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लेख
क्या संस्कृत में दुःखात नाटकों का अभाव है? स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       गिरिजादन त्रिपाठी
विश्व साहित्य में संस्कृत साहित्य का एक प्रमुख स्थान है। इस साहित्य की सेवा करने वाले स1दयों के सामने यह एक जटिल प्रश्न उपस्थित रहा है कि इस साहित्य में दुःखान्त नाटकों का नितान्त अभाव क्यों है? मनुष्य की महन्वाकांक्षायें तथा मनोवृनियां बाᅠजगत्‌ के सुखद परिणाम में परिणत होने पर उतारु रहती हैं। आनन्द की चोली पकड़ झूलकर आनन्द मनाने के लिए मनुष्य कभी-कभी इस प्रकार उछलता है कि असफलता के साथ-साथ उसे यन्त्रणाओं का भी मुख देखना पड़ता है। इसमें सन्देह नहीं कि उसे सफलता भी हाथ लगती है। नाटक में ऐसी कोई बात नहीं दिखाई जाती, जिसकी उत्पनि केवल कल्पना वृक्ष से होती है।

प्राणियों को जीवन में सुख और दुःख दोनों का अनुभव करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में एक को गले लगाकर दूसरे को लातों ठुकरा देना कहां तक उचित है? ऐसी हालत में दुःखान्त नाटक की इस प्रकार अवहेलना क्यों हुई? क्या संस्कृत के नाटककार दुःखान्त नाटक लिखना जानते ही नहीं थे या इस विषय को उन्होंने जान-बूझकर छोड़ दिया है? इस समृद्ध साहित्य के विपुल रांगमंच पर दुःखान्त नाटक अपने अभिनय क्यों नहीं दिखाते? इसका उनर देने के पहले नाटक के सामान्य लक्ष्य की ओर दृष्टि डालना आवश्यक है।

नाटककार नाटकों के द्वारा उन्हीं परिस्थितियों तथा घटनाओं को जनता के सामने रखने का प्रयत्न करता है, जिनसे मनुष्य का प्रतिदिन का सम्बन्ध है तथा जिनके बीच गुजरना मानव का सार्वदिक कर्तव्य है। मनुष्य कभी सुख के शान्तिमय सरोवर में अवगाहन करता है और सोचता है कि यह धाराव्म अनवरत गति से अनन्त काल तक चलता रहेगा। लेकिन दूसरे ही क्षण में उसे दूसरी परिस्थिति के पन्जे में पड़कर कष्टों का सामना करना पड़ता है। दुःख और सुख का पारस्परिक मिलन इस जगत्‌ का नियम है। इन्हीं प्राकृतिक नियमों को दिखाना नाटककार तथा उपन्यासकार का कर्तव्य होता है। यह तो हुआ नाटकों का सामान्य उँेश्य। अब विचारना यह है कि अंग्रेजी नाटककारों ने दुःखान्त नाटकों की रचना क्यों की और संस्कृति नाटककार ने क्यों नहीं की। इसमें किसी का मतभेद नहीं है कि मुनष्य सदा आनन्द ही चाहता है और दुःख के छींटे सहना भी उसे पसन्द नहीं है। जनता दुःखजगत्‌ की थकावट को दूर करने की गरज से ही नाटक, सिनेमा आदि देखने जाती है। यदि वहां जाकर भी दुःख पूर्ण घटनायें देखने को मिलीं, जो मस्तिष्क में वेदना ही उत्पन्न करती हैं, तो मनुष्य कदापि उसे देखना पसन्द नहीं कर सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि दुःखान्त नाटकों को देखने से दुःख होता है। इसका प्रमाण नहीं है कि दुःखान्त नाटक देखने के लिए मानव-समाज की प्रवृनि उतनी ही होती है, जितनी सुखान्त की ओर। पाश्चात्य देश के इतिहास देखने से यह पता चलता है कि जिस समय महाकवि शेक्सपियर नाटक लिख रहे थे, उन दिनों सुखान्त नाटकों को देखने के लिए मनुष्यों की प्रवृनि उतनी नहीं होती थी, जितनी दुःखान्त की ओर। इसलिए शेक्सपियर ने अनेक दुःखान्त नाटक लिख डाले। यदि कोई यह आग्रह करे कि दुःखावसान नाटकों को देखने से केवल दुःख होता है -सुख नहीं, तो उसके लिए दूसरा ही उनर होगा।

इस संसार के कृतघन्तापूर्ण व्यवहार करने वालों को दुःख सहना पड़ता है, और कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि इस जीवन में अच्छे कर्म करने वालों की भी बुरी हालत होती है। नाटककार दुःखान्त नाटक इसलिए लिखता है कि देखने वालों को यह मालूम हो जाये कि बुरे कर्म करने से बुरे फल होते हैं। दृष्टान्त के लिए महाकवि शेक्सपियर के मैकबेथ तथा किंगलियर नाटकों को लीजिये। मैक्बेथ ने स्वर्गीय अप्सराओं से अपने राजा होने की भविष्यवाणी सुन ली थी और साथ ही साथ यह भी सुना था कि उसके बाद बैकों के पुत्रों के हाथ में राजगँी जायेगी। लेकिन अपनी स्त्री की उनेजना भरी बातें सुनकर उसकी अभिलाषा जाग उठी और उसने डन्कन की हत्या कर राजगँी पाने का दृढ़ संकल्प कर लिया। उसके साथ ही साथ स्वर्गीय वाणीपर पानी फेरकर बैंकों के लड़कों को भी मारना चाहा। यद्यपि उसे अपने राजा की हत्या के कार्य में सफलता हाथ लगी और बैंकों की भी मौत हो गयी, लेकिन उसका उनराधिकारी लड़का भाग निकला। इन सब बातों का नतीजा यह हुआ कि अपने परिवार के साथ-साथ अपने जीवन से भी हाथ धोना पड़ा। यदि मैकबेथ के कर्तव्यों के औचित्य तथा अनौचित्य पर विचार किया जाये, तो स्पष्ट यही कहना होगा कि उसका अन्तः करण दूषित भावनाओं से भर गया था, उसे पग-पग पर स्वार्थ लिप्सा घेरे हुए थी। जिस डन्कन ने उसका इतना सम्मान किया था, उसी की हत्या करने में तनिक भी न हिचकिचाया। राजगँी पाने की मनोकामना उसकी इतनी जबर्दस्त हो गयी

थी कि उसे पाने के लिए वह बुरे से बुरा कर्म कर सकता था, घृणित से घृणित आचरण कर सकता था, और इसलिए उसने भविष्यवाणी तक को मिटा देना चाहा। इस कथानक को पढ़कर मनुष्य यही परिणाम निकालेगा कि जैसी उसकी नीच अभिलाषा थी, वैसा ही उसको फल मिला। किंगलियर ने जिन दो बड़ी लड़कियों को पितृभ2 समझ कर सारे राज्य को दो हिस्सों में विभ2 कर दिया, वे ही उसके प्राण की गाहक बन बैठीं और भोली-भाली स्पष्ट बोलने वाली कारडेलिया को उसकी स्पष्टवादिता को गुनाह समझकर कुछ भी देने से इनकार कर दिया, वही उसके प्राण की रक्षा करती है। जब वह चारों तरफ चक्कर काटकर आंधी-पानी का शिकार बनकर अशरण हो जाता है, कारडेलिया रक्षित होने पर भी अन्त में जब वह दो विरुद्ध सेनाओं के बीच में पड़ता है, तो उसे अपने जीवन की पूर्णाहूति करनी पड़ती है। अन्त में कारडेलिया की भी मौत कवि कराता है। यह क्यों हुआ? क्या उसने कोई बुरा कर्म किया था? इन प्रश्नों के उनर में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि संसार में अच्छे कर्म करने वाले भी मौत के घर जाते हैं। इसी प्रकार और दुखान्त नाटकों की भी हालत है। अब यहां विचारणीय विषय यह उपस्थित होता है कि इन भावों का प्रदर्शन संस्कृत नाटकों से हो सकता है या नहीं? यदि नहीं हो सकता है, तो नाटककारों ने जीव-जगत्‌ के इस अन्यतर विषय को क्यों छोड़ दिया? और यदि हो सकता है, तो कैसे? इसका संक्षेप में उनर यही हो सकता है कि उस भाव का भी प्रदर्शन संस्कृत नाटकों से हो सकता है और हुआ भी है। यदि संसार की दुःखमय प्रगति को दिखाना ही दुःखान्त नाटकों का उँेश्य है, तब तो हम कह सकते हैं कि संस्कृत साहित्य में अवश्य दुःखान्त नाटक हैं। जैसे, वेणीसंहार नाटक में दुर्योधन के अनेक भाईयों की मौत हो जाती है और इसलिए उसे घोर कष्ट होता है। जब सुन्दरक के मुख से अर्जुन की तारीफ तथा कर्ण वृषसेन की पराजय सुनाता है, तो उसे अपार दुःख होता है। क्या इससे दुःखान्त नाटक से होने वाला फल नहीं होता? यदि होता है, तो क्या आवश्यकता है कि अन्त में दुःख अवश्य ही दिखलाया जाये? हां, एक बात है, यदि दुःखान्त का अर्थ यह लगाया जाये कि नायक अथवा नायिका की मौत अवश्य हो और वह मौत किसी बहुत दिन की बीमारी से न होकर अकस्मात्‌ हो, जैसा कि शेक्सपियर ने इसे समझा था, तब तो कहा जा सकता है कि संस्कृत दुःखान्त नाटक नहीं है। लेकिन यह भी परिभाषा सर्वसम्मत नहीं है। किसी आलोचक के मत से दुःखान्त नाटक वही हुआ, जिसमें सुख की अपेक्षा दुःख अधिक दिखाया जाये। इसके अनुसार तो 'वेणी संहार' बिलकुल दुःखान्त हो गया। 'चण्डकौशिक' नाटक में रोहिताレाव के मरने पर शमशान घाट पर शैव्या का करुण विलाप सभी स1दयों को व्याकुल कर देता है। कोई भी स1दय मनुष्य नहीं है, जो शैव्या की करुणावस्था को देखकर रो न पड़े। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि हरिशचन्द्र नाटक को देखकर सब लोग रो पड़ते हैं। हरिशचन्द्र के दुःख को देखकर किसका गला नहीं रुंध जाता है?

अरिस्टोटल का कहना है कि दुःखान्त नाटक कायो का अनुकरण है। अभिनेता रामचन्द्र या सीता का अनुकरण नहीं करते, अपितु उनके कायो को करते हैं। उनकी जीवनयात्रा किस प्रकार चलती रही, उन्होंने किस प्रकार दुःखों का अनुभव किया, इन सब बातों का प्रदर्शन नाटकों द्वारा होता है। दुःखावसान नाटक आनन्दप्रद होते हुए गम्भीर होता है। इसका कारण यह है कि आनन्द की स्थिति कर्तव्य में है और जीवन का अन्त आलस्यपूर्ण बैठे रहने में चरित नाटक में राम से सीता का वियोग कराकर जिस करुण रस का प्रदर्शन किया है, वह संस्कृत साहित्य में ही नहीं, किसी भी साहित्य में बेजोड़ है। भवभूति का ही करुण रस है, जिसके लिए कहा जाता है - 'अपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य 1दयम्‌'। सीता के वियोग में भटकते हुए तथा 'हाहा देवि स्फुटति 1दयं स्ंत्रस्ते देहबन्धः' विलाप करते हुए राम की अवस्था को देखकर जो दुःख का सागर 1दयस्थली में हिलोरे लेता है, वह वर्णनातीत है। 'भर्तृहरि निर्वेद' नाटक में स्त्री के मर जाने पर भर्तृहरि का रोना किसके 1दय को नहीं द्रवित कर देता है, तथा थोड़ी देर के बाद साधु के उपदेश से संसार से विमुख होकर उसकी अवहेलना पर किसके अन्तःकरण में निर्वेदका भाव नहीं भर जाता है? जब हम सभी जगह दुःखपूर्ण घटनायें देख रहे हैं, ऐसी हालत में यह कहना कि दुःखान्त का मतलब इन नाटकों से नहीं सधता है, कहां तक ठीक है? इन्हीं बातें को देखकर संस्कृत नाटककार ने अन्त में दुःख नहीं दिखाया।