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विविध
चलता-पुर्जा स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       डॉ0 धनीराम प्रेम
बुलन्दशहर जिले में राजघाट नामक एक छोटा सा कस्बा है। छोटा होने पर भी इसे आसपास बड़ा महत्त्व दिया जाता है, क्योंकि यह गंगा किनारे बसा हुआ है। स्थान रमणीक है। प्रति पूर्णिमा को मेला लगने से वहां पर काफी भीड़ इक्ट्ठी हो जाती है।

आसपास अलीगढ़ एक बड़ा शहर है। इसलिए वहां से राजघाट जानेवालों की संख्या काफी बड़ी होती है। गर्मियों में जो लोग पहाड़ों पर नहीं जा सकते, वे राजघाट जाकर ही ठण्डे हो आते हैं। जब स्कूल और कालेज बन्द हो जाते हैं या परीक्षायें समाप्त हो जाती हैं, तब अनेक विद्यार्थी तथा मास्टर जी राजघाट जाकर कुछ दिनों के लिए आसन जमाते हैं।

सन्‌ जून महीना था। परीक्षायें समाप्त हो चुकी थीं। स्कूल बन्द हो चुके थे। अलीगढ़ से राजघाट जाने के लिए दस आदमियों की एक पार्टी रात की गाड़ी से चल पड़ी। उस पार्टी में दो तो विद्यार्थी थे, जो हाल में मैट्रिक की परीक्षा दे चुके थे। दोनों ही परीक्षा के अखाड़े के पुराने पहलवान थे। चार-पांच बार कुश्ती हार चुके थे। घरवालों ने कई बार कहा था कि पढ़ना छोड़कर घर बैठो। मैट्रिक पास करके ही कौन-सा बड़ा भारी ओहदा मिल जायेगा। लेकिन वे कह देते कि हम नौकरी के लिए तो पढ़ ही नहीं रहे। हम तो बस मैट्रिक पास होना-भर चाहते हैं, नाम एक का रामलाल था, दूसरे का काशी।

तीसरे और चौथे, पांचवें और छठे सज्जन इण्टर मीडिएट परीक्षा में बैठे थे। ये इतने पुराने खिलाड़ी नहीं थे। लेकिन हां, परीक्षा का इन्हें भी काफी अनुभव हो चुका था। एक के चाचा रेलवे में नौकर थे। उन्होंने आश्वासन दिया था कि तुम बस इण्टर पास कर लो। फौरन्‌ एक जगह रेलवे में दिला दूंगा। इनका नाम दुलारे। चौथे को भी एक ओर से ऐसी ही आशा मिल चुकी थी। इनका नाम था परमानन्द।

सातवें, आठवें और नवें; ये तीनों ही मैट्रिक पास थे, लेकिन आजकल महकमा बेकारी में थे। इनमें से एक बड़े हरफन मौला थे। नाम था प्यारेलाल। कई कम्पनियों के इधर-उधर घूमकर काम करने वाले ऐजेण्ट भी रह चुके थे। बातें करने में काफी कमाल हासिल था। मैट्रिक फेल होने वाला रामलाल इनका भतीजा था।

पार्टी के दसवें सदस्य थे एक वकील। वकालत पास किये आपको लगभग 20 वर्ष हो गये थे, लेकिन वकालत जमने का नाम ही न लेती थी। कई बार पक्का इरादा कर चुके थे कि वकालत को तिलांजलि दे दें, लेकिन फिर कुछ सोच-समझकर उस विचार को त्याग देते। लोग समझाते थे कि जब तक कहीं नौकरी न मिले, तब तक ऐसा करना ठीक नहीं। क्योंकि थोड़ी-बहुत जो कुछ भी आमदनी होती है, वह भी हाथ से जायेगी और लोगों में वकालत न चलने की बदनामी होगी, वह अलग। बदनामी तो वैसे भी थोड़ी-बहुत होती ही थी। लेकिन पे्रक्टिस छोड़ देने से तो कलई बिलकुल ही खुल जायेगी। हां, अगर नौकरी मिलने पर प्रेक्टिस छोड़ेंगे तो कहने को हो जायेगा, भई नौकरी के लिए फलां दफ्तर वाले बहुत पीछे पड़े। खुद बड़ा अफसर पीछे पड़ा कि काम संभाल लो। इसलिए वकालत को बलिदान करना पड़ा। इस मनोकामना की पूर्ति के लिए तरह-तरह के प्रयत्न किये गये, लेकिन सब बेकार। अभी तक कहीं भी सुनवाई न हुई। यही नहीं, आप बचपन में अपने सुपुत्र के ऊपर आशा लगाये बैठे थे। परन्तु वह मैट्रिक से निकलने का नाम भी न लेता था। काशी इन्हीं बाबू देवीसाहय का सुपुत्र था।

पार्टी सकुशल राजघाट पहंच गयी। पार्टी के सदस्य केवल एक दिन ठहरने के लिए आये थे। अतः किसी धर्मशाला आदि में जाये बिना ही सब बिहारघाट की ओर चल दिये। बिहारघाट रेल की दूसरी ओर राजघाट के पास ही एक छोटी सी बस्ती है, जो हाल ही में बसी थी। शौचादि से निवृत्त होकर इन लोगों ने यह निश्चय किया कि स्नान राजघाट चलकर किया जाये। गंगा किनारे-किनारे ही चलने वाली पगडण्डी उन्होंने पकड़ी और घण्टे भर में राजघाट पहुंच गये। राजघाट की शान इस समय निराली ही थी। गंगा के किनारे खासा मेला लगा हुआ था। साधु-सन्तों का भी काफी जमघट था। गंगाजी के बीच में भी कई प्रकार का जमघट था। जिधर स्त्रियां स्नान करती थीं, उधर जरा भीड़ काफी रहती थी। बहुतेरे आदमी तो चलते-फिरते भी वहां पहुंचकर अपनी चाल अत्यन्त धीमी कर लेते थे और निर्निमेष नेत्रों से सुन्दरियों की जल-क्रीड़ा देखते जाते थे। बहुतेरे मनचले गंगाजी के गर्भ में गोता लगाकर फिर अपना सिर सुन्दरियों के सामने ही निकालते थे।

पार्टी के नवयुवक सदस्य भी शायद उधर ही स्नान का प्रबन्ध करते, परन्तु साहब की उपस्थिति इसमें बाधक बनी। खैर, वहां से सब उधर आये, जिधर बिलकुल पुरुष ही पुरुष स्नान कर रहे थे। दो आदमी किनारे पर वस्त्रों की देखभाल करते रहे। बाकी स्नान के लिए गंगा जी में कूद पड़े।

स्नान करते समय तीन-चार उधर पहुंच गये, जहां दस-पन्द्रह व्यक्तियों सहित एक भले मानुस स्नान कर रहे थे। वहां नहाते-नहाते इनमें कुछ बातचीत भी होने लग गयी।

रामलाल बोला- यार काशी, जरा गंगा जी में गोता लगाकर यह प्रार्थना कर लें कि गंगामाई अबकी बार तो मैट्रिक से उद्धार कर दे।

'अगर गंगा जी मैट्रिक से उद्धार कर दें, तो एक गोता क्या, महीनों ऐसा गोता लगाऊं कि निकलने का नाम न लूं।' काशी ने उत्तर दिया।

काशी अपना उत्तर समाप्त कर ही पाया था कि पास ही नहाने वाले भले मानुस उधर ही आ गये और काशी की ओर 'देखकर बोले-

आप लोग स्टूडेण्ट्स मालूम होते हैं?'

'जी हां।' काशी ने उत्तर दिया।

'मैट्रिक के इम्तिहान में बैठे हो?'

'जी हां।'

'कहां के स्कूल से बैठे थे?'

'अलीगढ़।'

इतनी बातें जब तक हुईं, तब तक प्यारेलाल भी उधर ही आ गये और काशी की बात समाप्त होते ही उन महाशय से पूछने लगे-

'क्यों साहब, आप इन सब बातों को किस मतलब से पूछ रहे हैं?'

'मतलब कुछ नहीं, जरा दिलचस्पी है।'

'आखिर दिलचस्पी का भी कोई कारण होना ही चाहिए।'

'दिलचस्पी का कारण यही है कि ज्योमेट्री की कापियां मेरे ही पास हैं।

उनका इतना कहना था कि सन्नाटा छा गया। सब उनकी ओर कौतूहल से देखने लगे। काशी और रामलाल सन्न हो गये। सोचने लगे कि कहीं उन्होंने किसी तरह की असभ्यता दिखाकर उन्हें नाराज तो नहीं कर दिया। प्यारे मन ही मन पछता रहे थे कि क्यों उन्होंने उन सज्जन से जरा कठोरता से बातें पूछीं। आखिर कुछ देर मन ही मन इस बात का पश्चाताप करके प्यारे लाल ने बड़ी नम्रता से कहा-

'माफ कीजिए, मुझे नहीं मालूम था कि आप मैट्रिक के परीक्षक हैं।'

'इसमें माफी की क्या बात? क्या मेरे सर पर परीक्षक की निशानी है।'

'फिर भी गुस्ताखी से पेश आने के लिए दिल में मलाल तो होता ही है।'

'अजी छोड़िये भी इन बातों को। राजघाट पर आकर इतना तकल्लुफ करना ठीक नहीं। मैं तो अपने विद्यार्थियों से भी बराबर का बर्ताव करता हूं।'

'आप कहां पर पढ़ाते हैं?'

'मैं पीलीभीत कालेज में प्रोफेसर हूं।'

'शायद गणित के?'

'हां, इसलिए तो ज्योमेट्री का पर्चा मुझे मिला है। इस साल एफ0ए0 के लिए भी मैं गणित का परीक्षक हूं।'

ये बातें सुनकर मैट्रिक और एफ0ए0 के विद्यार्थियों के मुंह में पानी भर आया। प्यारे लाल कुछ रिरियाकर प्रोफेसर साहब से बोले-

'हम लोगों के भाग्य चमक गये कि आपके इस तरह दर्शन हुए। राजघाट में कितने दिनों निवास रहेगा?

'कह नहीं सकता, कब तक रह सकूंगा। मेरे चाचा एसेम्बली मेम्बर हैं। उन्होंने कई बार शिमला आने के लिए लिखा है। उधर नैनीताल में मामा डिप्टी कलक्टर हैं, वह भी गर्मियां वहीं बिताने के लिए लिख रहे हैं। बहरहाल दो-चार दिन तो रहने का इरादा है ही! आप लोग यहां कितने दिनों के लिए आये हैं?'

'हम लोग तो आज ही के लिए आये हैं।'

'तो क्या शाम को सब लोग चले जाओगे?'

'औरों की बात तो मैं नहीं कह सकता। लेकिन जाने का इरादा होने पर भी मैं यहां दो-एक दिन और रहूंगा।'

'तो फिर शाम को मिलिये। पुल के पास ही जो मकान है, वह मैंने ले रखा है। वहां किसी से भी प्रोफेसर गुप्ता को पूछ लीजिये।'

'मैं जरूर मिलूंगा।'

इतना कहकर प्रोफेसर साहब से प्यारेलाल ने हाथ मिलाया और वहां से सबको लेकर जरा हटकर नहाने लगे।

इस बात से कि गणित के परीक्षक प्रोफेसर गुप्ता हैं और वह राजघाट ही हैं, पार्टी में तहलका मच गया। सब यह कोशिश करने लगे कि किसी तरह उनकी जान-पहचान प्रोफेसर साहब से हो जाये, तो कुछ पास होने का सिलसिला जमे। अन्त में यह सलाह हुई कि प्यारे लाल अकेले ही शाम को प्रोफेसर साहब से मिलें। और मेल बढ़ जाने के बाद उनसे परीक्षार्थियों के विषय में बातचीत करें।

शाम को सब लोग तो गंगा के किनारे पहुंच गये और प्यारेलाल प्रोफेसर साहब से मिलने के लिए गये। जिस समय प्यारेलाल वहां पहुंचे, प्रोफेसर साहब की चाय की तैयारी हो रही थी। उन्हें देखते ही बड़े तपाक से मिले और बोले-

'आप अच्छे वक्त पर आये। चाय भी तैयार हो रही है।'

'चाय की तकलीफ आप क्यों करते हैं। आप-जैसे महानुभावों के दर्शन हो जायें, यही बड़ी बात है।' प्यारेलाल ने अत्यन्त विनम्रता से कहा।

'अजी कोरे दर्शनों से आजकल कुछ नहीं होता। अरे छिद्दा, जरा चाय ज्यादा बनाना और कुछ मिठाई वगैरह भी साथ में हो!'

यह कहकर प्रोफेसर साहब कपड़े बदलने लगे और साथ ही प्यारेलाल से बातें भी करने लगे। बीच में एक बहुत बढ़िया सिगार पीने को दी। बात-बात में माफी मांगते जाते। कभी कहते, आपको तकलीफ तो नहीं रही है, आराम से बैठिये। कभी कहते, यहां तो किसी की खातिर-तवाजा ही नहीं कर सकते। अपना घर हो, तो सौ बातें की जा सकती हैं।

प्यारेलाल प्रोफेसर साहब की बातों से गद्गद हो रहे थे। मानो उनसे कोई साक्षात्‌ देवता ही बातें कर रहा हो। इतने में चाय आयी। बड़े तकल्लुफ के साथ। मिठाइयां, नमकीन, दही बड़े, मलाई का बरफ, चाय, बिस्कुट।

प्यारे लाल बोझ से दबे जा रहे थे। सोच रहे थे कि यह व्यक्ति मृत्यु लोक में रहने योग्य नहीं, किसी ने भूल से ही उसे यहां भेज दिया है। आजकल इतने बड़े आदमियों से छोटा सा काम निकालने के लिए भी दावतें देनी पड़ती हैं, डाली भेजनी पड़ती हैं और न जाने कितनी खुशामद करनी पड़ती है। लेकिन यह एक आदमी है, जो खुद खातिर करता है।

चाय समाप्त हुई तो प्रोफेसर साहब ने गंगा के किनारे घूमने का प्रस्ताव किया। प्यारे लाल भी पीछे-पीछे चल दिये। गंगा के किनारे पहुंचे तो प्यारेलाल के सभी साथी वहां मौजूद थे। उन्हें देखते ही प्रोफेसर साहब बोले-

'अरे, आप लोग अभी यहीं हैं। मैंने समझा था कि आप सब चले गये हैं।'

'जाने का विचार तो था, लेकिन मैंने इन सबको रोक लिया। आपके दर्शन कब-कब मिलेंगे।' प्यारेलाल ने उत्तर दिया।

'तो इन सबको मेरे यहां साथ लाना था।'

'इतनी भीड़ के पहुंचने से आपको तकलीफ होती।'

'वाह, इसमें तकलीफ कैसी? मुझे तो बहुत आदमियों का साथ ही अच्छा लगता है। जब कभी मैं अपने रिश्तेदारों के यहां जाता हूं, तो मिलने वालों का तांता लग जाता है और मुझे इससे बड़ी खुशी होती है।'

'यह सब आपकी शराफत के कारण है। जहां भी आप खड़े हो जायें, वहीं आपका सत्कार करने वाले सैंकड़ों तैयार हो जायें। सारे राजघाट में आपके नाम की चर्चा है।'

इतने ही में एक नाव किनारे पर आकर लगी। नाव वाला चिल्लाने लगा, 'नाव में सैर कीजिए।'

उसकी बात सुनकर प्रोफेसर साहब ने इशारे से उसे बुलाया और पूछा -

'क्या लेता है?'

'एक आना सवारी!'

'सवारी का हिसाब नहीं, पूरी नाव का बोल।'

'पूरी नाव का एक रुपया दे दीजिये।'

'अच्छा, ले यह रुपया। जो भी यहां खड़े हैं, सबको बिठा।'

यह कहकर उन्होंने एक रुपया जेब से निकाला और नाव वाले के हवाले कर दिया। फिर खुद नाव पर सवार हो गये। पीछे-पीछे प्यारे लाल और उनके साथी भी जा बैठे। इधर-उधर चार-छः और आदमी खड़े थे, उन्हें भी बुला लिया गया। लोग इनकी इस दरियादिली पर बागबाग हो रहे थे- वास्तव में किसी बड़े घराने का लड़का है, नहीं तो आजकल किस की छाती में दम है। इसे तो किसी महाराजा के घर में जन्म लेना चाहिए था।

लगभग आधे घण्टे तक नाव गंगा जी में घूमती रही। अब किनारे पर लगी, तो प्रोफेसर साहब ने चार आने मल्लाह के हाथ पर और रख दिये। वह झुक-झुककर बलायें लेने लगा।

नाव से नीचे उतरे तो एक ब्राह्मण सामने आकर भीख मांगने लगा।

'पैसा तो नहीं, हम तुझे खाना खिला सकते हैं!' प्रोफेसर साहब बोले।

'खाना ही दे दीजिये, सरकार।

और ब्राह्मण को साथ लेकर वह हलवाई की दुकान पर पहुंचे। वहां ब्राह्मण ने आध सेरी पूरी, आध सेर मिठाई और दो पैसे का दही खाया। प्रोफेसर साहब बड़ी लापरवाही से उसके पैसे चुकाकर आगे बढ़ गये। पीछे-पीछे प्यारेलाल की पार्टी उनकी सराहना करने लगी।

दूसरे दिन पार्टी तो वापिस चली गई। सिर्फ प्यारेलाल ही वहां प्रोफेसर साहब से परीक्षा के भेद पूछने और लोगों की सिफारिश करने के लिए वहां रह गये। शाम के वक्त वह प्रोफेसर साहब से मिलने गये, इस इरादे से कि दूसरे दिन उनकी दावत करें और फिर उसके बाद अपने मतलब की बात करें। हालांकि वहां घर न होने से प्यारे लाल वैसी खातिर नहीं कर सकते थे, जैसी इतने बड़े आदमी की होनी चाहिए। लेकन उन्होंने एक अच्छे हलवाई से इसके लिए बातचीत कर ली थी।

प्यारे लाल के मुंह से दावत के निमन्त्रण की बात सुनते ही प्रोफेसर साहब मुसकराते हुए बोले-

'वाह जनाब, इससे अच्छी और कौन सी बात होगी। नेकी और पूछ-पूछ! लेकिन दावत होगी कहां?'

'यहीं।'

'मैंने समझा था अलीगढ़ में होगी।'

'अलीगढ़ में तो फिर होगी, अगर हमारी किस्मत अच्छी हुई तो। लेकिन इस वक्त तो रुखी-सूखी यहीं होगी।'

'क्या-क्या खिलाइयेगा?'

'आपके लायक यहां सामाान तो नहीं हो सकता। हां, हलवाई से-'

'हलवाई से? तो आप पूरी-मिठाई खिलाने की फिक्र में हैं क्या?'

'इन्तिजाम तो ऐसा ही किया है।'

'अजी आप भी कैसी बातें करते हैं! भला गंगा जी के किनाने भी पूरी-मिठाई की दावत होगी?'

'फिर जो हुक्म हो।'

'दालबाटी कराइये।'

'बहुत अच्छी बात है। दो-चार आदमियों की दाल-बाटी में इन्तिजाम ही क्या करना है।'

'दो-चार आदमियों की? अजी जनाब, मैं जब दालबाटी बनाता हूं तो बीस-पच्चीस आदमी हो जाते हैं। आप जानते हैं, सैंकड़ों साहिबान से यहां रीत-चलत हो गया है कि साथ के लिए दस-बीस बुलाना तो जरूरी हो ही जाता है।

'कोई परवाह नहीं, जितने आदमियों के लिए आप कहें, उतने का ही इन्तिजाम हो जायेगा।'

और दूसरे दिन प्यारेलाल को चालीस आदमियों को दावत खिलानी पड़ी। दावत के बाद उन्होंने अपने मतलब की बात छेड़ी। सुनते ही प्रोफेसर साहब बोले-

'वाह, यह बात तुमने पहले ही क्यों नहीं कह दी? इतने तकल्लुफ की आखिर क्या जरूरत थी?'

'जरा झिझक लगती थी।'

'इसमें झिझक की क्या बात है? अगर मुझ से किसी का भला हो जाये, तो बड़ी खुशी की बात है। हां, तो तुमने जिनके बारे में पूछा है, उनमें से एक तो पास है, दो कुछ कमजोर हैं, लेकिन मैं उन्हें पास करा दूंगा। रहा एक, सो उसके लिए जरा मामला मुश्किल है।'

एक सप्ताह के बाद प्रोफेसर साहब प्यारे लाल के साथ अलीगढ़ की तरफ चल दिये। राजघाट स्टेशन पर प्यारे लाल ने देखा कि वहां के बाबू प्रोफेसर साहब की बड़ी खातिर कर रहे थे। देखते ही कुर्सी से उठ बैठे। एक कुली को बुलाकर पंखा झलवाने लगे। शरबत पिलाया गया। और जब गाड़ी आ गयी तो फर्स्ट क्लास में आकर दोनों को बिठा गये। प्यारे लाल के ऊपर इसने बड़ा प्रभाव डाला। प्रोफेसर साहब के बड़ेपन में उन्हें कोई सन्देह न रह गया।

गाड़ी में बैठते ही प्रोफेसर साहब की नजर प्यारेलाल के हाथ की ओर गयी। उंगली में सोने की एक कीमती अंगूठी थी। प्रोफेसर साहब उसे देखकर बोले-

'यह अंगूठी तो बड़ी खूबसूरत है। कहां बनवायी थी?'

'आपको पसन्द है तो ले लीजिये।'

'मुझे अपने लिए नहीं चाहिए। मेरे एक दोस्त की शादी है, उसी के उपलक्षय में भेंट भेजना चाहता था।'

'अलीगढ़ चलकर बनवा दूंगा।'

'कब तक बन जायगी?'

'चार-पांच दिन लग जायेंगे।'

'चार-पांच? यह तो ठीक न रहेगा। मैं तो कल ही भेजना चाहता हूं।'

'तो आप इसे भेज दीजिये। मैं दूसरी बनवा लूंगा।'

'लेकिन तुम्हें इसकी पूरी कीमत लेनी होगी।'

'कीमत की आप फिक्र क्यों करते हैं? जब जी चाहे तब ले लूंगा।'

यह कहकर प्यारेलाल ने अंगूठी दे दी और मन में बड़े खुश थे कि चलो देवता ने भेंट तो स्वीकार कर ली।

राजघाट स्टेशन से प्यारेलाल ने वकील साहब को तार भेज दिया था कि प्रोफेसर साहब आ रहे हैं उनके ठहरने का प्रबन्ध आप ही के घर में होना चाहिए। वकील साहब को तार पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। बड़ा भाग्य समझो जो ऐसा अवसर हाथ में आया। जब प्रोफेसर उन्हीं के मेहमान होंगे तो अपने लड़के को पास करा लेना कोई बड़ी बात न होगी। इसी विचार से उन्होंने प्रोफेसर साहब के स्वागत की खूब तैयारियां कीं। समय अधिक नहीं था। इसलिए अधिक न हो सकता था। फिर भी जहां तक हो सकता था, उन्होंने किया। एक अव्वल दर्जे की फिटन मांगकर स्टेशन पर पहुंच गये। न जाने कैसे, अन्य परीक्षार्थियों के कानों में भी यह बात पहुंच गयी थी, अतः गाड़ी के आने के समय किसी के पिता, किसी के भाई, किसी के चाचा आदि स्टेशन पर पहुंच गये थे।

स्टेशन पर यह समारम्भ देखकर प्यारे लाल तो खुश हो गया। प्रोफेसर साहब बोले-

'क्या तुमने जादू से कुछ मन्त्र फूंक दिया था कि सबको मेरे आने की बात मालूम हो गयी? इन सबको तकलीफ देने की क्या जरूरत थी? यहां पहुंचकर मैं सबसे खुद ही मिल लेता।'

वकील साहब सामने आकर बोले-

'ऐसे मौके जिन्दगी में कब आते हैं, प्रोफेसर साहब! असल में आपका स्वागत करने के लिए तो हमें राजघाट तक पहुंचना चाहिए था।'

प्रोफेसर साहब हंस दिये। उनके व्यवहार पर सभी मुग्ध थे। सब वकील साहब के घर पर पहुंचे। दावत हुई। दावत की सराहना प्रोफेसर साहब ने की, इसी से समझ लेना चाहिए कि दावत सफल रही।

कुछ देर अकेले में बात करने का प्यारेलाल को सुयोग मिला। प्रोफेसर साहब ने पूछा-

'मालूम होता है, वकील साहब की वकालत कुछ अच्छी नहीं चलती।'

न जाने वकील साहब इस बात को सुन रहे थे, छूटते ही एक तरफ से आकर उत्तर दिया-

'चलती क्या! आजकल वकालत का पेशा बड़ा खराब हो गया है। और मुझ जैसे ईमानदार के लिए इस बेईमानी के पेशे में चमकना मुश्किल ही मालूम होता है।'

'मालूम होता है आप इस पेशे को पसन्द नहीं करते।'

'बिलकुल नहीं साहब! अगर पचास रुपये महीने पर भी कोई और काम मिल जाए, तो इस पर लानत भेज दूं।

'तो यह कौन मुश्किल बात है। आप अगर तैयार हों, तो कल ही आपको 300 महीने की जगह मिल सकती है,

'तीन सौ रुपये महीने की?'

'हां, हां, साहब, तीन सौ रुपये महीने की, और वह भी रेलवे में।'

'लेकिन मेरी ऐसी किस्मत कहां। आजकल तो नौकरी सिफारिश से मिलती है। और सिफारिश के नाम पर तो इधर सिफर हैं।'

'यह तो ठीक है, लेकिन मेरे रहते हुए सिफारिश की कोई कमी नहीं। मेरे मौसा रेलवे में एकाउण्टेण्ट जनरल हैं। उनसे आपको मिला दूंगा।

'आप इतनी तकलीफ करेंगे?'

'इसमें तकलीफ क्या है? यह तो बड़ी खुशी की बात होगी।'

'अगर ऐसा हो जाये, तो मैं हमेशा अपका एहसान मन्द रहूंगा।

'अजी अगर आप कल ही देहली चलना चाहें, तो चलिये, मैं आपको मौसा जी से मिला दूं।'

'मैं तो चलने को तैयार हूं, लेकिन आपको शायद इस वक्त फुरसत न हो।'

'मेरी कुछ भी फिक्र न कीजिये।'

दूसरे दिन प्रोफेसर साहब के साथ वकील साहब देहली के लिए रवाना हो गये। उस दिन उन्होंने अपना सबसे अच्छा सूट पहन लिया था। जब रेलवे के एक दफ्तर के सामने पहुंचे तो प्रोफेसर ने वकील साहब से कहा-

'आप कुछ देर यहीं खड़े रहिये। मैं देखकर आता हूं कि मौसाजी वहां हैं या नहीं।'

यह कहकर आप अन्दर पहुंचे। उस विभाग के इंचार्ज के पास जाकर प्रोफेसर ने आदाब किया और बोले-

'लीजिये, जनाब, जिन जज साहब के बारे में मैंने पिछली मर्तबा जिक्र किया था, उन्हें ले आया हूं।

'वही, जिनसे कहकर मेरे लड़के को नौकरी दिलवायेंगे?'

'हां।'

'वह कहां हैं?'

'बाहर हैं। कहो तो अन्दर ले आऊं।'

'हां, हां, जरूर ले आइये।'

'लेकिन इस वक्त आप उनसे जगह के बारे में कुछ भी न कहें। मैंने उनसे सब-कुछ तय कर लिया है।'

'अच्छी बात है।' यह कहकर इंचार्ज ने सौ रुपये का नोट उनकी जेब में डाल दिया।

बाहर जाकर प्रोफेसर ने वकील साहबसे कहा-

'देखिये, मैं आपके बारे में उनसे सब-कुछ कह आया हूं। आप उनसे नौकरी के बारे में कुछ भी न कहें।'

'लेकिन वह मुझसे मिल तो लेंगे न?'

'हां, उसके लिए तो मैंने राजी कर लिया। आप वहां कुछ बोलिये नहीं। न जाने मुंह से क्या निकल जाये और काम मुफ्त में ही बिगड़ जाय।'

'मैं बिलकुल चुप रहूंगा।'

भीतर जब वकील साहब पहुंचे, तो बहुत डरते हुए घबराये हुए से। और यही हालत इंचार्ज की थी। वकील साहब डर रहे थे, कि मौसा नाराज न हो जायें। इंचार्ज डर रहा था, कहीं जज साहब नाराज न हो जायें। अन्त में इंचार्ज ने कहा-

'मुझे आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई, जज साहब!'

यह सुनकर वकील साहब को आश्चर्य हुआ। उन्होंने प्रोफेसर की ओर देखा। प्रोफेसर ने दोनों की ओर इस प्रकार इशारा किया कि दोनों चुप हो गये। दो मिनट इधर-उधर की बातें होकर बाहर निकले। बाहर निकलते ही वकील साहब ने कहा-

'उन्होंने मुझसे जज साहब कैसे कह दिया?'

'यही तो उनमें बड़ी खराबी है। कुछ दिन पहले मैं एक जज साहब को उनसे मिलाना चाहता था। वही बात शायद उनके ध्यान में रही होगी। अब उनके प्राइवेट सेक्रेटरी को कुछ देकर यह बात उन्हें याद रखवानी पड़ेगी।'

यह कहकर प्रोफेसर साहब अन्दर चलने लगे।

'रुपये लेते जाइये।' वकील साहब ने कहा।

'मैं दे दूंगा।'

'वाह, ऐसा कैसे हो सकता है।'

इतना कहकर वकील साहब ने जेब से नोट निकाले और पूछा-कितने?'

'पचास से शायद काम चल जायेगा।'

वकील साहब ने पचास रुपये के नोट निकालकर दे दिये और प्रोफेसर उन्हें लेकर थोड़ी देरे के लिए भीतर गये और फिर आकर बोले-

'लीजिये, वकील साहब, काम आसानी से ही बन जायेगा।

उसे तीस रुपये में राजी कर लिया। अब आपको जल्दी ही नौकरी मिल जाने की खुशी में मिठाई खिलानी पड़ेगी।'

इतना कहकर उन्होंने वकील साहब को बीस रुपये के नोट वापस कर दिये। वकील साहब के ऊपर इस ईमानदारी का बड़ा प्रभाव पड़ा। उसी रात को दोनों अलीगढ़ लौट आये।

दूसरे दिन सुबह वकील साहब के यहां नाश्ता करते समय प्यारेलाल ने प्रोफेसर साहब से कहा-

'क्यों साहब, वकील साहब का ठिकाना तो आपने कर दिया। क्या हम योंही रह जायेंगे?'

'नहीं, नहीं भला आप योंही क्यों रह जायें? कहिये, क्या खिदमत करूं?'

'कुछ काम हमें भी दिला दीजिये।'

'मैं खुद ही इस बात को सोच रहा था। असल में तुमसे बिना कहे ही आधा इन्तिजाम तो मैंने कर भी लिया है।'

'कर भी लिया है?'

'हां, जब मैं इंगलैण्ड मे था, तो मेरी दोस्ती एक मिस्टर चार्ली विल्सन के साथ हो गयी थी। और वही मिस्टर विल्सन अब मेट्रोपोलिटन बैंक के जेनरल मैनेजर बन कर आ गये हैं। उनका विचार अलीगढ़ में बैंक की एक शाखा खोलने का है। इस काम में तुम्हें दिलचस्पी है?'

'काम कैसा है?'

'काम तो समझ लो कुछ भी नहीं है। मैं सोच रहा हूं कि तुम्हें उसका मैनेजर बनवा दूं और वकील साहब के लड़के को हेड क्लर्क।'

'मेरे लड़के को हेड क्लर्क? वकील साहब उछलकर बोले।

'यह काम जिम्मेदारी का है, वकील साहब। इसके लिए भरोसे का आदमी ही पसन्द करना चाहिए।'

'आपका एहसान तो कभी भूल नहीं सकते।'

'इसमें एहसान की कोई बात नहीं। हां, एक बात है, इसके लिए आप लोगों को कुछ खर्च करना पड़ेगा।'

'इसकी आप फिक्र न कीजिये। जितना भी खर्च होगा, हम खुशी से करने को तैयार हैं।'

'तो चलो, प्यारेलाल, तुम्हें आज रात को ही कानपुर ले चलता हूं। वहां से एप्वाइण्टमेण्ट लेटर लेकर ही लौटेंगे।'

'जैसी आपकी आज्ञा। प्यारेलाल ने गदगद होकर कहा। उसी रात की गाड़ी से चलकर दोनों दूसरे दिन सुबह कानपुर पहुंचे। स्टेशन पर ही हाथ-मुंह धोकर नाश्ता किया। फिर प्रोफेसर साहब ने प्यारेलाल से कहा-

'तुम बेटिंग रूम में बैठना। मैं बैंक के मैनेजर से मिलकर तुम्हारे लिए एपाइण्टमेण्ट लेटर ले आऊं। अगर जरूरत होगी तो तुम्हें भी उनसे मिला दूंगा।

प्यारेलाल ने यह बात फौरन्‌ मान ली। सोचा कि चलो अच्छा ही है, जो बिना जूती चटकाये ही नौकरी मिल रही है। प्रोफेसर साहब चले गये और तीन घण्टे पीछे लौटकर आये। उनके हाथ में दो लिफाफे थे। एक प्यारेलाल के लिए, दूसरा वकील साहब के पुत्र के लिए। प्यारेलाल को दो सौ रुपये महीने पर मैनेजर नियुक्त किया था और वकील साहब के पुत्र काशी को नब्बे रुपये महीने पर हेड क्लर्क। प्यारेलाल से कम्पनी ने दो हजार की नकद जमानत और दस हजार की लिखित जमानत मांगी थी और काशी से चार सौ रुपये की नकद जमानत मांगी थी।

प्यारेलाल को अपने सौभाग्य पर विश्वास न होता था। परन्तु अविश्वास करने का भी कोई कारण न दिखता था। जमानत देने का वादा करके उन्होंने प्रोफेसर साहब को धन्यवाद दिया। प्रोफेसर साहब बोले-

'भई, जमानत का इन्तिजाम दो-तीन दिनों में हो जाना चाहिए।'

'चलिये, कल ही लौटकर इन्तिजाम कर दूंगा।'

'मुझे तो कुछ नहीं। लेकिन मैं उन्हें जबान दे आया हूं। वह तो कोई अपना आदमी मैनेजर बनाना चाहते थे।'

'लेकिन आपकी मेहरबानी भी तो कोई चीज है।'

'अब तुम बैंक खोलने का भी इन्तिजाम शुरू कर दो। कोई अच्छी सी जगह तलाश करनी होगी। पहली तारीख के बारह दिन हैं। उस दिन मिस्टर विल्सन खुद अलीगढ़ आकर ओपनिंग सेरेमनी करेंगे। दस-बीस बड़े आदमियों से उस दिन कुछ डिपाजिट भी कराना होगा।'

'यह सब कुछ मैं कर लूंगा। आप बेफिक्र रहिये।'

अलीगढ़ आकर जब प्यारेलाल ने वकील साहब को खत दिखाये, तो उनकी बांछे खिल गयीं। दो रुपये के बताशे खरीदकर परशाद बांट दिया। प्रोफेसर साहब को दूसरे दिन ही प्यारेलाल ने दो हजार रुपये जमानत के दे दिये। वकील साहब ने चार सौ रुपये का चेक दिया। प्रोफेसर साहब ने देखा कि चेक कहां भुनाया जाय, यह तो मुश्किल बात की। अन्त में उन्होंने काशी को पकड़ा। बोले-

'देख भाई, इस चेक को कहीं देकर रुपये ले आ, नहीं तो मैं तेरी नौकरी की जिम्मेदारी नहीं लेता।' काशी को बड़ी चिन्ता हुई। अन्त में कोशिश करके वकील साहब के एक मित्र से वह रुपये लाया। रुपये लेकर प्रोफेसर साहब उसी दिन राजघाट चले गये।

चेक की बात वकील साहब के कानों तक पहुंची, तो उन्हें कुछ सन्देह हुआ। दो-चार मित्रों से सलाह ली, तो उन्होंने सन्देह को और भी बढ़ा दिया। उन्होंने तुरन्त ही प्यारेलाल को बुलाया। 'तुमने तो हमें ठगवा दिया प्यारेलाल। वकील साहब बोले।

'आपका मतलब क्या है?'

'मुझे विश्वास होता है कि प्रोफेसर हमसे रुपये ठग ले गये।

'यह किस तरह?'

'क्योंकि जमानत के रुपये उन्होंने सीधे बैंकों को नहीं भेजे।'

'अगर आपका डर ठीक भी हो, तो भी आप यह कैसे कह सकते हैं कि मैंने आपको ठगवा दिया?'

'तुम्हारी वजह से ही हमने रुपये दिये।'

'वाह, यह खूब। नौकरी तो आप चाहें, और रुपये मेरी वजह से दिये।'

'तुम्हें रुपये निकालने का कुछ बन्दोबस्त करना चाहिए।'

'मैंने तो दो हजार दिये हैं।'

'तुमने भले ही लाख दिये हों। मुझे मेरे रुपये वापस दिलवा दो।'

'अच्छी बात है।' कहकर प्यारेलाल बाहर आये। राजघाट जाने वाली गाड़ी में एक घण्टे की देर थी। उन्होंने चौक से फौरन इक्का लिया और स्टेशन पहुंचे और शाम को राजघाट में जा पहुंचे। प्रोफेसर साहब उस समय पलंग पर पड़े हुए आराम कर रहे थे और सिगरेट पीते जाते थे। प्यारेलाल को देखते ही बोल उठे-

'कहो प्यारेलाल, इतनी जल्दी कैसे आना हुआ?'

प्यारेलाल क्या उत्तर दें? क्या सीधी बात को फौरन ही छेड़ दें? लेकिन प्रोफेसर के रंगढ़ंग से अविश्वास करने की गुन्जाइश रह ही नहीं सकती थी। जो आदमी बेईमानी करके रुपया लाता, वह राजघाट में रहता ही नहीं और फिर इतने निडर और खुले हुए तरीके से। इसलिए उन्होंने काम की बात को दूसरे दिन के लिए छोड़ दिया और बोले-

'कुछ नहीं, बैंक के बारे में कुछ सलाह करने की जरूरत आ पड़ी थी।'

'अहं, यह सलाह कल कर लेना, चलो, इस वक्त गंगा के किनारे घूम आवें।

दूसरे दिन सुबह प्यारेलाल ने डरते-डरते बात छेड़ी-

'आप वकील साहब से रुपये लाये थे?'

'हां, क्यों?'

'कुछ नहीं, लेकिन मेरी समझ से ऐसे दकियानूसी आदमियों के लिए कुछ न किया करें। न एहसान मानें, न शुक्रिया अदा करें। उलटे बदनाम करने को तैयार हो जाते हैं।'

'क्यों, क्यों, हुआ क्या?'

'कुछ नहीं, उन्हें अपने रुपये का मलाल है। मानो कोई उठाईगीर या डकैत उठाकर ले गया हो।'

'अच्छा, यह बात है! मैं नहीं समझता था कि वकील साहब इतने कमीने खानदान के हैं। चलो, इसी गाड़ी से चलो और उनके रुपये उनके सामने फेंक दो। मैं इतनी दौड़ धूप कर उनका भला कर रहा हूं और वह मुझे बदनाम कर रहे हैं।'

'यह जमाना ही ऐसा है।'

'प्यारेलाल, बोलो तुम्हें तो अपने रुपयों का मलाल नहीं है? नहीं तो तुम भी उन्हें वापस ले लो।'

'नहीं, नहीं, आप यह कैसी बातें कर रहे हैं? मेरे दिल में सपने में भी ऐसी बात नहीं आ सकती।'

उसी दिन प्रोफेसर साहब प्यारेलाल के साथ अलीगढ़ पहुंचे और सीधे वकील साहब के घर की ओर चल दिये। उस समय वकील साहब के पास आठ-दस सज्जन और बैठे थे, जो पिछली बार प्रोफेसर साहब को स्टेशन लेने गये थे। सभी वकील साहब के साथ सहानुभूति प्रकट कर रहे थे और कह रहे थे कि अब उनका रुपया मिलना असम्भव है। इतने ही में वहां प्रोफेसर साहब आ पहुंचे। सबको देखकर आश्चर्य हुआ। वकील साहब ने उनके मुंह की ओर देखा। उसपर क्रोध के भाव थे। डर के या निराशा के भावों का पता भी न था। इसका अर्थ साफ़ था-प्यारेलाल उन्हें पकड़ कर नहीं लाये, वे स्वेच्छा से यहां आये हैं। तब क्या वकील साहब का सन्देह निर्मूल था? मन ही मन वह कुछ भय का अनुभव करने लगे।

आते ही प्यारेलाल बोले-

'लो, वकील साहब, इन्हें मैं ले आया हूं।'

प्रोफेसर ने कुछ कहा नहीं। पचास-पचास के आठ नोट वकील, साहब के सामने फेंककर वह बोले-

'लो वकील साहब, अपने चार सौ रुपल्ली। मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने कमीने खानदान के हो, नहीं तो मैं इस चक्कर में कभी न पड़ता। इतनी बेइज्जती मैंने कभी नहीं बर्दाश्त की। मुझे क्या पड़ी थी कि तुम्हारे निकम्मे बेवकूफ लड़के के लिए नौकरी की तलाश करता। मुझे तो रहम आ गया था। लेकिन यह पता न था कि उसका बदला यह होगा। अब मैंने कान पकड़ा, ऐसे आदमी से कुछ भी वास्ता न रखूंगा।'

प्रोफेसर ने यह सब एक सांस में इतने सुन्दर ढंग से कहा कि सुननेवाले स्तम्भित रह गये। वकील साहब को काटो तो रक्त नहीं। बेचारे सिटपिटाये हुए प्रोफेसर के मुंह की तरफ देख रहे थे। अपना भाषण समाप्त करके प्रोफेसर साहब वहां से चलने लगे, तो वकील साहब को होश आया। उन्होंने प्रोफेसर का हाथ पकड़ लिया। अपना हाथ छुड़ाकर प्रोफेसर बोले-

'मुझे जाने दो।'

'मुझे माफ कीजिए, यह प्यारेलाल की गलती है। मैंने इनसे रुपया लाने को थोड़े ही कहा था। मैंने तो इन्हें आप को देखने भर के लिए भेजा था।'

'प्यारेलाल मुझसे कभी झूठ नहीं बोल सकते थे। कहिये आपके दिल में सन्देह नहीं था?'

'कुछ आदमियों की बातों में आकर थोड़ा सन्देह हो गया था, लेकिन वह तो रफा हो गया। आप जानते हैं, गलती आदमी ही से होती है।'

'नहीं साहब, आप अपने रुपये रखिये और जहां जी चाहे लड़के की और अपनी नौकरी लगाइये।'

'नहीं, इस वक्त तो गुस्ताखी को आप माफ ही कीजिए।'

इतने में और सब भी बोल उठे-

'हां, हां, प्रोफेसर साहब, माफ कीजिये। अब यहां किसी कि दिल में सन्देह नहीं है। चार सौ की तो बात क्या, चार लाख भी आपको सौंप दिये जायें, तब भी कुछ सन्देह न हो।'

बड़ी मुश्किल से प्रोफेसर साहब माने। वकील साहब को दण्ड मिला कि वह सबकी दावत करें और स्पेशल क्लास में सबको सिनेमा दिखायें। वकील साहब ने खुशी से और पच्चीस रुपये का चूरन कर दिया। दूसरे दिन चार सौ रुपये लेकर प्रोफेसर साहब फिर राजघाट चले गये। चलते वक्त उन्होंने वकील साहब और प्यारेलाल से एप्वाइण्टमेण्ट लेटर्स भी वापस ले लिये, यह कहकर कि उनमें कुछ गलती रह गयी है, उसे ठीक कराके और 'मुस्तकिल' शब्द जुड़वाकर वह वापस कर देंगे।

पहली तारीख आ गयी। प्यारेलाल और वकील साहब ने बैंक के खोलने का सारा प्रबन्ध कर दिया। उस दिन प्रोफेसर साहब और मि0 विल्सन वहां ओपनिंग सेरेमनी के लिए आने वाले थे। लेकिन रात तक प्रतीक्षा करते रहने पर भी कोई न आया, तब लोगों को सन्देह हुआ। फौरन्‌ काशी और प्यारेलाल दोनों राजघाट गये। परन्तु वहां जाकर पता लगा कि उन्होंने घर कई दिन पहले छोड़ दिया था। दोनों दौड़े हुए स्टेशन पर आये और स्टेशन मास्टर से पूछा- 'क्यों साहब, प्रोफेसर साहब का भी कुछ पता है?'

'वही प्रोफेसर गुप्ता, जो आपके बड़े दोस्त थे।'

'अजी वह प्रोफेसर नहीं, एक छंटा हुआ ठग था। मुझे तो ढ़ाई सौ रुपये का नुकसान दे गया। आपसे भी कुछ ठग ले गया क्या?'

'अजी अलीगढ़ तो उसने कई हजार पर हाथ साफ किया। लेकिन वह तो पीलीभीत कालेज में .....'

'वह सब बनावटी बात थी। वहां इस नाम का कोई प्रोफेसर नहीं है।'

'फिर, अब क्या किया जाए?'

'मैंने पुलिस को रिपोर्ट कर दी है। रुपये के लिए तो अब सन्तोष करके घर बैठिये।'

दोनों मुंह लटकाये लौटती गाड़ी से अलीगढ़ चले गये।

(यू.एन.एन.)