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विविध
प्राचीन हिमाचल का समाज स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       डॉ.एल.पी.पांडे
प्राचीन हिमाचल का समाज कई प्रकार की नस्लों तथा जातियों के लोगों से बना था। इनमें एक तरफ सीमावर्ती क्षेत्रों में मंगोल नस्ल के लोगों का योगदान था तो दूसरी तरफ नीचे से आए आर्यों तथा भूमध्य सागरीय नस्लों के लोगों का। यहां की कोल, किरात तथा रक्का नामक आदि जातियों के लोग मूलतः समाज के विकास में योगदान दिये थे। इन सबका सम्मिलित रूप ही यहां की सामाजिक रूपरेखा की आधारशिला थी। बाद में भारत के विभिन्न मैदानी भागों तथा कश्मीर और मध्य पर्वतीय भागों से आए लोग जिनमें हर प्रकार के वर्गों के लोग थे यहां के समाज के अंग बन गए। इन सभी की मान्यताओं का एक साथ विकसित रूप ही हिमाचल का प्राचीन समाज था।

इसमें परम्परागत भारतीय समाज का वर्गीकरण तो था ही, जिसे हम ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहते हैं बाद में शूद्रों के कई वर्ग बन गए जिनमें विभिन्न प्रकार के कर्मों में लगे लोग दूसरे सामाजिक वर्गों में विभाजित हो गए। जैसे चर्मकार, कुम्भकार, नापित आदि। सामाजिक वर्ग विभाजन में हाथ से काम करने वाले लोगों ने अधिक योगदान दिया। इसी प्रकार धीरे-धीरे दासों की प्रथा भी यहां के समाज में आई। वे बड़े-बड़े जमींदारों के खेतों में तथा राजाओं या अन्य विशिष्ट वर्गों के परिवारों में काम करते थे। उनकी दशा यहां प्रायः वैसी ही थी जैसी कि भारतीय मैदानी भागों में पाई जाती थी। वैसे एक अभिलेखीय (निर्मण्ड ताम्रपत्र) साक्ष्य से मालूम होता है कि यहां दासों को कुछ लोग अपनी सम्पत्ति का एक भाग समझते थे। अतः उन्हें दान में भी दिया जा सकता था। उनकी दशा अतः बड़ी दयनीय थी। यहां के किसानों का एक वर्ग प्रायः धनी नहीं होता था, क्योंकि प्राकृतिक विपत्तियां तथा राजकीय वर्गों के अत्याचार उनकी गरीबी के मूल कारण थे। सामन्तशाही में भारत के सभी भागों में विकसित नगरों में ऐसे अनेक व्यापारी, अधिकारी तथा विद्वान रहते थे जिन्हें समाज के अभिजात वर्गों में गिना जा सकता है। यहां बने अनेक मंदिरों में रहने वाले पुरोहित लोग भी समाज के उच्च लोगों में गिने जाते थे। ब्राह्मणों में ज्योतिषी तथा पुरोहित लोग भी समाज के उच्च लोगों में गिने जाते थे। ब्राह्मणों में कुछ ज्योतिषी तथा पुरोहित का कार्य करते थे, अतः समाज में उन्हें ऊंचा स्थान दिया गया था। हिमाचल की बैजनाथ प्रशस्ति में ऐसे कुछ ज्योतिषियों एवं ब्राह्मणों का उल्लेख है जिनके पास अधिक जमीने होती थी। इनमें से कुछ कश्मीर से आए थे और कुछ उत्तर भारतीय नगरों से। काशी से आए आत्रेय गोत्र के कुछ ब्राह्मण कांगड़ा के प्रशासकों की छत्रछाया में रह रहे थे। वे छः दर्शनों में पारंगत होते थे और यज्ञ क्रियाओं के ज्ञाता तथा वेदान्त दर्शन में दक्ष थे। संस्कृत भाषा में कविता करने वाले अनेक कवि भी कांगड़ा, कुल्लू तथा चम्बा की घाटियों में रहते थे, जिन्हें समाज में अधिक ऊंचा स्थान दिया जाता था। निर्मण्ड अभिलेख में अथर्ववेद में पारंगत पंडितों का उल्लेख है जो दान के अधिकारी समझे जाते थे। यह सम्पूर्ण क्षेत्र ऊंचे प्रकार के ऋषियों के निवास स्थान के रूप में सदैव प्रसिद्ध था। इसमें से कुछ का बाद में दैवीकरण भी किया गया और उनके लिये मंदिरों का भी निर्माण किया गया।

समाज के अभिजात वर्गों में हम उन अनेक व्यापारियों को गिन सकते हैं जो यहां के विभिन्न नगरों में रहते थे। इनमें से कुछ का उल्लेख बैजनाथ प्रशस्ति में किया गया है, जो कीरग्राम, नवग्राम तथा सुशर्मपुर में रहते थे। ऐसे ही अनेक व्यापारी कुल्लू, चम्बा तथा हिमाचल प्रदेश के अन्य व्यापारिक केन्द्रों में निवास करते थे। वे मंदिरों का निर्माण करते थे और पुराने मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिये विभिन्न प्रकार के दान देते थे।

निर्मण्ड ताम्रपत्र में तालपुर नामक कस्बे के एक निवासी का उल्लेख मिलता है, जिसका नाम कम्क था। उसने कपालेश्वर शिव के लिये उद्रंग (टैक्स) दान में दिया था। वहीं के निवासी दिन्न तथा सुलभक नामक भूमिपतियों ने मंदिर के लिये कुछ ज+मीनें दी थीं। यहां के अन्य अभिजात लोगों में लेखक तथा विद्वान उद्योतक का उल्लेख किया जा सकता है जिसे इस ताम्रपत्र का रचयिता कहा गया है। वह वहां की सभा का प्रमुख सभासद था। अनेक प्रकार के कार्यों में उसकी सलाह ली जाती थी।

हिमाचल के प्राचीन अभिजात वर्गों में विभिन्न प्रकार के कलाकारों, शिल्पियों, वास्तुकारों तथा अन्य प्रकार के कारीगरों का उल्लेख किया जा सकता है। इस क्षेत्र में प्रतिमाओं तथा मंदिरों के निर्माता कारीगर भी रहते थे। कांगड़ा ज्वालामुखी प्रशस्ति में सूगिक नामक शिल्पी का उल्लेख है जो कांगड़ा में 15वीं शदी में रहता था। वह प्रस्तर खण्ड पर अभिलेख उत्कीर्ण करने में दक्ष था। इस क्षेत्र का दूसरा प्रसिद्ध शिल्पी नायक था जिसके पिता का नाम असिक था। वह सुशर्मपुर नामक नगर में रहता था जिसे बाद में कोट कांगड़ा कहा गया। ऐसी सूचना हमें बैजनाथ प्रशस्ति में मिलती है। धोधुक द्वितीय नामक कारीगर का भी उल्लेख इसी अभिलेख में मिलता है। यह लोग मंदिर तथा अन्य प्रकार के भवनों के निर्माण में अत्यंत कुशल होते थे। समाज में उनका स्थान बड़ा ऊंचा होता था। ऐसे ही कुछ कलाकारों का उल्लेख चम्बा से मिली प्राचीन मूर्तियों की वेदिका पर उत्कीर्ण अभिलेखों में किया गया है। इनमें गुग्गा नामक शिल्पी उल्लेखनीय है जो मूर्ति बनाने में अत्यंत कुशल था। उसने चम्बा की प्राचीन मूर्तियों तथा मंदिरों का निर्माण किया था। लगता है कि हिमाचल के प्राचीन राजघरानों में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी।

भारत के अन्य भागों की तरह परिवार सामाजिक संगठन का सबसे छोटा रूप था। सीमान्त क्षेत्रों में समाज सम्भवतः मातृसत्तात्मक था, जिसमें प्रधान महिला घर गृहस्थी का आधार थी। अन्य क्षेत्रों में पितृप्रधान परिवार थे, जिनमें पिता घर का मुखिया होता था। एक परिवार में पिता, माता, सभी पुत्र और पुत्रियां, चाचा-चाची, ताऊ-भतीजे तथा पितामह आदि एक साथ रहते थे। सबकी एक ही सम्पत्ति होती थी। वे एक ही घर में रहते थे और एक रसोई में बना खाना खाते थे। इस तरह इस क्षेत्र में संयुक्त परिवार का प्रचलन था। बैजनाथ प्रशस्ति में लिखा है कि मन्युक और आहयुक नामक दो व्यापारी सगे भाई थे और संयुक्त परिवार के सदस्य थे। उनकी एक ही सम्पत्ति थी, जिनमें मकान, दुकानें, मशीनें तथा खेत आदि सम्मिलित थे। पति-पत्नी तथा भाई आदि मिलकर धर्म-कार्य करते थे और दान आदि देने में भी सभी समान रूप से सम्मिलित होते थे।

समाज में स्त्रियों का स्थान भारत के अन्य भागों की तरह था। केवल सीमान्ती क्षेत्रों में स्त्री सामाजिक कार्यों में तथा अर्थ-व्यवस्था में अपने पति से आगे रहती थी। सम्भवतः इसीलिये इन क्षेत्रों में स्त्रियां आज भी खेती करती हैं तथा जीविकोपार्जन में अपने पति से अधिक कर्मशील और उत्साही रहती हैं, और पुरुष घर में या बाहर आराम से जिन्दगी बिताने में रुचि रखता है।

प्राचीनकाल में यहां स्त्रियां शिक्षित नहीं होती थी, क्योंकि शिक्षा के लिये दूर-दूर जाना पड़ता था। हो सकता है कि उच्चघर की कुमारियां और महिलाएं घर के कार्यों में दक्ष होती थी और उनमें से कुछ शायद पढ़ी-लिखी भी होती थीं। विवाह की प्रथा मैदानों जैसी थी। पिता पुत्रियों के लिये वर की खोज करता था और उचित वर मिलने पर उनका विवाह कर दिया जाता था। यहां राक्षस, पैशाच तथा अन्य प्रकार के विवाह भी प्रचलित रहे होंगे, जिनमें लड़कियों को छीनकर, खरीदकर या शराब आदि पिलाकर विवाह बंधन में बांध लिया जाता था।

सगोत्रों को स्वीकार किया जाता था और वहां अंतर्जातीय विवाह नियम के बाहर न थे। विवाह सामाजिक नियमों के अनुसार थे, लेकिन प्रतिलोम विवाह भी होते रहे होंगे, ऐसी सम्भावना है। वैसे इन प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिये हमारे पास साक्ष्यों का अभाव है। कुछ क्षेत्रों में बहुपतित्व की प्रथा अवश्य थी जैसा कि जनश्रुतियों में पाण्डव-कथाओं के प्रचलन से ज्ञात होता है जिनके अनुसार द्रौपदी के पांच पति थे। बहुपत्नीत्व की प्रथा तो प्रचलित थी ही। एक राजा के कई रानियां होती थीं। राजघरानों में कुछ दासियां भी रखी जाती थीं जिनमें कुछ को राजाओं की रखैल भी बनना पड़ता था। पूर्व मध्यकाल में इसीलिये समाज में स्त्रियों की दशा गिरती गई। बहुपत्नीत्व की प्रथा की वृद्धि हुई। मंदिरों में देव-दासियां रखने की प्रथा घर कर गई। बाल विवाह की प्रथा का भी प्रचलन हुआ और समाज में परिणामतः सती-प्रथा का भी अधिक प्रचार हुआ। मध्यकालीन समाज में इसी कारण बाद में स्त्रियों की दशा और भी दयनीय हो गई। यहां से प्राप्त अगणित सती-स्मारकों से यह बात सिद्ध होती है। यहां मृत पति के साथ न केवल उसकी पत्नियां ही सती होती थीं, वरन उसके साथ दासियां तथा परिचारिकाएं भी अनुसरण व्रत का पालन करती थी। इसके पीछे समाज में प्रचलित अशिक्षा, धार्मिक रूढ़ियां, ढकोसले और अंधविश्वास जितने जिम्मेदार थे तत्कालीन समाज में प्रचलित आर्थिक व्यवस्था भी उतनी ही जिम्मेदार थी, जिसमें स्त्री-पुरुष पर पूर्णरूपेण आधारित थी और पति की मृत्यु के बाद उसकी सामाजिक तथा आर्थिक सुरक्षा का कोई प्रबंध न था। बहुत कम दशाओं में यह पति की सम्पत्ति की अधिकारिणी होती थी अतः समाज में उचित जीवन जीने का कोई सहारा न होने के कारण मृत पति के साथ जलकर मरना ही उनके लिये एक मात्र मार्ग था। धीरे-धीरे इस प्रथा को पौराणिक धर्म का एक अंग बना दिया गया। वैसे कुछ विधवाएं जीना भी चाहती थीं और उन्हें सती होने के लिये मजबूर नहीं किया जाता था। मध्यकालीन हिमाचल में विधवाओं के विक्रय की सूचना मिलती है जो नियम न होकर समाज में एक विशिष्ट घटना मात्र ही स्वीकृत होनी चाहिये।

स्त्रियां घर और समाज की शोभा होती थीं। पति के लिये जहां वे उसके सम्प्रति की प्रदर्शन होती थीं, वहीं वे अपनी सुन्दरता तथा कटीली-कटाक्षों के कारण उसके हृदय की अधिकारिणी थी। उन्हें आभूषणों का बड़ा शौक था जैसा कि भारत के अन्य भागों की औरतों में भी था। उनके बालों की विभिन्न सज्जा-शैली, कानों तथा गले के आभूषण, जो कई प्रकार के होते थे, और हाथों तथा पैरों के रंगीन गहने प्राचीन स्त्री मूर्तियों में देखे जा सकते हैं। वैसे इस क्षेत्र की कुमारियों तथा महिलाओं के स्वस्थ गुलाबी गाल, काले घने केश-पाश, बड़ी-बड़ी कमल जैसी आंखें, कमसिन हिरणियों जैसी आंखों के हावभाव तथा नदी की लहरियों जैसी चंचल कटाक्ष, लाल गुलाब के फूल जैसा गौर बदन तथा झरते निरझर जैसी मधुर मुस्कान और खुले मौसम जैसा उनका व्यवहार उनके आकर्षण के विशेष भाग थे। इसीलिये प्राचीन साहित्य में किन्नौरियों तथा कुल्लू बालाओं का बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है और चम्बा की प्राचीन मूर्तियों में उनके सौंदर्य का अदभुत निदर्शन है। इसलिये आज भी इस प्रदेश की जनश्रुतियों, कथाओं तथा लोकगीतों में उनका बहुविध वर्णन मिलता है जिनमें पति या प्रेमी उनका गुलाम नज+र आता है। प्राचीन साहित्य में यहां के पुरुषों की भी बड़ी चर्चा की गई है। वे यदि देखने में हृष्ट पुष्ट होते थे तो लड़ने में किसी से कम न थे। स्वभावतः वे वीर होते थे और लड़ने-भिड़ने में रुचि रखते थे। वे कुश्ती के बड़े शौकीन होते थे, जैसा कि हिमाचल की कुछ प्राचीन मूर्तियों से मालूम होता है जहां कुश्ती लड़ते हुए लोगों का प्रदर्शन बड़ी सुन्दरता के साथ किया है। उनकी बहादुरी का भी प्रदर्शन प्राचीन मूर्तियों में बड़ी बारीकी के साथ किया गया है। ह्‌वेनसांग के अनुसार कुल्लू के लोग शरीर से सख्त और भारी होते थे और देखने में साधारण थे। उनका स्वभाव कठोर और भयानक था तथा न्याय और वीरता उनके बहुत प्रिय थे। कांगड़ा के लोगों के स्वभाव पर कल्हण की राजतरंगिणी से प्रकाश पड़ता है।

यहां के लोग स्वभावतः धार्मिक होते थे। विभिन्न देवी- देवताओं की पूजा में उनका विश्वास था। स्त्री-पुरुष दोनों प्रायः धर्मभीरू होते थे और धर्माचरण में विश्वास रखते थे। तिथि त्योहारों में उनकी रुचि थी। समय-समय पर मंदिरों तथा तीर्थों में जाते थे तथा देवों के लिये माला आदि अर्पित करते थे। वे व्रत और उपवास रखते थे तथा धार्मिक मेलों में भाग लेते थे। वे ललित कलाओं के भी शौकीन थे। नृत्य गीत तथा संगीत से उन्हें प्यार था क्योंकि यहां के रमणीय झरने, पहाड़ी नदियों की कलकल ध्वनि और हरहराते जंगली वृक्षों से निकलते सुरम्य संगीत उन्हें उत्साह प्रदान करते थे। चारों और बिखरा हुआ सुलभ प्राकृतिक सौंदर्य यदि कुछ को चित्र बनाने के लिये उत्साहित करता था तो कुछ को कविता लिखने की प्रेरणा देता था।

सम्भवतः इसलिये यहां अनेक विद्वानों लेखकों, कवियों और कलाकारों का जन्म हुआ, जिनके विषय में सूचनाएं हमें यहां के प्राचीन अभिलेखों से मिलती है और निजी कला निपुणता का दर्शन हमें यहां की प्राचीन मूर्तियों में होता है। बाद में विकसित विभिन्न चित्रकला की शैलियां ऐसे ही सौंदर्य एवं रुचि से अद्भुत रचनाएं मानी जानी चाहियें जो हिमाचल की ही नहीं वरन सम्पूर्ण भारत की अनूठी कलाकृतियां स्वीकार की जाती हैं। इसी प्रकार गीत गाते, बाजा बजाते तथा विभिन्न प्रकार के नृत्य में तल्लीन लोगों का चित्रण यहां की प्राचीन मूर्तियों में मिलता है, जो हमारी ऐसी सूचनाओं के प्रधान अंग हैं।

(यू.एन.एन.)