Back Download Printable version of this Article
विविध
नेताओं ने लूट लिया 'नेता जी' के देश को स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
नेताओं ने लूट लिया 'नेता जी' के देश को
भर ली अपनी-अपनी झोली खाली कर दिया देश को

अभी तक हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता प्र प्ति के दशकों बाद भी देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा गरीबी की रेखा के नीचे लाचार जीवन व्यतीत कर रहा है, ऐसे अनेक लोग हैं जो दो वक्त की रोटी का जुगाड़ तक न हो पाने के कारण सड़कों पर सांस तोड़ देते हैं और उनके शरीर को कफन का टुकड़ा तक नसीब नहीं होता। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या दिन तिदिन विस्फोटक रूप से बढ़ती जा रही है तथा देश के रोजगार पंजीकरण रजिस्टरों में उनके नामों पर उतनी ही तेजी से धूल भी जमती जा रही है। देश में इसी रतार से और भी यदि कुछ बढ़ा है तो वह है राजनीतिज्ञों और राजनैतिक दलों में भ्रष्टाचार।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में चाहे चहुंमुखी तरक्की हुई है मगर इस तरक्की से गरीब लोगों को कोई चमत्कारिक लाभ पहुंचा हो, कहना महज झूठ के पुलिन्दे को सीने से लगाना होगा। हमारे नेता गरीबी दूर करने का नारा लगाकर चाहे आंकड़ों के मायाजाल से यह दावा करते रहें कि देश के गरीबों की हालत में सुधार आया है मगर वास्तविकता यह है कि गांधी और नेताजी सुभाष के देश में ग़रीबी तो कहने को हटी है, यह सत्य है कि यदि कुछ हटा नहीं है तो वह है राजनीतिक भ्रष्टाचार और राजनेताओं द्वारा अपने घर भरने का धंधा ।

जब भी चुनाव नजदीक होते हैं, विभिन्न दलों के नेतागण लुभा देने वाले चुनावी वादों के साथ ठीक उसी तरह जनमानस के सामने निकलते हैं जैसे फसल पकने के करीब फसली बटेरे। इन चुनावी वादों में जो कर दिखाने के वादे किये जाते हैं उनमे से अधिकांश मतदान पत्रों के डिब्बे खुलने के बाद, मत पत्रों के बाहर आते ही डिब्बों में अगले चुनाव तक के लिये बंद हो जाते हैं, विजयी दल के नेता सना के नशे में धुन हो जाते हैं और पराजित दलों के नेता सना हथियाने के लिये रणनीति निर्धारण में बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर ऐसे राजनीतिज्ञों की संख्या गिनी चुनी रह जाती है जो अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिये निष्ठा और गम्भीरता से कार्य करते हैं, अन्यथा अधिकांश नेता अपने और अपनों की स्वार्थ सिद्धी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि जनमानस से किये वादे को पूरा करना तो कहीं दूर की बात है, वे जनसाधारण से मिलने तक में गुरेज करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में देश के राजनीतिज्ञों में उपरोक्त प्रवृनि में व्यापक बढ़ोनरी हुई है और इस बढ़ोनरी के साथ-साथ यदि कुछ और बढ़ा है तो वह है राजनीतिज्ञों द्वारा बड़े- बड़े घोटालों में संलिप्त होना। देश और प्र देशों के अनेक बड़े नेता किसी न किसी चर्चित कांड से जुड़कर नाम कमा' रहे हैं जबकि बेचारी जनता उन्हें कोसने के अलावा और कुछ करने की स्थिति में भी नहीं है।

देश का जनसाधारण अपने चुने हुए नेताओं से कई अपेक्षाएं रखता है, मगर उसे अक्सर उपेक्षा का ही शिकार बनना पड़ता है। जनता के लिये कुछ करने के लिये चुने गए प्रतिनिधियों की कारगुजारी देखकर आम आदमी अपना सर पकड़ने पर विवश हो जाता है। चाहे संसद भवन हो चाहे विधानसभा भवन, वहां अब जो कुछ घटने लगा है उसने तो अधिकांश नेताओं से जनसाधारण का विश्वास उठा दिया है। संसद और राज्य विधानसभाओं में जनसाधारण के मसलों पर तो सीमित बातचीत ही होने लगी है। अधिकांश समय का चुने सदस्य बेकार की बहस में कचूमर निकाल देते हैं। अब तो सदन में उनके मध्‍य अशोभनीय व्यवहार, मारपीट जैसी घटनाएं भी आम बनती जा रही हैं। इन बैठकों पर देश का अधिकांक्ष पैसा व्यय होता है मगर

अनेक वरिष्ठ राजनीतिज्ञों को भी इस व्यय की कोई परवाह नहीं है। लाखों रुपये के व्यय वाले हर मिनट को वे निर्रथक खराब करने की आदत बनाते जा रहे हैं। यह कहां का न्याय है कि जिस देश में कुछ को रोटी तक के लाले हों वहां यदि जनप्रतिनिधि ऐसा व्यवहार करें तो भारी व्यय का उनरदायित्व किस पर है।

यह प्रश्न बेहद महत्व का है कि दलों के नेताओं को जनता इसलिये नहीं चुनती है कि वे अपना अधिकांश समय व्यर्थ के विवादों में नष्ट करें अपितु लोकतंत्र का यह मूल सिद्धांत है कि चुने हुए जनप्रतिनिधि मतदाताओं के प्रति कानूनी तौर पर चाहे उनरदायी न भी हों आदर्शवादिता के नाते मतदाताओं के प्रति वे हर हालत में उनरदायी हैं।

न तो उन्हें जनसाधारण सदनों में व्यर्थ समय खराब करने के लिये चुनता है और न ही अपने पद का दुरुपयोग कर अपना या अपनों का घर भरने के लिये। उन्हें आम आदमी कार्य करने के लिये मत देता है तथा यही मत लोकतंत्र में सम्मत भी है। यदि चुने नेता चुनाव के बाद जनसाधारण से मुंह मोड़ते हैं तो इसे सरासर बेईमानी कहा जाएगा। तभी तो आम आदमी कहने लगा है नेताओं ने लूट लिया नेता जी के देश को भर ली अपनी-अपनी झोली खाली कर दिया देश को।'