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हास्य, व्यंग
कौन नहीं है ठग मेरे यारो स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        डा. रजनीकांत
मुझे एक स्थानीय कवि की पंक्तियां स्मरण हो आई हैं, मैं भी चोर, तू भी चोर। कोई यहां साध नहीं कोई छोटा चोर है तो कोई बड़ा। छोटा-मोटा ठग तो यहां हर कोई है। है कोई माई का लाल, जो सीना ठोक कर कह दे कि मैंने आज तक किसी के साथ ठगी नहीं की। हो ही नहीं सकता। कारुणिक पात्र होता है-ठग। जिसका दयाभाव दर्शनीय होता है। एक ऐसे ही पात्र का खाका मेरे मन मस्तिष्क में उभर आता है। सफेद झक कुर्ता , पायजामा, सफेद टोपी मेरे गांव का एक साधारण ग्रामीण। लोग प्रायः धोखा खा जाते थे, उसे नेता ही समझते थे मंजा हुआ नायक। लोग उसे दलाल कहते थे। वास्तविक नाम किसी को ज्ञात नहीं था।

एक दिन मेरे ननिहाल जा पहुंचा। मेरी नानी घर पर थीं। शाहनी जी पणछाणेया नीें मैं दलाल! इस घर मैं पहले भी आ चुका हूं। बराती बनकर। प्यारे प्रकाश की शादी में। भाई पूछो मत। बारात तीन दिन रही थी देसी घी की बनी स्वादिष्ट मिठाइयों का स्वाद आज भी नहीं भूल पाया हूं। संक्षेप में बता दूं कि उसने ऐसा मक्खन लगाया की पूछो मत। हमारी नानी जी चित्त हो गईं, नानी के पास एक भैंस थी। शाहनी जी! ऐसी भैंस आप के पास जचती नहीं। सींग तो देखो जरा। कितने भद्दे लगते हैंं। मैं आपके खूंटे पर एक सुन्दर सी भैंस देखना चाहता हूं। दो दिन में मैं स्वयं बांधकर जाऊंगा। नानी की भैंस को खोलकर चलता बना। नानी पर उसकी मक्खनी बातों का जादू कुछ ज्यादा ही चल गया। देव योग से पिता श्री संयोगवश अपने ससुराल उसी दिन आ गये। नानी ने झिझकते सारा किस्सा कह सुनाया। पिता जी सब बात समझ गए। पिता जी दलाल से नानी की भैंस ले आए। अन्यथा न ही पैसे मिलते, न ही भैंस! दलाल के रोम-रोम में ठगी जो बसी थी, कमाल की किस्मत लेकर ये ठग पैदा होते हैं। चार्ल्स शोभाराज, नटवर लाल, हर्षद मेहता तो आपको याद होंगे। तेलगी जैसे धुरंधर ठग अपने परिवार का नाम रोशन कर रहे हैं। क्या करें? यह तो घोर कलयुग है। प्रेमी-प्रेमिकाएं आपस में ठगी कर रहे हैं। प्रेमिकाएं रुदन में व्यस्त हैं। तू साडे नाल मर गिया है। ठगिया। ÷ये नयन भी तो कितने ठग हैं। तड़फना दिल को पड़ता है। लगा - लगी लोचन करे मन नाहक बिंध जाए, करे कोई तो भरे कोई। यही जमाने का चलन है, दोस्त! प्रेम में ठगना और ठगे जाना आम बात हो गई है।

मेरा काम निकल जाये बस दुनिया जाये भाड़ में। इसके लिये लोग क्या कर गुजरते हैं आप कल्पना भी नहीं कर सकते नकली दिखाकर असल बताना, ठगी का असूल है, मित्र! मेरी मामी श्री ऐसे ही ठग के वाक्‌जाल में फंस गई कि पूछो मत। अधिक स्वर्ण के लोभ में दोनों कान के बूंदे गंवा बैठी। सोने के गहने धोने के बहाने ठग सोने का बड़ा अंश ले जाते हैं। क्या करें यह ठग। परमात्मा ने इन्हें भी छोटा सा पेट जो प्रदान किया है। पापी पेट का प्रश्न है, बाबा ! ठग ममत्व की डोर से दूसरे पक्ष को ऐसे बांधे रखता है कि पूछो मत! जोर का झटका धीरे से लगे! पूरा ख्याल रखता है।

कबूतर बाजी के किस्से तो रोज समाचार पत्रों की सुर्खियां बनते हैं। बडे+ गायक भी इसी ठगी में शामिल थे। उसके असंख्य फैनों (पंखे नहीं ) को बहुत बुरा लगा। थोड़े समय में अधिक पैसा कमाना कोई बुरी बात नहीं। पेट का सवाल जो है। सो भाई, हर कोई दूसरे को ठगने की जुगाड़ में है। ठगी नैसर्गिक गुण है, मां की गोदी के लिए मचलना, झूठ मूठ का रोना, स्कूल समय में फिल्में देखना, पुस्तकों के नाम पर पैसा मारना, मित्रों से होमवर्क कराने हेतु झूठी प्रशंसा करना, ठगी के उदाहरण हैं।

अब तो कई प्राईवेट कम्पनियां बाजार में आ गई हैं। माल मत देखो बढ़िया पैकिंग देखकर, बस खरीद लो। बेरोजगार नवयुवकों के साथ कंपनियां ठगी तो कर रही हैं। उनका सरेआम शोषण हम देख रहे हैं। असली -नकली की पहचान करना आधुनिक समय में कठिन हो गया है। बनारसी ठग तो सुने थे। पर यहां हर शहर, गांव, मुहल्ले में ठग जन्म ले चुके हैं। किसकी मां को मासी कहें, दोस्तो। दुनिया की बेतहाशा भीड़ में कब किसी ठग से आपका साक्षात्कार हो जाये, कोई कह नहीं सकता। यहां तो पेट से पैदा किए पर विश्वास नहीं किया जा सकता! राजनीति में किसी का कोई सगा नहीं होता। कौन किसे ठग ले, कोई कह नहीं सकता। अपने स्वार्थ के लिए रिश्तों का विनिमय तक हो जाता है। मित्रो! यदि जीवन में कुछ कर गुजरने की आकांक्षा है तो ठगी में पारंगत होना सीखिये। फिर न कहना कि जीवन की दौड़ में पीछे रह गए। वैसे आधुनिक समय में कौन ठग नहीं

(यू.एन.एन.)