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विविध
वर्ण भेद विवाद स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
खेद का विषय है कि आज भी वर्णभेद के समर्थक पाए जाते हैं। इसके समर्थन में वे अनेक युक्तियां देते हैं। वे कहते हैं कि वर्ण भेद केवल श्रम विभाग का दूसरा नाम है, और यदि प्रत्येक सभ्य समाज के लिये श्रम विभाग आवश्यक है, तो फिर वर्ण भेद में कुछ भी हानि नहीं। इस मत के खण्डन में पहली बात यह है कि वर्ण भेद केवल श्रम विभाग नहीं। यह साथ ही श्रमिक विभाग भी है। निस्संदेह सभ्य समाज को श्रम विभाग की आवश्यकता है। परन्तु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाग के साथ-साथ, हिन्दू समाज की तरह, श्रमिकों का भी अस्वाभाविक विभाग नहीं पाया जाता। वर्ण भेद केवल श्रमिक विभाग ही नहीं- जो कि श्रम विभाग से एक सर्वथा भिन्न चीज+ है- वरन्‌ यह एक ऐसा श्रेणीबद्ध समाज है, जिसमें श्रमिकों के विभागों को एक दूसरे के ऊपर क्रम से रखा गया है। किसी भी दूसरे देश में श्रम विभाग के साथ-साथ यह श्रमिकों का क्रम विन्यास नहीं।

वर्ण भेद सम्बंधी इस दृष्टिकोण के विरुद्ध एक तीसरी आपत्ति भी है। यह श्रम विभाग स्वयंजात नहीं, इसका आधार स्वाभाविक प्रवणताएं नहीं। सामाजिक और व्यक्तिगत योग्यता चाहती है कि व्यक्ति की समझ को विकसित करके इस योग्य बना दिया जाए कि वह अपने लिये स्वयं व्यवसाय चुन सके। वर्ण भेद में इस नियम को भंग किया गया है, क्योंकि इसमें व्यक्तियों के लिये पहले से ही काम नियत करने का यत्न पाया जाता है।

व्यक्तिगत भावना और व्यक्तिगत पसन्द को इसमें कोई स्थान नहीं। इसका आधार भवितव्यता का सिद्धांत है। सामाजिक योग्यता पर ध्यान देने से हमें इस बात को स्वीकार करने पर विवश होना पड़ेगा कि औद्योगिक पद्धति में सबसे बड़ी बुराई उतनी इससे पैदा होने वाली दरिद्रता और कष्ट नहीं जितनी कि यह बात कि बहुत से लोग ऐसे कामों में लगे हुए हैं जिनमें उनको कोई रुचि नहीं। ऐसे काम निरंतर उनमें घृणा, दुर्भाव और उनका परित्याग करने की लालसा उत्पन्न किया करते हैं। भारत में अनेक ऐसे व्यवसाय हैं, जो हिन्दुओं द्वारा नीच समझे जाने के कारण उन लोगों में, जो उनको कर रहे हैं, उनसे विरक्ति उत्पन्न करते हैं। वे लोग सदा यही चाहते हैं कि हम इन कामों को छोड़ दें और इनको न करें। कारण यह है कि हिन्दू समाज ने इन व्यवसायों पर कलंकित और तिरस्कृत होने का टीका लगा रखा है, इसलिये इनको करने वाले लोग भी तिरस्कृत होते हैं। वह काम क्या उन्नति कर सकता है, जिसके करने वालों के न मन और न हृदय उस काम में लगते हैं? इसलिये एक आर्थिक संगठन के रूप में वर्ण भेद एक हानिकारक संस्था है, क्योंकि यह मनुष्य की प्राकृतिक शक्तियों और प्रवणताओं को सामाजिक नियमों की आकस्मिक आवश्यकताओं के अधीन कर देता है।

वर्ण-भेद रूपी दुर्ग की रक्षा के लिये कुछ लोग जीवतत्व विज्ञान की खाई तैयार किये बैठे हैं। वे कहते हैं कि वर्ण भेद का उद्देश्य रक्त की पवित्रता और वंश की विशुद्धता को बनाए रखना था। अब मानव वंश विज्ञान के पंडितों का मत है कि विशुद्ध वंश के मनुष्य कहीं भी नहीं पाए जाते, संसार के सभी भागों में सभी वंशों की आपस में मिलावट हो गई है। श्रीयुत डी.आर. भाण्डारकर ने अपने ÷हिन्दू प्रजा में विदेशी तत्व' (थ्वतमपहद म्समउमदजे पद जीम भ्पदकन च्वचनसंजपवद) नामक लेख में कहा है कि ÷भारत में शायद ही कोई श्रेणी या वर्ण ऐसा होगा, जिसमें विजातीय अंश न हो। विदेशी रक्त का मिश्रण न केवल लड़ाकू श्रेणियों- राजपूत और मराठों- में ही है, वरन्‌ ब्राह्मणों में भी है, जो कि इस धोखे में है कि हम में कोई विजातीय रक्त नहीं मिला।' यह नहीं कहा जा सकता कि वर्ण भेद वंश के मिश्रण को रोकने या रक्त की शुद्धता को बनाए रखने का साधन था। सच्चाई यह है कि वर्ण भेद भारत की भिन्न-भिन्न जातियों के रक्त और संस्कृति के आपस में मिश्रित हो जाने के बहुत देर बाद प्रकट हुआ था। यह समझना कि वणों का भेद वास्तव में वंशों का भेद है और विभिन्न वर्णों को इतने ही विभिन्न वंश या कुल समझना सच्ची बातों को बहुत बुरी तरह से बिगाड़ना है। पंजाब के ब्राह्मणों में और मद्रास के ब्राह्मणों में क्या वंश सम्बंध है? बंगाल के अस्पृश्यों और मद्रास के अस्पृश्यों में वंश का क्या रिश्ता है? पंजाब के ब्राह्मणों में और पंजाब के चमारों में क्या वंश भेद है? मद्रास के ब्राह्मणों में और मद्रास के परिया में वंश की क्या भिन्नता है? पंजाब का ब्राह्मण वंश की दृष्टि से उसी जाति से है, जिसका कि पंजाब का चमार, और मद्रास का ब्राह्मण उसी वंश का है, जिसका कि मद्रास का परिया या अदूत। वर्ण भेद वंश विभाग को नहीं दिखलाता। वर्ण भेद एक ही वंश के लोगों का सामाजिक विभाग है। परन्तु इसे वंश विभाग मानकर भी प्रश्न उत्पन्न होता है- यदि विभिन्न वर्णों के बीच अंतर्वर्णीय विवाहों द्वारा भारत में रक्त और वर्णों का मिश्रण हो लेने दिया जाता, तो इससे क्या हानि हो सकती थी? निस्संदेह मनुष्य और पशु में इतना गहरा भेद है कि विज्ञान मनुष्यों और पशुओं को दो अलग-अलग वर्ग मानता है। परन्तु वैज्ञानिक भी जो वंशों की शुद्धता में विश्वास रखते हैं- यह नहीं कहते कि भिन्न-भिन्न वंश मनुष्यों के भिन्न-भिन्न वर्ग हैं। वे एक ही वर्ग के प्रकार मात्र हैं। ऐसा होने से वे एक दूसरे में संतान उत्पन्न कर सकते हैं और उनकी संतान बांझ नहीं होती, वरन्‌ आगे बच्चे पैदा कर सकती है।

वर्ण भेद के समर्थन में वंश परम्परा और सुप्रजनन शास्त्र को लेकर बहुत सी मूर्खतापूर्ण बातें कही जाती हैं। यदि वर्ण भेद सुप्रजनन शास्त्र के मौलिक सिद्धांतों के अनुसार हो तो बहुत थोड़े लोग इस पर आपत्ति करेंगे, क्योंकि विवेकपूर्वक जोड़े मिलाकर वंश को सुधारने पर बहुत थोड़े मनुष्य आपत्ति कर सकते हैं। परन्तु यह बात समझ में नहीं आती कि वर्ण भेद से सविवेक विवाह कैसे होते हैं। वर्ण भेद एक ऋणात्मक वस्तु है। यह विभिन्न वर्णों के लोगों को आपस में विवाह करने से केवल रोकता है। किसी एक वर्ण में से कौन दो आपस में विवाह करें, इसके चुनाव की यह कोई निश्चित रीति नहीं है। यदि वर्ण का मूल सुप्रजनन शास्त्र है, तो उवर्णो का मूल भी सुप्रजनन ही होना चाहिये। परन्तु क्या कोई व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक इस बात का प्रतिपादन कर सकता है कि वर्णों के अवान्तर भेदों का मूल भी सुप्रजनन शास्त्र अर्थात्‌ सुन्दर संतान उत्पन्न करने का विज्ञान है? ऐसी बात को सिद्ध करने का यत्न करना बिल्कुल बेहूदगी होगा। यदि वर्ण से तात्पर्य वंश से है, तो उपवर्णों के प्रभेदों का अर्थ वंश के प्रभेद नहीं हो सकता, क्योंकि तब उपवर्ण एक ही वंश के उप विभाग हो जाते हैं। फलतः उपवर्णों में आपस में रोटी-बेटी सम्बंध की रुकावट वंश या रक्त की पवित्रता को बनाए रखने के उद्देश्य से नहीं हो सकती। यदि वर्ण के अवान्तर भेदों का आधार सुप्रजनन शास्त्र नहीं हो सकता, तो इस विवाद में भी कोई तथ्य नहीं हो सकता कि वर्णों का मूल सुप्रजनन शास्त्र है। फिर यदि वर्ण भेद का मूल सुप्रजनन हो, तो अन्तर्वणीय विवाह की रुकावट समझ में आ सकती है। परन्तु वर्णों और उनके अवान्तर भेदों के परस्पर सहभोज पर जो रुकावट लगाई गई है, उसका क्या उद्देश्य है? सहभोज रक्त में दूध का संचार नहीं कर सकता। इसलिये उससे न वंश का सुधार होता है और न बिगाड़। इससे पता लगता है कि वर्ण भेद का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं। जो लोग इसका आधार सुप्रजनन को जानना चाहते हैं, वे उस बात का विज्ञान द्वारा समर्थन करने की चेष्टा कर रहे हैं जो कि सर्वथा अवैज्ञानिक है। जब तक हमें वंश परम्परा के नियमों का सुनिश्चित ज्ञान न हो, आज भी सुप्रजनन शास्त्र क्रियात्मक रूप से सम्भव नहीं हो सकता। प्रो. बेटसन अपनी पुस्तक डमदकमसश्े च्तपदबपचसमे वि भ्मतमकपजल में कहते हैं- ÷उच्चतर मानसिक गुणों के बाप से बेटे में जाने में कोई भी ऐसी बात नहीं, जिससे यह कहा जा सके कि वे प्रेषण की किसी एक पद्धति का अनुसरण करते हैं। अधिक सम्भव यह है कि क्या ये गुण और क्या शारीरिक शक्तियों की अधिक निर्दिष्ट वृद्धियां किसी उत्पत्ति सम्बंधी तत्व की विद्यमानता की अपेक्षा बहुसंख्यक हेतुओं के सन्निपतन का अधिक परिणाम होती हैं।' यह कहना कि वर्ण व्यवस्था सुप्रजनन शास्त्र के अनुसार बनाई गई थी, दूसरे शब्दों में यह मान लेना है कि वर्तमान काल के हिन्दुओं के पूर्वजों को वंश परम्परा का ज्ञान था, जोकि आधुनिक वैज्ञानिकों को भी नहीं है। वृक्ष अपने फल से पहचाना जाता है। यदि वर्ण भेद सुप्रजनन है तो इसने किस प्रकार की नस्ल पैदा की है? शारीरिक रूप से हिन्दू ठिगनों और बौनों की जाति हैं, जिनका न कद है और न बल। यह एक ऐसी जाति है, जिसका 9/10वां भाग सैनिक सेवा के अयोग्य ठहराया जा चुका है। इससे पता लगता है कि वर्ण व्यवस्था में आधुनिक वैज्ञानिकों के सुप्रजनन शास्त्र का कुछ भी आधार नहीं। यह एक ऐसी सामाजिक पद्धति है, जिसमें हिन्दुओं के एक दुष्ट समाज का घमण्ड और स्वार्थपरता भरी पड़ी है। इन दुष्ट लोगों की सामाजिक स्थिति इतनी ऊंची थी और इनको ऐसा अधिकार प्राप्त था कि जिससे वे वर्ण भेद को चला सकते और अपने से छोटों पर लाद सकते थे।

वर्ण भेद से आर्थिक दक्षता नहीं पैदा होती। वर्ण भेदने वंश को न उन्नत किया है और न वह कर ही सकता है। इसने अलबत्ता एक बात की है। इसने हिन्दुओं को पूर्णतः असंगठित और नीति भ्रष्ट कर दिया है। सबसे प्रथम और प्रधान बात, जिसको समझ लेना बहुत आवश्यक है, यह है कि हिन्दू समाज एक काल्पनिक वस्तु है। खुद हिन्दू नाम भी एक विदेशी नाम है। यह नाम मुसलमानों ने यहां के निवासियों को अपने से अलग पहचानने के लिये दिया था। मुसलमानों के आक्रमण के पूर्व के किसी भी संस्कृत ग्रन्थ में इसका उल्लेख नहीं मिलता। शायद उनको एक सामान्य नाम की आवश्यकता का अनुभव ही न होता था, क्योंकि उनको इस बात की कल्पना ही न थी कि हम एक समाज या बिरादरी हैं। इसलिये एक भ्रातृ मण्डल के रूप में हिन्दू समाज का कोई अस्तित्व नहीं। यह तो केवल वर्णों और उपवर्णों का एक संग्रह है। प्रत्येक वर्ण और उपवर्ण अपने ही अस्तित्व का अनुभव करता है। इसको बनाए रखना ही वह अपने अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य समझता है। भिन्न-भिन्न जातें-पातें और वर्ण उपवर्ण कोई संघ भी नहीं बनाते। एक वर्ण कभी यह अनुभव ही नहीं करता कि वह दूसरे वर्णों के साथ सम्बद्ध है, सिवा उस समय के जबकि कोई हिन्दू-मुसलिम फसाद हो। बाकी सब अवसरों पर प्रत्येक वर्ण अपने को दूसरे वर्णों से अलग करने और पृथक दिखाने का प्रयत्न करता है। प्रत्येक वर्ण न केवल अपने ही भीतर खान-पान और ब्याह शादी करता है, वरन्‌ अपने लिये एक पार्थक्य सूचक परिधान भी निर्धारित करता है। यदि यह बात नहीं, तो भारत के स्त्री-पुरुषों के परिधान की असंख्य रीतियों का, जिन्हें देखकर विदेशी पर्यटक हंसते हैं, और क्या कारण है? वास्तव में आदर्श हिन्दू वही है, जो चूहे की भांति अपने ही बिल में बंद रहता है और दूसरों के साथ किसी प्रकार का सम्बंध रखने को तैयार नहीं। जिसे समाज शास्त्र की परिभाषा में ÷जाति की चेतना' कहा जाता है, उसका हिन्दुओं में सर्वथा अभाव है। हिन्दू अनुभव ही नहीं करते कि हम एक जाति हैं। प्रत्येक हिन्दू में जो चेतना पायी जाती है, वह उसके अपने वर्ण की चेतना है। इसी कारण से हिन्दू एक समाज या एक राष्ट्र नहीं कहला सकते। परन्तु अनेक भारतीय ऐसे हैं, जिनकी देशभक्ति उन्हें यह स्वीकार करने की आज्ञा नहीं देती कि भारतीय कोई एक राष्ट्र नहीं, वरन्‌ एक जनता का आकारहीन ढेर हैं। वे आग्रह करते हैं कि इस बाहर से दीखने वाली विभिन्नता के नीचे मौलिक एकता मौजूद है, जिसका प्रमाण यह है कि भारत के इस महाद्वीप में सर्वत्र हिन्दुओं के स्वभाव और रीतियां, विश्वास और विचार एक जैसे हैं। परन्तु फिर भी कोई मनुष्य इस परिणाम को स्वीकार नहीं कर सकता कि हिन्दुओं का एक समाज है। हिन्दुओं को एक समाज मानना समाज को बनाने वाली आवश्यक बातों को गलत समझना है। शारीरिक रूप से एक दूसरे के निकट रहने से ही मनुष्य एक समाज नहीं कहला सकते, नहीं तो यह भी मानना पड़ेगा कि दूसरे मनुष्यों से कई सौ मील दूर चले जाने से मनुष्य अपने समाज का सदस्य नहीं रह जाता। दूसरे, स्वभावों और रीतियों, विश्वासों और विचारों में सादृश्य का होना मनुष्यों को एक समाज बनाने के लिये पर्याप्त नहीं है। ईंटों की तरह वस्तुओं को एक से दूसरे तक पहुंचाया जा सकता है। इसी प्रकार एक मनुष्य समूह के स्वभाव और रीतियां, विश्वास और विचार दूसरा मनुष्य समूह ले सकता है, जिससे दोनों में सादृश्य दीख सकता है। संस्कृति प्रसार द्वारा फैलती है। यही कारण है जो हम विविध आदिम जातियों में, स्वभावों और रीतियों, विश्वासों और विचारों के विषय में, सादृश्य पाते हैं, यद्यपि वे एक-दूसरे के पास नहीं रहतीं। परन्तु यह कोई नहीं कह सकता कि क्योंकि उनमें यह सादृश्य था, इसलिये आदिम जातियों का एक समाज था। समाज उन्हीं लोगों का बनता है, जिनके पास वे चीजें होती हैं जिनपर उन सबका साझे का अधिकार होता है। वैसी ही चीजें रखना चीजों पर साझे का अधिकार रखने से सर्वथा भिन्न बात है। एकमात्र रीति जिससे मनुष्य एक दूसरे के साथ वस्तुओं पर साझे का अधिकार रख सकते हैं, वह एक दूसरे के साथ सहचरता या मनोभाव का आदान-प्रदान दूसरे शब्दों में समाज का अस्तित्व मनोभाव के आदान-प्रदान द्वारा, वरन्‌ आदान-प्रदान में ही रह सकता है। इसे तनिक अधिक स्पष्ट करना हो तो कह सकते हैं कि मनुष्य का दूसरों के कार्यों के अनुकूल ढंग से कार्य करना ही पर्याप्त नहीं। अनुरूप कर्म चाहे एक सदृश भी हो, वह मनुष्यों को इकट्ठा करके समाज बनाने के लिये पर्याप्त नहीं। इसका प्रमाण यह है कि यद्यपि हिन्दुओं के भिन्न-भिन्न वर्णों और और उपवर्णों सबके पर्व एक ही हैं, तो भी विभिन्न वर्णों के एक जैसे पर्वों को अनुरूप रीति से मनाने से हिन्दू जुड़कर एक अखण्ड समाज नहीं बने। इसके लिये जिस बात की आवश्यकता है वह है मनुष्य का एक सांझे के कार्य में भाग लेना, ताकि उसमें वही मानसिक आवेग जाग्रत हो, जो दूसरों को उत्साहित कर रहा है। किसी सम्मिलित कार्य में किसी व्यक्ति को भागीदार या साझी बनाना, जिससे वह उस कार्य की सफलता को अपनी सफलता और उसकी विफलता को अपनी विफलता समझे, यही एक सच्ची चीज है जो मनुष्यों को इकट्ठा करती और उनका एक समाज बनाती है। वर्ण भेद साझे के काम को रोकता है और साझे के काम को रोककर इसने हिन्दुओं को एकीभूत जीवन वाला और अपने अस्तित्व का अनुभव करने वाला समाज बनने से रोक दिया है।

न केवल यही कि हिन्दुओं ने जंगलियों को सभ्य बनाने जैसे मानव हित के काम के लिये कोई यत्न नहीं किया, वरन्‌ हिन्दुओं के ऊंचे वर्णों ने जानबूझकर अपने से छोटे वर्ण के दूसरे हिन्दुओं को उन्नति करके उच्च वर्ण के सांस्कृतिक समतल पर पहुंचने से रोका है। मैं यहां दो उदाहरण देता हूं, एक सोनारों का और दूसरा पठारे प्रभुओं का। दोनों जातियां महाराष्ट्र में बहुत प्रसिद्ध हैं। अपनी सामाजिक स्थिति को ऊंचा करने की इच्छुक दूसरी बिरादरियों की तरह, ये दो बिरादरियां भी एक समय ब्राह्मणों की कुछ रीतियां और स्वभाव ग्रहण करने का यत्न कर रही थीं। सोनार अपने को दैवज्ञ ब्राह्मण कहते थे, धोती की लांग तह लगाकर बांधते और अभिवादन में ÷नमस्कार' शब्द का प्रयोग करते थे। धोती को तह करके बांधना और ÷नमस्कार' कहना, ये दोनों रीतियां केवल ब्राह्मणों की ही थीं। सुनारों का इस प्रकार अनुकरण करना और ब्राह्मण बनने का यत्न करना ब्राह्मणों को बुरा लगा। पेशवाओं की राजाज्ञा से उन्होंने सोनारों के ब्राह्मणों की रीतियों को ग्रहण करने के इस यत्न को सफलतापूर्वक दबा दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मुम्बई में इस्ट इंडिया कम्पनी की सेटलमेंट की कौंसिल के प्रेजिडेंट से भी मुम्बई में रहने वाले सोनारों के नाम एक निषेधात्मक आज्ञा निकलवा दी।

एक समय था, जब पठारे प्रभुओं में विधवा विवाह की प्रथा प्रचलित थी। विधवा विवाह की प्रथा सामाजिक हीनता का चिन्ह समझी जाती थी, विशेषतः इसलिये, क्योंकि ब्राह्मणों में इसका रिवाज नहीं था। अपनी जाति की सामाजिक स्थिति को ऊंचा करने के उद्देश्य से कुछ पठारे प्रभुओं ने अपनी जाति में विधवा-विवाह की प्रथा को बंद कर देना चाहा। इसपर जाति में दो दल हो गए, एक विधवा विवाह के पक्ष में और दूसरा उसके विरुद्ध। पेशवाओं ने उस दल का पक्ष लिया, जो विधवा विवाह के समर्थक थे और इस प्रकार पठारे प्रभुओं को कार्यतः ब्राह्मणों की प्रथा का अनुकरण करने से मना कर दिया। हिन्दू मुसलमानों को उलाहना देते हैं कि उन्होंने अपना धर्म तलवार के जोर से फैलाया है। वे ईसाई धर्म की भी इंक्वीजीशन के कारण हंसी उड़ाते हैं। परन्तु वास्तव में दोनों में से कौन अच्छा और कौन सन्मान के अधिक योग्य हैं- मुसलमान और ईसाई, जो न मानने वाले लोगों के गले में वह वस्तु बरबस ढूंसते थे जिसे वे उनकी मुक्ति के लिये अच्छा समझते थे, या हिन्दू जो ज्ञान का प्रकाश फैलाने को तैयार नहीं थे, जो दूसरों को अंधेरे में रखने का यत्न करते थे, और दूसरे लोगों को अपने बौद्धिक और सामाजिक उत्तराधिकार में से भाग देने को राजी न थे, हालांकि वे लोग उसे अपनी बनावट का एक अंग बनाने को तैयार और राजी थे? इस दृष्टि से यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि मुसलमान यदि निर्दय थे, तो हिन्दू नीच, और नीचता निर्दयता से बुरी है।