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कविता
जीवाष्म स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        जगदीश शर्मा
यह बात आज अचानक ही नहीं, कि -
आज फिर मेरी रगो में
एक ''भूंक1'' ने जन्म लिया है
ऐसा अक्सर फिर-फिर हो आता है,
किन्तु ऐसा कभी नहीं होता
कि सदियों की बर्फीली
परतों के नीचे से-
फिर से जी उठे-
दर्दीले गर्म सुर ÷सुन्नी2' के।

इस चौंधियाती रौच्चनी में -
नहीं जन्म सकती है कोई ''सुन्नी''
हां यदि कभी ग्लेच्चियरज+ के साथ-
निकल आए इसका कोई जीवाष्म
तो, पारखी लोग सजा देंगे उसे-
सकेती के फॉसिल पार्क में,
और मेरी रगों के भीतर का भूंकू-
चम्बा-लाहौल से भटकता कभी उधर आ निकला-
तो भी नहीं पहचान पाएगा इस पत्थर को।

हां! ऐसा-
अक्सर होता रहता है कि-
भूंकू को मिल जाती है कोई ''इड़ा''
मनाली की सुरम्य वादियों में नहीं
कौंधती बिजली के भीड़ भड़ाके में,
और वह भूंकू को विच्च्वास दिलाती है-
कि वह भूंकू नहीं ''मनु'' है-
जो न जाने-
कब मनु से भूंकू बन गया था।

और मेरे भीतर का भूंकू-
या उससे पहले का मनु
फिर तलाच्चने लगता है सुन्नी को-
या उससे पहली ''श्रद्धा'' को,
इड़ा में इन दोनों को न पा कर-
वह अचेत हो जाता है-
एक जीवाष्म बनने के लिए

जिसे फिर सजा देंगे पारखी लोग- सकेती के फॉसिल पार्क में,

(यू.एन.एन.)