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विविध
जब शिमला में हुआ आंतक और कत्लेआम का माहौल स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        रमेश जसरोटिया
यह तथ्य जानने योग्य है कि हिमाचल प्रदेश में गोरों के विरूद्व सैनिकों द्वारा विद्रोह का झंडा बुलन्द कर देने की शुरूआत कसौली से हुइ मानी जाती है। 20 अप्रैल 1857 में कसौली पुलिस चौकी में देशी सैनिकों द्वारा आग लगा दी गई। ऐंतिहासिक दस्तावेज इस बात की पुष्टि करते हैं कि अंग्रेजों के विरूद्व कसौली में बगावत करने वाले सैनिकों में अम्बाला रार्ईफल डिपो के छः देशी सैनिक शामिल थे। खास बात यह है कि 1857 में कसौली एक ऐसा स्थान रहा है जहां पहाड़ी क्षेत्राों पर नियन्त्राण रखने के लिए गोरों द्वारा सैंकड़ों ब्रिटिश सैनिकों के अलावा पुलिस और देशी सैनिकों की नियुक्ति भी की गई थी। चंद सैनिकों द्वारा इस मजबूत छावनी में पुंलिस चौकी को आग लगा देना ऐसी आम घटना नहीं थी जिसे अंग्रेजी शासन खतरे की घंटी के रूप में न मानता। कसौली पुलिस चौकी फूको कांड के बाद अन्य छावनियों में भी विद्रोह उभरने लगा। परिणाम स्वरूप के कसौली के अतिरिक्त स्पाटू, डगशाई और शिमला की निकटवर्ती छावनी जतोग में जो भारतीय सैनिक गोरों की सेवा में थे, ने भी विद्रोह के स्वर उठाने आरम्भ कर दिये।

यहां यह उल्लेखनीय है कि उस समय के राजघरानों में से कुछ राजघरानें ऐसी भी रहे हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में यह निर्णय कर लिया था कि फौजी विद्रोह के बढ़ने की स्थिति में भारत को स्वतन्त्रा करने का नारा बुलन्द होते ही वे बागियों को साथ देंगे न कि गोरे शासन का। इन राजाओं में बुशहर के राजा शमशेरसिंह के अलावा सुजानपुर के राजा प्रताप चंद तथा कुछ अन्य राजा शामिल थे।

चिंगारी तब और भड़की जब शिमला नगर में एक दूध् बेचने वाले व्यक्ति पर अंगे्रजों को कुछ कहने पर जुर्माना किया गया। यह ऐसा समय था जब शिमला के मालरोड़ पर आम हिन्दुस्तानी हर समय घूम नहीं सकता था।

अंग्रेजों के खिलाफ शिमला में हवा गर्मा रही थी तो इसी मध्य मई के दूसरे हफ्रते सैनिक विद्रोह और प्रथम स्वतंत्राता संग्र्राम का झंडा बुलंद कर देने वाले मुख्य स्थान मेरठ से यह खबर किसी न किसी तरह शिमला पहुंच गई कि वहां सैनिकों ने भारी विद्रोह किया है। इस स्थिति में ब्रिटिश सेना के कमांडर इन चीफ जनरल जॉज एनसन ने सपाटू, डगशाई, कसौली और जतोग की पहाड़ी छावनियों के सैनिकों को यह आदेश जारी किये कि वे अम्बाला की ओर कूच करें मगर देशी सेना के सैनिकों ने अपने जनरल के आदेशों का पालन करने से इन्कार कर दिया। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस समय जतोग छावनी में गोरखा रेंजिमेंट थी जिसने जोरदार विद्रोह किया। अपने पाठकों की जानकारी के लिए यहां यह उल्लेख करना अति आवश्यक होगा कि जतोग स्थित सेना के सूबेदार भीम सिंह ने बगावत कर इस छावनी पर कब्जा कर लिया साथ ही छावनी में पड़े सरकारी खजाने को भी अपने कब्जे में ले लिया। इन पहाड़ी छावनियों में सैनिकों द्वारा अंग्रेज अध्किारियों का घेराव किया जाने लगा क्योंकि गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूसों का प्रयोग करने के मामले पर अंग्रेजों के पास र्कायरत्‌ हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदायों के देशी सैनिक गुस्से से बुरी तरह तिलमिलाए हुए थे। इस विद्रोह से शिमला में रह रहे अंग्रेजों में भारी आंतक छा गया और फिरंगी शिमला छोड़ कर अपने बचाव के लिए उन छावनियों की तरफ भागने लगे जहां पहुंच कर वह अपने को सुरक्षित होना महसूस कर रहे थे।

शिमला की घटनाओं को आधर बनाकर इंग्लैंड के तत्कालीन समाचार पत्राो ंमें दो शीषकों के अंतर्गत शिमला में भारी आंतक के समाचार छपे । इन समाचार पत्राों ने शीर्षक दिये थे शिमला आंतक और शिमला कत्लेआम। यह समाचार इंग्लैंड में मई महीनें के अंत में प्रकाशित हुए थे। सैनिक विद्रोह के कारण शिमला में बेहद आतंक और अव्यवस्था फैल गई थी। इस बारे अंग्रेज डिप्टी कमीशन विलियम हेय लिखते हैं कि शिमला के अंग्रेज निवासी क्यांेंथल, कोटी, धमी, मशोबरा और बलसन के देशी शासकों की शरण में जा पहुंचे। कुछ लोग डगशाई, सपाटू, और कसौली की सैनिक छावनियों मंें ब्रिटिश सेना की सुरक्षा मंें चले गये। मैं इन यूरोपयीय लोगों की शिमला से हड़बड़ी में भागदौड़ को न रोक सका।

12 मई, 1857 ई0 को हिन्दुस्तान-तिब्बत रोड के सुपरिन्टेन्डेंट कैप्टन डेविड ब्रिगज+ को डगशाई छावनी में तैनात ÷फस्ट ब्र्रिगेड बंगाल फयूजीलियर्ज कि सैनिक रेजीमेंट को अम्बाला भिजवाने को आदेश मिला, और सपाटू से ÷सेकिण्ड यूरोपियन बंगाल फयूजीलियर्ज' को भी अम्बाला की ओर कूच करने के आदेश मिले। परन्तु दोनों सैनिक दस्ते अम्बाला नहंीं पहुंचे। उसी समय दिल्ली के भगौड़े अंग्रेजों में से एक औरत कुछ बच्चे कालका आ पहुंचे। उन्होंने दिल्ली कत्ले-आम की कहानी, सुनाई। परिणामस्वरूप डगशाई, कसौली, और सपाटू में स्थित अंग्रेजों में और अध्कि आतंक छा गया।

कसौली में जो गोरखा रेजिमेंट की टुकड़ी तैनात थी उसने अंग्रेज अध्किारियों के यह आदेश मानने से इन्कार कर दिया कि यह टुकड़ी अम्बाला की ओर कूच करे। यहां यह उल्लेखनीय है कि गोरे सैनिकों की संख्या पर्याप्त थी और देशी सैनिकों की संख्या काफी सीमित मगर इन सैनिकों ने 16 मई 1857 को अंगे्रजों के विरूद्व विद्रोह की घोषण कर दी तथा यहां स्थित अंग्रेजी सेना पर धवा बोला दिया। इस धवे का परिणाम यह रहा कि कसौली से अंग्रेज अध्किारी और सैनिक भाग निकले और देशी सैनिकों ने इस छावनी के सरकारी खजाने पर कब्जा कर लिया। लूूटे हुए खजाने को साथ लेकर यह सैनिक जतोग छावनी की ओर बढ़े क्योंकि वहां सेवारत सूबेदार भीमसिंह क्रांतिकारी सेना के सर्वमान्य नेता बन गऐ थे। इस सम्बन्ध् में उस समय कसौली के सहायक कमीश्नर पी. मैक्सवैल ने यह लिखा था-फ्यह बड़े अफसोस का विषय है कि चंद क्रांतिकारियों ने चार गुणा से भी अध्कि अंगे्रजी सैनिकों के सामने विद्रोह की शुरूआत में ही अंग्रेंजी सरकार को उसके अपने ही मजबूत गढ़ में हरा कर ब्रिटिश खजाने को भी लूट लिया। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार चालिस पैंतालिस के करीब क्रांतिकारी सैनिकों ने दो सौ से अध्कि गोरे सैनिकों के विरूद्व हथियार उठा कर खजाना लूट लिया था।

घटनाक्रम इस तरह रहा कि सूबेदार भीमसिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना ने जतोग छावनी की ओर बढ़ते हुए हरिपुर नामक स्थान पर अंगे्रजी सेना के कमांडर इन चीफ जनरल जॉज एनसन के टैण्टों में ने केवल आग लगा दी बल्कि वहां रखे गए शस्त्रा और सामान को भी लूट लिया। आज के जुब्बड़हट्टी एयरपोर्ट के नजदीक स्थित सायरी नामक स्थान पर भी गर्मागर्मी हुई जहां विद्रोही सैनिकों ने न केवल अंग्रेजों की डाक लूट ली बल्कि नारा भी बुलन्द कर दिया कि कोई भी व्यक्ति अंगेे्रजों का साथ न दे क्योंकि स्वतन्त्राता की लड़ाई शुरू हो चुकी है। और कुछ ही दिनों में अंग्रेज देश छोड़ कर चले जायेंगे। एक और गोरखा सेना जतोग की ओर बढ़ी तो दूसरी ओर कसौली में पुलिस गार्डों ने भी ऐसी बगरावत की कि क्रांति की बागडोर को अपने हाथ ले लिया। इनके नेता वहां के थाने के इंचार्ज बु( सिंह थे। इन लोगों ने अंग्रेज अध्किारियों के आदेशों की पालना करने से इन्कार कर दिया। इनके द्वारा भी सरकारी खजाना लूट लिया गया। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है जतोग छावनी देशी क्रांतिकारियों सैनिकों का मुख्य गतिविध्ि केन्द्र बन गई थी इसलिए खजाना और अस्त्रा लूटने के बाद कसौली के बागी पुलिसवालों ने भी जतोग की ओर कूच किया।

19 मई 1857 की बात है इस दिन तक शिमला, जतोग, सपाटू, कसौली, डगशाई आदि स्थानों से कोई भी सैनिक सहायता अम्बाला तक नहीं पहुंच पाई और स्थिति यह बन गई कि सेनापति जनरल जॉर्ज एनसन देशी सेना के विद्रोह से हताश हो गए और उन्होंने कहा- अब इस स्थान पर कोई नेटिव इन्फेंटरी या देशी सैनिक ऐसे नहीं जिन पर विश्वास किया जा सके। अब 20 मई 1857 को एक अंग्रेज अध्किारी कैप्टन ब्रिगस शिमला पहुंचे मगर उनका कसौली की क्रांतिकारी सेना ने सायरी नामक स्थान पर जोरदार विरोध् किया। देशी सेना शिमला तथा इसके आसपास के क्षेत्राों में यह नारा बुलंद कर दिया गया था कि गोरी सरकार असल में बनियों की सरकार है। मई महीने के तीसरे सप्ताह तक शिमला में सैनिक विद्रोह के कारण इतना सन्नाटा फैल गया था कि उस समय के कई अंग्रेज लेखकों ने इस स्थिति को देखते हुए तत्कालीनय शिमला को मुरदों के शहर का नाम दिया है। विद्रोही सैनिकों का डर इतना बढ़ गया था कि शिमला के विभिन्न उन महत्वपूर्ण स्थानों से अंग्रेजों को भारतीय सैनिकों को हटाना पड़ा जहां यह गॉर्डस के रूप में नियत किए गऐ थे। इन स्थानों पर अपनी सुरक्षा की दृष्टि से गोरों द्वारा अंग्रेज सैनिकों की तैनाती की गई।

घटनाक्रम कुछ ऐसा रहा कि जतोग छावनी में न तो अंग्रेज अपने गोरे सैनिकों को कमान दे सके और न ही आसानी से वहां कब्जा की हुई देशी सेना को तत्काल वहां से हटा सके। इस छावनी पर गोरखा रेंजिमेंट का लम्बे समय तक कब्जा बना रहा क्योंकि जतोग छावनी विद्रोह का सबसे बड़ गढ़ बनती जा रही थी इसलिए उस समय के शिमला स्थित डिप्टी कमीश्नर विलियम हेय ने यह प्रयत्न आरम्भ कर दिये कि इस बागी सेना को किसी तरह शांत किया जाये। एक अंग्रेज अध्किारी कैप्टन डी. ब्रिगज ने अनेक सैनिक टुकड़ियों की मांगों को सुना और यह निर्णय लिया कि कसौली की टुकड़ी के अलावा अन्य को क्षमा दान दे दिया जाए। एक ओर यह सब चल रहा था तो दूसरी और 24 मई 1857 ई. में क्रांतिकारी सेना ने अपने नेता सूबेदार भीमसिंह के नेतृत्व में एक क्रांतिकारी बैठक का आयोजन किया । अब स्थिति इस सेना के नियन्त्राण से बाहर हो रही थी क्योंकि 1857 की क्रांति के मुख्य केन्द्रों दिल्ली, मेरठ और अम्बाला से इन क्रांतिकारी सैनिकों को कोई सहायता प्राप्त नहीं हो रही थी। यही कारण रहा कि जतोग छावनी के क्रांतिकारी सैनिकों को विवशता की स्थिति में विद्रोह स्थगित करना पड़ा। अंग्रेजों ने अनेक देश भक्त सैनिकों को अम्बाला जेल मंें बंद कर दिया।

28 मई, 1857 को सपाटू, कसौली, डगशाई, और कालका के क्रांतिकारी सैनिकों को भी मजबूरी की स्थिति में अपने विद्रोह को त्यागना पड़ा। ऐसा होने पर भी 10 जून 1857 को जालध्ंर के क्रांतिकारी सैनिकों ने पहाड़ों की ओर कूच कर दिया। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार पांच सौ से भी अध्कि क्रांतिकारी सैनिक नालागढ़ तक पहुंच गए और स्थानीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर इस स्थान पर भी भारी विद्रोह कर दिया।

1857 के सैनिक विद्रोह को कुछ इतिहासकार मात्रा चंद सैनिकों का विद्रोह करार देते हैं मगर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अंग्रेजों का शासन स्थापित होने के बाद अगर सैनिकों द्वारा यह विद्रोह न किया गया होता तो हम भारतीय इतिहास में इन लाईनों से वंचित रहे जाते जिन्हें अध्किांश इतिहासकारों ने देश में स्वतन्त्राता का प्रथम संग्राम माना है। यहां यह उल्लेखनीय है कि शिमला के आसपास के फौजी ठिकानों के अलावा सिरमौर, कांगड़ा, कुल्लू, और लाहुल स्पिति, चम्बा, मण्डी-सुकेत जैसे अन्य अनेक स्थानों पर भी 1857 में विद्रोह अथवा क्रांति का झंडा बुलन्द हुआ था चाहे इन क्रांतिकारियों की सीमित संख्या होनें के कारण वे अपने स्वतंत्राता प्राप्ति उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाए।