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विविध
फूलों और परियों का देश पुराना बर्मा स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       सत्यपाल विद्यालंकार
बर्मा पर पहले भी कुछ लेखकों ने लिखा है, फिर भी अभी उसके बारे में कहने को बहुत बाक़ी है। राजनीतिक दृष्टि से उत्तरी बर्मा का महत्व सर्वविदित है। सामाजिक दृष्टि से बर्मी लोगों की एक-सी वेश-भूषा, भाषा, धर्म और रहन-सहन किसी भी दर्शक की नजर में सबसे पहले आने वाली चीज हैं। आधी बांह का कुर्ता, रेशमी लुंगी और सिर पर फक्कड़ों का सा साफा, यह वहां का आम पुरुष-वेश है। स्त्रियों और पुरुषों के वेश में भेद केवल यही है कि वे साफे की जगह बालों का जूड़ा बांधती हैं और उसमें फूल खोंसे रहती हैं।

फूलों और प्रकृति से बर्मी लोगों को विशेष प्रेम है- चाहे बौद्धमत का नास्तिकवाद ही इसका कारण हो। उनका सौन्दर्य प्रेम और सहज कला उनके हरएक छोटे से छोटे काम में भी नजर आती है। हमारी दैनिक आवश्यकता की शायद ही कोई चीज हो, जिसे उन्होंने बांस के टुकड़े से न गढ़ डाला हो। बांस की थाली, 'कौल', लोटे, सुन्दर- सुन्दर डब्बे, श्रृंगार की चीजें और हेयर क्लिप आदि देखकर कोई नहीं कह सकता कि वे बांस के बने हैं। यहां तक कि चावल पकाने की बटलोई का काम भी बर्मी लोग बांस के खोल से लेते हैं। 'काठ की हांडी दूसरी बार नहीं चढ़ती' की उक्ति वहां चरितार्थ नहीं होती।

बर्मा में सब जगह बौद्ध धर्म का प्रचार है। उसी बौद्ध धर्म का जिसका मूलमंत्र 'अहिंसा परमो धर्मः' है। और फिर भी यह सोलहो आने सत्य है कि वहां के लोग मांस, मछली, मुर्गी और मेंढक आदि के बेहद शौकीन हैं, और कई ऐसी चीजों के भी, जिनका नाम पाठकों को बहुत ही अरुचिकर होगा। एक मित्र एक विशेष व्यंजन का वर्णन, जिसे वहां के लोग 'नपी' कहते हैं, बड़े चाव से सुना रहा था। मैं तब तक तो सुनता रहा, जब तक कि उसने मशीन में दबाकर मछली का रस निकालने की विधि बतलाई, पर आगे न सुन सका। निस्सन्देह मेरे उस मित्र को इस बात से उत्साह मालूम हो रहा था कि उसके श्रोता पर उसकी बहुज्ञता का प्रभाव पड़ रहा है और मुझे उसके उत्साह भंगका अनुमान करके दुख भी हुआ, पर और कोई चारा ही नहीं था।

बर्मी लोग प्रकृति के बहुत खुशमिजाज और सरल दिल के होते हैं। पर उनकी सरलता उनके दिमाग के दिवालियेपन का नतीजा होती है, न कि हृदय की तपस्या का। इसलिये जो यात्री वहां से आकर कहते हैं कि वे घुन्ने नहीं होते, उनसे असहमत होने का कोई कारण नहीं होना चाहिये। वे हो ही नहीं सकते।

उनके स्वभाव का सबसे बड़ा गुण उनका अतिथि प्रेम है। मेरे इस कथन से शायद रंगून के रहने वाले भारतीय बहुत हैरान हों और सिर हिलाने लगें, पर ऐसा कहने का एक कारण है। बर्मा के रहने वाले भारतीयों ने और खासकर हिन्दुओं ने बर्मी लोगों के साथ शुरू से ही बहुत बुरा सलूक किया है। वहां ऐसे बच्चों की संख्या जिन्हें पैदा करने के बाद उनके हिन्दू पिताओं ने अपने घर की राह ली और उन बच्चों की बर्मी माताओं की खबर तक न ली, बहुत अधिक है। फिर यदि बर्मी लोग हिन्दुस्तानियों को हिकारत की नजर से न देखें, तो क्या करें? पर उनकी इस घृणा का एक ऐतिहासिक कारण भी है और वह यह कि बर्मा की विजय के समय बर्मी लोगों को कत्लेआम करने का काम हिन्दुस्तान के बहादुर सिपाहियों को ही सौंपा गया था।

मेमियो की बात है।मेमियो 'बर्मा का शिमला' है। उक्त पहाड़ी स्थान पर सहस्त्रों की संख्या में अच्छे-अच्छे प्रभावशाली बर्मी लोगों का निवास है। हम वहां पर एक बर्मी परिवार के यहां निमन्त्रित होकर भोजन करने गए। उन्होंने हमारे लिये अपने देश के विशेष-विशेष व्यंजनों का परिचय देने का प्रबंध किया था और वे हमें हर एक व्यंजन का नाम बताकर स्वाद चखा रहे थे। सचमुच वे अतिथि सत्कार करना खूब जानते हैं।

बर्मी लोग बौद्ध होने के कारण किसी बाहरी ईश्वर को नहीं मानते, फिर भी जितना नियमपूर्वक मंदिरों में वे जाते हैं, उतना शायद ईश्वर को मानने वाले लोग भी न जाते होंगे। वहां के मंदिरों के लिये व्यवहृत होने वाला पारिभाषिक शब्द 'पगोडा' है। बड़े-बड़े उत्सवों और त्योहारों पर हर जगह स्थानीय 'पगोडा' में लोग हजारों की संख्या में इकट्ठे होते और पूजा करते हैं। क्या अमीर और क्या ग़रीब, उस समय किसी तरह का उनमें भेद नहीं रहता। चित्र इस बात के भली भांति परिचायक हैं। फूलों और छोटे-छोटे पौधों को पूजा के लिये दूर-दूर से ले आना और पगोडा में स्थापित कर देना वहां के उत्सवों का एक अंग है। इसमें राजा और रंक कोई भी अपवाद नहीं, सभी ले आते हैं और बड़े चाव से अपने-अपने पगोडा में स्थापित कर देते हैं।

यदि ध्यान से देखा जाए, तो बौद्ध धर्म का वहां के आंतरिक जीवन पर भी बड़ा ही मार्मिक प्रभाव पड़ा है। भगवान्‌ बुद्ध ने जीवन को ऊपर उठाने वाले जिस आनन्द का संदेश मानव जाति को सुनाया, बर्मा वाले उससे अत्यधिक प्रभावित हुए, मालूम होते हैं और उनकी कला पर भी इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। बर्मा की कला में वहां के निवासियों का जीवन बोल रहा है। जीवन के विभिन्न अंगों और अनुभवों पर बर्मा वालों ने चित्र बनाए हैं और उन्हें देखने पर कोई भी आसानी से कह सकता है कि बर्मियों ने महायान और हीनयान दोनों ही पन्थों का जैसे एकीकरण करके अपने लिये एक नई दिशा खोज निकाली है। उनके पुलक और उनके आनन्दोत्सवों को देखकर ऐसा मालूम होता है, जैसे वे एक अमर महोत्सव की तैयारी में सदा से आनन्दोलास में निमग्न रहने वाले प्राणी हैं। यद्यपि चित्र कला के लिये बर्मियों के पास उपाख्यान के असंख्य विषय नहीं है, पर जो हैं, उन्हीं के आधार पर उन्होंने गजब की प्रतिभा दिखाई है।

'वासो' वहां का एक विशेष त्योहार है। उस दिन वे महात्मा बुढ की मूर्ति को सजाकर जुलूस निकालते हैं। कभी-कभी मूर्ति की सजावट किश्तियों पर भी की जाती है और फिर उन्हीं सजी किश्तियों को धारा के साथ-साथ दूर तक ले जाकर अपने देवता के प्रति वे अपनी श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं।

महात्मा बुद्ध ने भारत में ही जन्म लिया और भारत में ही उनका निर्वाण हुआ। फिर भी भारतवर्ष की अपेक्षा बौद्धमता का अधिक प्रचार दूसरे देशों में ही है, जहां गौतम स्वयं कभी पहुंचे भी नहीं थे। ऐसे ही, जैसे आग बुझ जाने पर उसकी एक चिंगारी किसी दूर के कोने में सुलगते-सुलगते असली आग से भी अधिक प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है। और उस आग की लपट में बर्मा के कितने ही पुराने रीति-रिवाज, प्रथाएं और अर्थविहीन रूढ़ियां भस्म होने से न बचीं।

मेरे विचार में 'जीवन के सुख' की दृष्टि से उन लोगों का अनीश्वरवाद शायद अधिक स्पृहणीय है। गलियों में बाजारों और हाटों में, जिधर देखो, उधर ही चहकती चिड़ियों की तरह छोटी-छोटी लड़कियां फूलों के गुच्छे हाथ में लिये घूमती दिखाई देंगी। जैसे प्रकृति ने स्वयं उन्हें सरलता से दुलारकर फूलों से उनका श्रृंगार किया हो। उनके चेहरों की ताजगी, कपड़ों की सादगी और उज्ज्वलता भारतवर्ष में ढूंढे भी नहीं मिलेगी। उनकी सजावट में भी एक सादगी है और वह इसीलिये कि उनकी बनावट के साधन प्राकृतिक हैं। यहां चालीस की उमर होते ही स्त्रियां जहां संसार की असारता का रोना रोने लगती हैं, वहां बर्मा की स्त्रियों में बुढ़ापे का असर उनके मन पर जरा भी नहीं पड़ता- वह शरीर तक ही रह जाता है। अन्यथा मन में उनके वही उत्साह भरा रहता है। फूलों के इस देश में निवास करने वाली परियों को सांसारिकता का मोह बहुत कम सताता है, यह कोई भी उनके आंतरिक जीवन से परिचित रहने वाला बता सकता है। वहां की स्त्रियां सामाजिक व पारिवारिक बंधनों से बिल्कुल स्वतंत्र हैं। वे पुरुषों की तरह सौदा करने जाती हैं, बाजारों में घूमती हैं और स्वयं भी बाजार करती हैं- उन्हें किसी बात की मनाही नहीं है। वे विवाह भी अपना-अपना आप करती हैं और मनपसंद वर चुन लेती हैं। प्रेम हो जाने के बाद दोनों, युवती और युवक अपने मां-बाप के घर से दूर, जंगल में भाग जाते हैं और वहीं कुछ घंटों तक आमोद प्रमोद करते हैं। बस, संक्षेप में यही उनका विवाह संस्कार रहा है। और जब वे अपने घरों को वापिस आ जाते तो एक विवाहित दम्पति की भांति सुख से जीवन व्यतीत करने लगते। उनके इस विवाह नियम का वहां इतना व्यापक प्रचार है कि रंगून कालेज के एक विद्यार्थी को जिसका एक भारतीय लड़की से प्रेम हो गया था, यह विश्वास ही नहीं होता था कि लड़की के मां बाप उन दोनों का विवाह नहीं होने देना चाहते। जरा परिचित होने के बाद उसने कहा- 'मेरी समझ में नहीं आता कि जब . . . मैं और तुझमें प्रेम हो गया है, तो किसी के रोकने का मतलब ही क्या है?'

फिर वह मेज पर मुक्का मारकर बोला- विवाह का तो उद्देश्य ही प्रेम की तृप्ति है। ऐसे ही, जैसे कोई भारतीय पंडित मेज पर मुक्का मारकर कहे कि विवाह तो होता ही गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिये है। इन बातों से प्रकट होता है कि बर्मा निवासी आज के बाह्‌य आडम्बर के प्यार करने वाले समय में भी प्रकृति के बहुत नजदीक हैं।

बर्मा की कला में भी अपना एक निरालापन है। कुछ रंगों को तो उन्होंने खास तौर पर अपनाया है। सुनहरे रंग को वे लोग बड़ी प्रधानता देते हैं। एक आलोचक ने कहा है- 'संसार में और कहीं भी इमारतें इस प्रकार सुनहरे रंग में नहीं रंगी जातीं, जितनी बर्मा में। अराकन के मंदिरों को दूर से देखने पर मालूम होता है, मानो उसपर स्वर्ण बरस रहा हो।'

चीन और जापान में भी सुनहरा रंग प्रिय है, पर उतना नहीं, और सजावट तो उनकी-सी और कहीं भी देखने को नहीं मिल सकती। उनकी सजीवता ऐसी होती है कि देखते ही दर्शक मुग्ध हो जाता है। सर चार्ल्स ईलियट ने एक जगह कहा है- 'ऊंची-ऊंची सीढ़ियों को समाप्तकर जब कोई प्लेटफामर् पर पहुंचता है, तो वह जैसे भ्रम में पड़ जाता है और सोचता है कि जेरूसलम में नहीं पहुंच गए। ऊपर-नीचे, इधर-उधर चारों ओर जिधर भी दृष्टि डालिये, दमकता हुआ सोना ही सोना-सा दिखाई पड़ता है। और मूर्तियां जैसे आपका नीरव आह्‌वान कर रही हैं। दरवाजे पर पहुंचने पर ऐसा मालूम होता है, मानो हम अकस्मात्‌ किसी नए जीवन और बिल्कुल नए संसार में पहुंच गए हैं। मानो हम स्वर्ग के बाजारों में सैर कर रहे हैं।' सचमुच बर्मा का सौन्दर्य ही निराला है, उसका पश्चिम में क्या पूर्व में भी अपना एक निरालापन है।