Back Download Printable version of this Article
विविध
पहाड़ी महिला ने छुई नई बुलंदी स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       चक्रधर उप्रेती

आशा पांडे
गन्दगी के प्रति परिवारों का कर्त्तव्य व घर में कूड़े को भी इज्जत दे कर घर में बेकार चीजों को प्रकृति का ही खूबसूरत हिस्सा बनाने का जज्‍बा श्रीमती आशा पांडे का नाम 'लिम्का बुक ऑफ रिकॉड' में दर्ज करवा चुका है। प्रकृति प्रेमी इनकी मां ने बचपन से ही सीख दी थी कि दुनिया में कुछ बेकार नहीं है, हर वेस्ट मेटिरियल का कुछ न कुछ प्रयोग कर सकते हैं। मां की बताई बातों को दिल में संजोये और अमल करते आशा का कहना है कि घर सबसे छोटी इकाई है, गृहणी घर संभाल ले, अपना पिछवाड़ा दूसरों का आंगन समझ बुहारे, दुनिया स्वयं साफ सुथरी हो जाएगी!

आशा पहाड़ी नगरी अल्मोड़ा (उत्तरांचल) की रम्यस्थली में फॉरेस्टर के घर पैदा हुई और संयोग वश फॉरेस्ट ऑफिसर पति के हिमाचल में कार्यरत होने के कारण एक पहाड़ छोड़ दूसरे पहाड़ हिमाचल आने पर भी प्रकृति के संसर्ग में ही रही। चार दशक तक देव भूमि में वन विभाग में कार्यरत पति के साथ हिम भूमि के विभिन्न स्थलों में प्रकृति के हर रंग में अपने को रंगती रही। पारिवारिक जिम्मेवारियों के साथ-साथ जिस तरह आशा ने घर में पड़े बेकार कागज, ग्रीटिंग कार्डस, ऑगन में गिरे फूल, पंखुड़ियां पत्ते, बीज, दालें, छिलकों, पुराने फाईल कवर आदि के प्रयोग से कोलाज, रंगोली, लैंडस्केप की 500 से अधिक कृतियां बनाई वो अपने में अनूठी मिसाल है। वर्षों से एकत्र करते 1100 विवाह के निमंत्रण पत्रों से छोटी-छोटी गणेश व पालकियों के बड़े वॉल पोस्टर बनाए लिम्का बुक ऑफ रिकॉड वालों की नजर एक गृहणी के अनूठे कार्य पर भला क्यों नहीं पड़ती। मां की बचपन की सीख और आशा की मेहनत को लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड वालों ने भांपा और उन्हें सम्मानित किया।

दरअसल आशा का ऐसे कार्य कर लिम्का बुक में स्थान पाना कतई मकसद नहीं था, वरन ये विचार 1978-79 में उनके दिमाग में आया जब अपने पति की कुल्लू पोस्टिंग के दौरान मेले में ढालपुर में फैली गन्दगी को देखा। कुछ देर एक स्कूल में कार्यरत अध्यापिका के रूप में उन्होंने बच्चों को चित्रकारी करते समय देख ये अनुभव किया कि बच्चे स्थानीय उत्पाद जैसे सेब, टमाटर आदि के चित्रों पर तो लाल रंग करते थे, परन्तु पाईन एप्पल आदि पर काला रंग या अन्य रंग करते थे। स्पष्ट था कि बच्चों का प्रकृति से, रंग-बिरंगे-फूलों, कीट-पतंगों, पंछियों व पर्यावरण से दूर का भी नाता नहीं है। श्रीमती आशा ने सक्वैश आदि आदि के बोतलों के लेबल में छपे फलों के चित्रों से उन्हें रंगों से परिचित करवाया और यहीं से शुरू हुआ कागजों में प्रकृति को उकेरने का सिलसिला।

अपने पति की दिल्ली पोस्टिंग के दौरान दिल्ली की गन्दगी देख फिर हिम वादियां याद आई और प्रकृति प्रेम से कुलबुलाते हृदय ने कोलाज बनाने की प्रेरणा दी। टूकड़ों की भांति-भांति की वस्तुओं को किसी पृष्ठ भूमि पर चिपकाकर बनाई कलाकृति को कोलाज कहते हैं। पेंटिग्स में इन्होंने रंगों का प्रयोग नहीं किया रंगीन बेकार फाईल कवरों की कतरनों से अलग-अलग रंगों का चुनाव किया। करेले के बीज, फलों के दाने, आंगन में गिरी सूखी पत्तियों का प्रयोग किया। जब नेक चन्द जी की नजर आशा की कृतियों पर पड़ी तो उन्होंने इन्हें रॉक गार्डन चण्डीगढ़ में प्रदर्शनी लगाने का न्योता दिया वो दिन आच्चा की जिन्दगी में उत्साह भरा दिन था। देश-विदेश से आए पर्यटकों ने भी उनकी कृतियों को सरहा! यू.के. से आई युवती लीजा ने तो यहां तक कह डाला कि भौतिकवादी दुनिया में प्रकृति के इतने करीब कुछ ही लोग होते हैं, जिनमें से आशा एक है।

(यू.एन.एन.)