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विविध
पैसे की गर्मी का असर स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        विजय चन्‍द्र अग्रवाल
मरना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। जीवित रहने वाला प्रत्येक प्राणी मृत्यु की ओर प्रतिपल, प्रतिक्षण बढ़ता ही जाता है और शेष में अन्त के साथ मिलकर अपने दृश्य स्वरूप को निःशेष कर डालता है। मृत्यु के इस अवश्यम्भावी स्वरूप का रोना-धेना मेरे ही लिए नहीं अपितु सबके लिए कायरता है। सिद्धान्त की दृष्टि से देखिए या आदर्श की दृष्टि से किनारा एक ही है जहां पहुंच कर जीवन की किश्ती एक करवट लेती है और उसके बाद क्या होता है इस पर मैं कुछ कहना भी नहीं चाहता।

हां, तो मेरा और मेरे अन्तरंग मित्रों का यह नित्य नियम हो गया था कि हम सं8या समय लेक की हवा खाते थे और वहीं की हरी घास पर अपने शरीर को विश्राम देते थे। खुला मैदान और दूर-दूर तक घने वृक्षों से घिरे हुए लेक का सौन्दर्य सपने से भी अध‍िक सुन्दर और प्रसन्नता से भी कहीं अध‍िक आनन्द दायक था। उस पर मित्रों की धमाचौकड़ी, फिर मजाक क्या कहना। बात-बात पर कह-कहे और सांस-सांस पर वाह-वाह की आवाज। हमारी गोष्ठी में नित्य नए प्रोग्राम हमे नई जिन्दगी की सांस दिया करते थे जिसे हम कंजूस की तरह सम्भाल कर लिया करते थे।

एक दिन कुछ मित्रों की राय लेक के स्विमिंग पूल में तैरने की हुई और दूसरे दिन हम कड़कड़ाती धूप में हंसते-हंसाते लेक की ओर बढ़ चले। मन की व्यग्रता और उम्र की उमंग को चिलचिलाती धूप की किरणें थका न सकी। हमारी हंसी जब तक दिल खोलकर हमारा साथ दे रही थी तब तक फिर भला ऐसा कौन था जो हमें अपनी उमंग से एक इंच भी पीछे हटा लेता। हम कुछ ही दूर इस उमंग में आगे बढ़ पाए होंगे कि हम लोगों का 8यान एक अजीबोगरीब वस्तु की और आकर्षित हुआ। मित्रों के होठ खुले के खुले रह गए और मुंह की बात मुंह में ही रह गई। चेतना के सारे तार मानो एक बार झनझना उठे और ह्रदय की गति जहां की तहां रुक सी गई। यह कोई आश्चर्यजनक चालकहीन विमान का धमाका नहीं था वरन मांसहीन मुनष्य का एक घिनौना और वीभत्स स्वरूप था जो बार-बार सड़क पार करने की कोशिश कर रहा था किंतु अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारण सड़क पार करने में सर्वथा असफल हो रहा था। फिर वह यदि अकेला भी हो तो कहा जाए, उसकी पीठ पर एक और बोझ था जो उसके साहस को बुरी तरह बलपूर्वक दबाए हुए उसे उठने का समय देना नहीं चाहता था। वह बोझ था नर के साथ नारी और नारी के साथ नर का वह सम्बन्‍ध जो आदि काल से मानव जीवन की पूर्णता का प्रत्यक्ष प्रतीक रहा है। हम लोगों की उत्कृष्ठता बढ़ी और हम बजाए लेक की ओर जाने के उस जीवित शव की ओर बढ़ चले। उस स्त्री के पैरों में 'एक्जिमा' की तरह कोई बीमारी थी जिसके कष्ट के चिन्ह उसके मुख पर स्पष्ट प्रतिबिम्बित हो रहे थे। जीवन का प्रबल सहारा आंखों की ज्योति उसका साथ कब से छोड़ चुकी थी हम जान नहीं पाए। तन पर लज्जा निवारण के लिए उसकी जिन्दगी की तरह जीण-शीर्ण और पुरानी साड़ी जिसमें नए पेबन्द के लिए थोड़ी सी भी जगह शेष नहीं थी, उसकी लाज ढकने में असमर्थ थी। पुरुष की पीठ से चिपकी वह रिरियाने के स्वर में 'एक पैसा' की आवाज लगा रही थी। उसके निःशक्त हाथों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह भीख मांगने की डबरी भी सम्भाले रह सके। करुणा की वह सहोदरा शायद अपनी सांसों के झोंके से हिल-हिल उठती थी। किसी भी कलाकार के लिए वह कला की सचेष्ट प्रतिमा थी जिसके गत इतिहास के प्रत्येक शब्द पर साहित्य और समाज का निर्माण किया जा सकता था। उसके फैले हुए हाथ पर घण्टों की प्रतीक्षा के बाद भी पैसे की कौन कहे एक कंकड़ भी न आया। सामने से फुलडᆭेस्ड कुछ गोरी नसे तितिलियों की तरह उड़ी जा रही थी और अपने पीछे बेफिव्ी के साथ मादक सुबास की लहर छोड़ती जा रही थी। कुछ लोग झूमते आते और निकल जाते थे पर किसी को भी इन्हें आंख उठाकर देखने को अवकाश नहीं था। आस-पास बैठे हुए अन्य भिखमंगे लगातार-सर! नो पाइस! गिव वन! नो माई! नो बाप? यू राजा! की रट लगाए हुए थे और साहब लोग इनकी आवाज पर व्यग्ंय मिश्रित मुस्कान से इन्हें देख लेते थे तथा जिसके भाग्य जाग जाते थे उसे दो चार पैसे मिल जाते थे।

वे दोनों अपनी जगह से उठकर जाने लगे। उनकी दरिद्रता मुझे रुलाए बगैर न रह सकी और मैं मित्रों की आंखें बचाकर लोचन जल को रुमाल में बटोरने लगा। मित्रों से मैंने अपना साथ छुड़ा लिया और उस कंकाल के साथ हो लिया। मैंने सोचा जब ये अपनी झोंपड़ी में पहुंच जाएं तो मैं इनके सामने प्रत्यक्ष होउू और अपने मानव-जीवन को धन्य करुं। वह थोड़ी ही दूर बढ़ा और एक ताल वृक्ष के नीचे उस ''गुड़िया'' को जिसे वह अपनी पीठ से लगाए था उतार दिया और वह तत्क्षण ही उस स्थान से उठ खड़ा हुआ। मैंने पास से जाते हुए एक भिखमंगे से उन दोनों के विषय में कुछ जानना चाहा और ज्योंही उसकी हथली में इकन्नी की गर्मी पहुंची उसने उसकी कहानी कह सुनाई। भिखमंगे का नाम था मंगरू और भिखारिन का नाम था चुहिया। चुहिया मंगरू की गृहिणी थी किन्तु समाज के शब्दों में वह उसकी रखेल थी। ''चुहिया'' को पैसा पैदा करने की एक बड़ी मशीन मानकर मंगरू उसके शरीर का बोझा ढो रहा था। सचमुच मनुष्य कितना स्वार्थी है।

महीनों बीत गए। तब से बराबर इस जोड़े को इधर-उधर भीख मांगते हुए देखा करता था। मैं भी कभी-कभी दानी की तरह इन्हें पाई, पैसे देकर गर्व का अनुभव कर लिया करता था।

धीरे-धीरे कुछ ही दिनों में लेक का नैसर्गिक दृश्य, पटिया, गारा और सिमेंट की कृपा से ठोस लौकिक सौंदर्य के रूप में परिवर्तित हो गया। खाकी रंग ने सभी रंगों पर अध‍िकार कर लिया और देखते-देखते उषमा की जगह सुरसा प्रकट हो गई। रिक्शे, मोटर और लारियों के भाग्य जाग गए, पर ये भिखारी ज्यों के त्यों अपने उसी स्वरूप में रह गए। यह एक एकांगी परिवर्तन का नाटक था जिससे सर्वव्यापी परिवर्तन की आशा करना अपनी बुद्धि को धोखा देना था। मैंने एक दिन मंगरू और चुहिया को भीड़ के सामने पोज देते पाया। उस भीड़ के सामने से एक साथ पांच-पांच लेंस उसकी ओर मुंह किए हुए थे। पांचों लोगों के कैमरे थे जिनके लिए ''फिल्म'' की कोई कमी नहीं है। उन लोगों ने ''चुहिया'' को हंसाने की चेष्टा की और इसके लिए उसे पैसे का लालच दिया। बड़े परिश्रम के बाद वह होठ हिलाने में समर्थ हो सकी। उसके लिए यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं था क्योंकि शायद उसके बीस वर्ष के इस लम्बे जीवन की वह पहली ही मुस्कान रही होगी। मंगरू भी आज सब दिनों से अ8िाक प्रसन्न नजर आ रहा था। उसकी खुशी के दो कारण थे। पहला पैसा और दूसरा तस्वीर खिंचवाने का जीवन में यह पहला स्वर्ण अवसर। कैमरे में ''खट'' की आवाज+ हुई और यह आनन्ददायक तमाशा समाप्त हो गया। मंगरू हाथ में नोट दबाऐ चुपचाप खड़ा था। जैसे ही उसे इस बात का पता लगा कि इन कागजों के रूप में उसके पास नकद 80 आने आ गए हैं खुशी के मारे वह फूलकर कुप्पा हो गया, रुग्णा चुहिया के चेहरे पर भी प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। जो उसे कुछ देर के लिए चुंधिया कर गई। चुहिया इस प्रसन्नता के आवेश में अपने पंगु और लाचार शरीर का ख्याल न करके खिसकने का प्रयत्न करने लगी और लुढक कर गड्ढे में जा गिरी। मुंह से खून की कुछ बूंदें गिरी और रिरिया के वह बदहोश हो गई। मंगरू 80 आने की खुशी में इतना तल्लीन हो रहा था कि वह 'चुहिया' की सुध खो बैठा। पैसे की गर्मी का असर दिल और दिमाग दोनों पर होता है, यह उस दिन आपसे आप मेरे माने स्पष्ट हो गया।

मंगरू चला-उसकी चाल में आज एक विशेष प्रकार की नवीनता थी। चुहिया पीठ पर बदहोश लटक रही थी। वह सौ गज से अध‍िक दूर न गया होगा कि उसने चुहिया से कुछ प्रश्न किए जो मैं दूर रहने के कारण सुन न सका। वह बार-बार चुहिया से प्रश्न करता गया पर उसकी पीठ पर लदी चुहिया एक बार भी जवाब न दे सकी। मंगरू ने धीरे से चुहिया को उसी ताल वृक्ष के नीचे लिटा दिया और उसके मुंह पर झुककर चिल्लाने लगा ''तुम बोलती क्यों नहीं'' फिर भी उत्तर नदारद। अचानक मंगरू का पुरुषत्व जाग उठा और उसने चुहिया को बुरी तरह झकझोर डाला। फिर भी चुहिया कुछ न बोली। अब मंगरू को जैसे होश हुआ और उसने उसे हिलाया, नाड़ी का स्पर्श किया और ह्रदय की गति का अनुभव करना चाहा। लेकिन अब होता क्या है। चुहिया बहुत पहले ही उससे विदा ले चुकी थी। क्षण भर के लिए मंगरू विचलित हुआ और दूसरे ही क्षण उसने बगल के नाले में चुहिया के मृत शरीर को ढकेल दिया। कुछ क्षण तक वह प्रेम से उसकी ओर देखता रहा और अपने ही आप बोल पड़ा-''चलो अच्छा हुआ पीठ का भार तो हटा।'' और वह शीघ्रता पूर्वक सामने की गली में घुस पड़ा जहां देशी शराब की एक दुकान अम्यागतों के स्वागत के लिए मुंह बाए खड़ी थी। मंगरू ने शान के साथ एक नोट दुकानदार के आगे फेंकते हुए अच्छी शराब की मांग की और फटे टाट पर अभिमान पूर्वक वह इस तरह अकड़कर बैठ गया जैसे सारी दुनिया को वह अपने बाहुबल से जीत चुका हो।