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विविध
मांस खाने वाले पौधे स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
क्या पौधे भी मांसभक्षी होते हैं? यह प्रश्न अपने आप में आश्चर्य को लिये है क्योंकि अधिकांश पेड़ या पौधे मिट्टी, पानी तथा प्रकाश से भोजन प्राप्त करते हैं, यह सत्य है कि कुछ पौधे मांसभक्षी होते हैं और भोजन प्राप्त करने के लिये ऐसे पौधे कीड़े-मकोड़ों को अपना शिकार बनाते हैं। सन्‌ 1875 से पूर्व ऐसे मांसभक्षी पौधों के बारे अधिक जानकारी नहीं थी, इस वर्ष ऐसे पौधों के बारे जानकारी मिली थी।

आमतौर पर मांसाहारी पौधे दलदली, अमलीय और कीतपूर्ण मिट्टी में उगते हैं। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि ऐसी मिट्टी में नाइट्रोजन की कमी होती है, परिणामस्वरूप ऐसी मिट्टी में उगने वाले पौधे, इस कमी को पूरा करने के लिये कीड़े-मकोड़ों को पचाने का रास्ता अपनाते हैं। ऐसे कुछ मांसाहारी पौधे तो तितलियों, शहद की मक्खियों को तो खा ही जाते हैं, कभी-कभी ऐसे पौधे मेंढक जैसे जानवर को भी दबोच लेते हैं।

मांसभक्षी पौधों की पाचन क्रिया भी लगभग अन्य प्राणियों की अमाशय क्रिया सी ही होती है। मांसभक्षी पौधे अपने शिकार के कोमल ऊतकों को एक पोषक तत्व में बदल देते हैं। इस क्रिया से उन्हें नाईट्रोजन के अतिरिक्त अन्य तत्व भी प्राप्त हो जाते हैं।

घटपर्णी
यह पौधा असम की पहाड़ियों में पाया जाता है। इस पौधे की पत्ती कलश के रूप में विकसित हो जाती है जिसके मुंह पर पत्ती का ही एक ढक्कन होता है। इस कलश से एक प्रकार का मकरंद निकलता है जिससे कीट इसकी ओर आकर्षित होते हैं। कलश की तली में जल होता है जिसमें बैक्टीरिया एवं पाचन द्रव होता है। कीट कलश में प्रवेश करते ही जल में डूबकर मर जाते हैं। उसके बाद इनका विघटन होता है और पोषक पदार्थ निकल कर जल में आ जाते हैं। इसके बाद पत्ती इन्हें सोख लेती है।

सन-ड्यू
यह हमारे देश के कई भागों में पाया जाता है। इसकी पत्तियों से एक प्रकार का लसलसा द्रव निकलता है जो धूप में ओस की बूंदों की तरह चमकता है। इन चमकती बूंदों की ओर छोटे-छोटे कीट आकर्षित होते हैं और स्पर्ष करते ही चिपक जाते हैं। इसके बाद पत्ती से एक और द्रव निकलता है जो प्रोटीन पदार्थ को पचाता है। अब इस द्रव का पुनः पोषण होता है जिससे पत्ती कीट के शरीर से अपना भोजन सोख लेती है। पाचन पूर्ण होने पर पुनः पूर्व स्थिति आ जाती है और अगला शिकार पकड़ने की तैयारी हो जाती है।

बटलरवर्ट
यह पौधा हिमालय में पाया जाता है। इसकी पत्तियां चौड़ी हैं जिनकी ऊपरी सतहों पर लसलसी गं्रथियों होती हैं तथा किनारे अन्दर की ओर मुड़े रहते हैं। छोटे-छोटे कीट इनकी ओर आकर्षित होते हैं और ऊपरी सतह पर चिपक जाते हैं और वर्षा द्वारा पत्ती के किनारों की ओर बहते हैं जहां भीतर की ओर लिपटे किनारों में बंद हो जाते हैं। अब ग्रंथियों से पाचन रसों का स्राव होता है जो शिकार को पचा लेते हैं। इन पदार्थों का पुनः अवशोषण होता है और पत्ती खुलकर फिर सपाट हो जाती है शिकार की तलाश में।

ब्लैडरवर्ट
भारत के लवण जलों में यह अधिक पाया जाता है। सम्पूर्ण पौधा जल में डूबा होता है। इसकी पत्तियां जाल के आकार की होती हैं तथा नोक पर थैली जैसी संरचना होती है। इसमें वे सूक्ष्म प्राणी पकड़ लिये जाते हैं जो जलधारा के साथ आते हैं। थैली का खुलना तथा बंद होना एक बाल्ब के द्वारा संचालित होता है। शिकार के पच चुकने के बाद बाल्ब खुल जाता है और जाल अगले भोजन के लिये तैयार हो जाता है।