमानित हो सती देवी द्वारा यज्ञ कुंड में प्राण त्यागने और शिव द्वारा सती-शव को कन्‍धे पर ले कर त्रिभुवन में घूमने वाली अवस्था देखकर देवी-देवता विनाश की शंका से भयभीत हो गये। उन्‍होंने भगवान विष्णु से इस संकट को दूर करने की प्रार्थना की। तब जगत स्वामी विष्णु ने सती के शव को सुदर्शन चक्र से इक्यावन भागों में खण्ड -विखण्ड किया। जहां-जहां सती के ये खण्डित अंग गिरे,वहां-वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए। कहा जाता है कि बज्रेश्वरी धम में सती का बायां स्तन गिरा था।

सती के शरीर के अंग के यहां गिरने का पहले किसी को मालूम नहीं था। एक बार कागंड़ा में बहुत बडा अकाल पडा। उससे बचने के लिये लोगों ने मिल कर शक्ति की अराध्ना की। तब शक्ति ने किसी भक्त को स्वप्न में दर्शन देकर बतलाया कि जब मेरी सती रूप में मृत देह को शिवजी कन्ध्े पर लेकर ध्ूम रहे थे, उस समय विष्णु चक्र से कट कर सती शरीर का वामांग उस स्थान पर गिरा है। वहां मैं पिण्डी रूप में विद्यमान हूं। तुम मेरी पिण्डी की विध्वित्‌ स्थापना करो। उस से क्षेत्रा का संकट दूर हो जाएगा।

उसी निर्देश के अनुसार लोगों ने देवी के पिण्डी रूप में दर्शन पाए। यहां देवी की समुचित विधन से प्रतिष्ठा की। देवी की कृपा से अकाल का संकट टल गया और यह स्थान देवी की जाग्रत शक्ति से सुविख्यात हुआ। उसी काल में जालन्ध्र नामक दैत्य ने इस क्षेत्रा में उत्पात मचाना शुरू किया। पीड़ित होकर लोग देवी मां की शरण में गये। देवी ने बज्र के समान कठोर निश्चय धरण करके जालन्ध्र दैत्य का वध् किया। इसलिये लोक में देवी मां बज्रेश्वरी नाम से प्रसि( हुई। यह भी धरणा है कि सती का वामांग यहां गिर कर प्रस्तर बज्र में परिवर्तित होने के कारण देवी बज्रेश्वरी कहलायी। जोकि देवी की पिंडी के रूप में पूजित है।

ऐसा बताया जाता है कि जालन्ध्र दैत्य यु( करते हुए बजे्रश्वरी देवी के शरीर पर कई जगह चोटें लगी। इन चोटों को ठीक करने के लिये देवी देवताओं ने इनके शरीर पर मक्खन का लेप किया। अब भी मकर संक्रान्ति को यह परम्परा निभायी जाती है। दन्त कथा में यह भी कहा जाता है कि जालन्ध्र दैत्य की विशाल देह का जहां कान पडा था, उस स्थान पर बाद में गढ़ अर्थात्‌ किला बना। इस प्रकार कान गढ से कागंड़ा शब्द की निष्पत्ति हुई है।

इतिहास के झरोखे से

ग्यारहवीं शताब्दी तक ब्रजेश्वरी मन्दिर एक वैभवशाली मन्दिर के रूप में विदेशों तक प्रसि( हो चुका था। यहां पर देश-विदेश से श्र(ालु आकर देवी मां को बहुमूल्य भेंटें चढाते थे। इसकी आर्थिक सम्पन्नता की जानकारी महमूद गजनवी को मिली तो उसने 1009 ईस्वी में यहां आकर मन्दिर को लूटा। इतिहासकार उत्तवी ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-यामिनी में लिखा है कि महमूद गजनवी ने इस मन्दिर से सात लाख सोने के दीनार, 700 मन सोना, 1000 मन चांदी और 20 मन के लगभग हीरे जवाहरात लूटे। कनिंघम ने इस बहुमूल्य खजाने की कीमत उस समय के भाव के अनुसार 17,57,000 पौंड आंकी है।

जोनराज की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर के राजा शहाबुद्दीन ने चौदहवीं शताब्दी 1363-86 के बीच यहां पर आक्रमण किया। इसी शताब्दी में फिरोजशाह तुगलक ने भी यहां लूटपाट की और 1540 में शेरशाह सूरी भी यहां की ध्न-दौलत लूट कर ले गया।

यहां से पन्द्रहवीं शताब्दी का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसका कुछ भाग शारदा लिपि में और कुछ भाग देवनागरी लिपि में खुदा है। इस में मन्दिर की प्रतिष्ठापित देवी को ज्वालामुखी नाम दिया गया है। एक अन्य शिलालेख के अनुसार इस मन्दिर का निर्माण साही महमूद के शासन काल में हुआ है। कनिंघम के विचार में महमूद, मुहम्मद सैट्टयद हो सकता है। मुहम्मद सैट्टयद 1443 से 1446 तक देहली का शासक था। इस मन्दिर के निर्माण के समय संसार चन्द प्रथम कांगड़ा का राजा था। जो 1429-30ई0 में राजसिंहासन पर बैठे थे।

अकबर के समय इस मन्दिर की ओर विशेष ध्यान दिया गया माना जाता है। कहते हैं कि इनकी देवी में विशेष आस्था थी। वह दीवान टोडरमल के साथ यहां पहुँचे थे। इसके अतिरिक्त 1611 ईस्वी में यूरोप के यात्राी विलियम पिंच और 1615 में थामस कोर्थट ने इस मन्दिर को देखा। 1666 में फ्रांसीसी यात्राी थैवनेट भी यहां आया और इन्होंने अपने संस्मरणों में मन्दिर की समृ(ि के बारे में लिखा है।

सिक्खों के राज्य काल में महाराजा रणजीत सिंह ने इस मन्दिर के प्रति विशेष रूचि ली। उन्होंने यहां एक सोने की मूर्ति भेंट की। रानी चान्द कौर ने मन्दिर पर सोने का कलश चढ़ाया। सिक्ख गवर्नर देसासिंह ने साज-सजावट में बहुत योगदान दिया।

वास्तु-शिल्प

बज्रेश्वरी देवी का वर्तमान मन्दिर 1930 में बना है। मन्दिर का मूल स्वरूप शिखर है। इसके आगे सुन्दर मण्डप बना है। इससे पहले का मन्दिर 1905 के कांगड़ा के भूकम्प में क्षतिग्रस्त हो गया था परन्तु भूकम्प के समय भी प्राचीन मूल मन्दिर खड़ा नहीं था,क्योंकि ग्यारहवीं शताब्दी के बार-बार के आक्रमणों से मन्दिर को तोड़ा जाता रहा है। मन्दिर के प्रवेश द्वार पर आर-पार गंगा तथा यमुना देवी की पुरानी मूर्तियां हैं। हरमन गोट्+ज के मतानुसार ये मूर्तियां सातवीं शताब्दी में निर्मित हैं। इन मूर्तियों के आधर पर अनुमान लगाया जाता है कि यहां उस काल में शिखर शैली का विशाल मन्दिर खड़ा था।

यहां देवी के प्रांगण में विभिन्न देवी देवताओं की लगभग 40 मूर्तियां हैं। जिन्हें सातवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का माना जाता है। मन्दिर के एक कक्ष में देवी के द्वारा जालन्ध्र दैत्य की पैरों तले कुचलने की मुद्रा में देवी की मूर्ति है। जिसे दसवीं शताब्दी का माना जाता है। कहते हैं कि ऐसी मूर्ति प्रदेश के किसी अन्य स्थान पर उपलब्ध् नहीं है।

मेले और त्यौहार

देवी बज्रेश्वरी की श्र(ालुओं पर अपार कृपा रहती है। श्र(ालुओं का आगमन मन्दिर में सामान्यतः वर्ष भर चला रहता है। पर चैत्रा, श्रावण और आश्विन नवरात्राों में यहां विशेष मेले लगते हैं। जिस में लाखों श्र(ालु देवी मन्दिर में पहुँचते हैं। माघ महीने में मकर संक्रान्ति से सात दिन यहां विशेष आयोजन होता है। जिस में देवी प्रतिमा के ऊपर पांच मन मक्खन, एक सौ बार कुएं के शीतल जल में धेकर और इस में फल मेवे मिश्रित कर के चढ़ाया जाता है। मक्खन का यह लेप देवीमाता को जालन्ध्र दैत्य को मारते समय लगी चोट से स्वस्थ करने की भावना से लगाया जाता है।

बज्रेश्वरी देवी को ब्रजेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। सामान्यतः ध्वनि परिवर्तन से ऐसा सम्भव है। फिर भी लोगों की धरणा है कि यह देवी ब्रज वासियों की भी कुल देवी रही है। इसलिये इसे ब्रजेश्वरी देवी भी कहा जाता है। आज भी ब्रज के लोग नवरात्रो के दिनों में पीत वस्त्रा पहन कर काफी संख्या में देवी के मन्दिर में आते हैं।

इस स्थान के यात्राा-माहात्म्य के बारे में जालन्धर-पीठ-दीपिका में वर्णन किया गया कि इस संसार में एकमात्रा भगवती बजे्रश्वरी ही जीवन के लक्ष्यभूत र्ध्म, अर्थ काम और मोक्ष को प्राप्त करवाने वाली है, चिन्दानन्द में मग्न है और संसार सागर को तैरने की नौका है। प्राणी इस नौका रूप साध्न को अनेक जन्मों से संचित महापुण्यों से हो पाता है। अतः यात्राी विनम्रता से वहां जाकर भगवती का दर्शन करें-

भवे बज्रेशानीं सकल पुरूषार्थघटिनीं

चिदामोदामत्तां भव जलध्ि निस्तारतरणिम्‌ ।

महापुण्यैद्यैवै बहुजनि-कृतैरेव लभते,

ततो गत्वा तत्रा प्रणयितजनः पश्यतु पदम्‌ ॥

बज्रेश्वरी धम अत्यन्त समृ( एवं गौरवशाली ध्रोहर है। यह स्थान अमृतसागर के अन्दर देव-वाटिका से घिरा मणि द्वीप सदृश है। यहां देवी मां की स्मृति से सभी कृत्कृत्य होते हैः-

सुध सिन्धेः मध्येपुर विटप वाटी परिकृते,

मणि द्वीपे नीपो पवन वति चिंतामणि गृहे।

शिवाकारे मंचे परम शिव पर्यकनिलयाँ,

भजंति त्वां ध्न्या कतिचन चिन्दानन्द लहरीम्‌ ॥

मन्दिर की प्रबन्ध्क व्यवस्था अध्नियम के अध्ीन गठित न्यास द्वारा ही की जाती है।

(यू.एन.एन.)