Back Download Printable version of this Article
कविता
सांप दो मुंहें स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        जगदीश शर्मा
छोटा सा जब
नानी कहा करती थी :
बांवड़ी पर मत जाना
वहां रहते हैं दो मुंहें सांप
जिनका गन्तव्य
क्षण में बदल जाता है,
आगे चलते-चलते पीछे
और पीछे चलते
आगे की ओर चलने लगते हैं
अनायास ही।
इसमें सोच और विचारधारा-
परिवर्तन की बात नहीं
डर और आत्मरक्षा-
का/भाव होता था!

शायद इसीलिए,
पिता जी कहते थे :
नहीं बेटा -
ये बच्चों को नहीं डसते

पर आज मैं,
बच्चों से कहता हूं :
सावधान रहना -
दो मुंहें सापों से,
जाने ये किस समय बदल लें-
राह/अदृच्च्य पैरों से,
और दंच्च का ही क्या पता है
क्योंकि, शहर में रह कर
सीख लिया है उसने-
विष को-
शरीर में कहीं भी छुपाए रखना।

कब-कहां-कैसे
दंच्चित हो जाओ-
इसका पता भी नहीं चलेगा,
क्योंकि-
सामने तो मुस्कान होगी-
इसमें जहर हो सकता है
यह तुम कैसे जानोगे?

इसीलिए मैं
उनसे कहता हूं :
बाहर मत जाना/वहां हैं-
सांप दो मुंहें
और वे कहते हैं :
हम घर में ही-
कहां सुरक्षित हैं इनसे!

(यू.एन.एन.)