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लेख
नारी के आत्म-विकास में बाधक प्रवृति स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       चन्द्रशेखर
नारी को लेकर समय-समय पर तरह-तरह के विचार प्रकट किये गए हैं और विभिन्न रूपों में विभिन्न व्यक्तियों ने उनके कर्मक्षेत्र का निर्देश किया है। ऐसे भी कलाकारों का अभाव नहीं है, जिन्होंने स्त्री के सम्बंध में साफ तोर पर लिखा है कि वह कभी किसी गम्भीर कार्य के करने योग्य न हो सकेगी, उसका सारा जीवन केवल साधारण बातों के लिये है। सुप्रसिद्ध विचारक एचजी वेल्स ने एक बार नारी जाति पर विचार प्रकट करते हुए कहा था कि नारी जाति में स्वभावतः कुछ ऐसी बातें हैं, जिनके कारण वह गम्भीर कार्य करने में असमर्थ है। नारी जाति का भविष्य भी ऐसा ही है और वह कभी भी कोई महान कार्य कर सकेगी, इसमें सन्देह ही है।

स्त्रियों को लेकर समाज में इस प्रकार के विचार रखने वालों की कमी नहीं रही है। कितने ही लोग स्पष्ट रूप में इसे कहें या न कहें, पर इस प्रकार की मनोभावनाओं की कमी नहीं रही है। समाज की सारी व्यवस्थाओं का निर्माण ही इस आधार पर हुआ है, जिससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि नारी की क्षमता एवं उसकी योग्यता में कभी भी समाज का विश्वास नहीं रहा। कलाकार इसीलिये नारी को केवल खेलने की वस्तु समझता है और वह समझता है कि उसका अस्तित्व केवल इसलिये है कि पुरुष के लिये सुख एवं संतान का सुयोग बैठाया जा सके और कठोर कर्तव्य पालन के बाद नारी उसके लिये मनोरंजन का साधन बन सके। नारी खिलौना है, जो पुरुष के मनबहलाव के लिये है।

यह प्रवृति है, जो नारी की उन्नति एवं उसके आत्म विकास के मार्ग में सदा से बाधा बनी आई है और इसीलिये अनेक महत्वपूर्ण प्रयत्नों के बाद भी नारी ने समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान नहीं पाया। सुधारक आए और गए। व्यवस्थाओं में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए और वे भी मिट गए, और दुनिया और दुनिया के इतिहास ने बड़े-बड़े उलट-फेर देखे, पर आश्चर्य तो देखिये कि नारी सर्वत्र दासता की जंजीरों में वैसी ही बंधी रही। इस आश्चर्य को जरा सोचिये कि सम्राज्ञी विक्टोरिया- एक नारी, जब इतने बड़े राज्य का शासन कर रही थी तब भी यह तर्क दिया जाता था कि नारी को मताधिकार दिया जाए या नहीं।

नारी जाति की स्वाधीनता का आंदोलन सभ्यता के इतिहास का एक ऐसा अध्याय है जो करुण है, पर साथ ही भीषण भी। पक्षी को पिंजरे में बंदकर उसके पंख काट डाले, ऐसी स्थिति में नारियों को एक लम्बी अवधि तक रहना पड़ा है और मजा यह है कि यह स्थिति नारियों की एक-दो देशों में नहीं, प्रायः सर्वत्र उनकी ऐसी ही स्थिति रही है। संसार की सभ्यताओं में विभिन्नता पाई जाती है और समय-समय पर यह अंतर काफी मौलिक एवं विराट रूप में भी दिखाई पड़ा है, परन्तु एक खास बात यह रही है कि नारी को लेकर सभी सभ्यताओं में सभी देशों में प्रांतों में एक ही बात देखी गई। नारी के लिये कानूनी अयोग्यताएं कब और किस समजा में नहीं रही हैं? नारी को लेकर उसके आत्मविकास के साधनों का द्वार कब किसने खोला? कब और किसने पुरुषोंके समान नारी को समानाधिकार देकर उसे भी मनुष्य के रूप में समझने की प्रवृति दिखाई?

रोमन कानून सभ्यता के इतिहास में बहुत प्राचीन माना जाता है और यूरोपीय देशों के वर्तमान कानून पर भी उसकी बहुत छाया पड़ी है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि रोम बहुत पहले उन साधनों को एकत्र करने में सफल हो सका था, जिन्हें प्राप्त कर राष्ट्र सभ्य कहलाते हैं। लेकिन रोम के कानून निर्माताओं ने नारी समाज को कब स्वाधीनता दी? रोमन सम्राटों के अंतपुरकी कहानियां आज भी पढ़ी जाती है और इसलिये पढ़ी जाती है कि उनमें विलास लीला की एक मोहक एवं आकर्षक उपन्यास की सी-रोचकता है, उनमें भीषण षड्यंत्रों एवं तत्सम्बंधी उलझी हुई गुत्थियों का अनोखा जाल है और प्रेम एवं करूणा का उनमें एक अद्भुत सम्मिश्रण है। पर इन सारी रोचकताओं एवं इन सारे मोहक आकर्षणों के भीतर रोमन नारी की कितनी निदारूण गाथा है- रोमन नारी के प्रति होने वाले अत्याचारों का कैसा भीषण चीत्कार है!

और क्या दूसरे देशों के इतिहास कोई और कहानी कहते हैं? ग्रीस की सभ्यता भी ऐसी ही रही है और उस सभ्यताके अन्तर्गत भी नारी का क्या मूल्य रह सका। पुरुष की विलासलीला को छोड़ समाज ने नारी का कितना मूल्य आंका? और जब नारी का इतना ही मूल्य हो और उसका ऐसा आधार हो, तब नारी के लिये समाज जिन व्यवस्थाओं की सृष्टि करे, वे नारी के लिये जंजीरों का काम दे, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

लेकिन प्रश्न केवल रोम और ग्रीस की सभ्यता का ही नहीं है, प्रश्न है समस्त मानव समाज का। रोम ग्रीस के बाद पूर्व के दो देशों, भारत और चीन की सभ्यता को ही ले लीजिये। चीन में नारियों के लिये जिस कड़े विधान की व्यवस्था रही है, उसके अन्तर्गत नारी पथ भ्रष्ट न हो सके इसलिये उसे अपंग बना देने तक की व्यवस्थाएं रही हैं और भारत में वैदिक काल में यद्यपि स्त्रियों के लिये अनेक अधिकारों की व्यवस्था की गई, पर कालान्तर में वास्तव में उनका कुछ भी मूल्य व्यवहार में नहीं रह गया। यद्यपि हमारे यहां के धार्मिक कृतियों के सम्बंध में यह विधान है कि पत्नी के बिना वे पूरे नहीं होते, पर जहां सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों का प्रश्न आ जाता है, वहां नारी की स्थिति बड़ी जटिल हो जाती है। आर्थिक स्वावलम्बन तो नारी को कभी मिला नहीं और न उसे ऐसी शिक्षा दीक्षा ही दी गई कि वह स्वावलम्बन प्राप्त कर सके, समाज में भी उसकी पृथक सत्ता नहीं स्वीकार की गई। भारतीय समाज में कोई नारी जब कभी सम्बोधित की जाती है तो अमुक की पत्नी, अमुक की माता आदि के रूप में ही। कुमारी आशा का अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। वे होश संभालते ही, यह सम्भव है इसके पहले भी प्रभाशंकर के साथ ब्याह के नाम पर उनके गले से बांध दी जाएंगी और तब उनका नाम श्रीमती प्रभाशंकर हो जाएगा और संतान होते ही लल्लू की मां हो जाएंगी। भारतीय बालिका का यही भविष्य है।

तो इस प्रकार भारतीय नारी समाज की प्रगित भी अत्यंत शिथिल रही है, यदि उसे प्रगति माना जा सके। नारी को जो इस प्रकार अनेक विवशताओं में बांधा गया, इसका सबसे प्रधान कारण जो अनेक समाजों की अवस्था का अध्ययन करने पर मालूम होता है, वह है नारी के प्रति पुरुष का सन्देह। नारी की परवशता के मूल में इसकी प्रारम्भिक दुर्बलता की आशंका रही है और आज भी हमारे देश में स्त्री-शिक्षा, स्त्री स्वाधीनता आदि का प्राचीन पंथियों द्वारा जो विरोध होता है वह अधिकांशतः इसी आधार पर किया जाता है। इस विषय में भी पुरुष का पुरुष के प्रति पक्षपात प्रमाणित है।