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कथा-कहानी
नया आविष्कार स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       


चित्रकार अपने नये चित्र को गौर से देख रहा थाः बहता नाला। पास छोटी-छोटी झाड़ियां। नीला-नीला आसमान। और भेड़िये के पांवों में मरा बकरी का बच्चा। बच्चा-निर्जीव, निश्चल सोचा, सुन्दर, सुन्दर.........।

चित्रकार की आंखें चित्र पर टिकी कुछ ढूंढ रही थीं। किसी ने पीठ पर हाथ रखते हुए कहा-'खूनी?'

चित्रकार ने फिरकर देखा, वैज्ञानिक अपने नीले सूट में खड़ा था। वैज्ञानिक ने कहा- 'अच्छा चित्र बनाया है। उसकी आंखें ही सारे भाव स्पष्ट कर देती हैं। तुम बधाई के पात्र हो। कहो, यही नाम तुमने भी चुना होगा। यही तो तुम्हारी भावना होगी। अब क्या सोच रहे हो। उलझन कैसी। निश्चिन्त हो लिख दो ........'

'वैज्ञानिक।' चित्रकार ने चित्र पर से आंखें उठा, उसकी आंखों में डुबो, कुछ टटोलते कहा।

वैज्ञानिक कहता रहा- 'वातावरण के अनुकूल चित्र है। जितनी विभिन्नता है, उतना ही सजीव। बच्चा अबोधता का पुतला और .........।'

'चुप रहो वैज्ञानिक। व्याख्या कर लेने को मैंने यह नहीं बनाया। दिल का एक तकाजा था, वही चित्र पर बखेर दिया। पर मैं यह न सोचता था। मेरा ख्याल था, इसका उपयु2 नाम होगा - 'पैसा और मजदूर।' पैसा मजदूर को कुचलता है। मजदूर की बेबसी का ध्यान किसी को नहीं।'

'ओ .... हो .... हो।' वैज्ञानिक हंस पड़ा। 'बड़ी गम्भीर सूझ है। कहते तुम पते की बात हो। लेकिन अपना-अपना दृष्टिकोण है। यही ठीक सही।' रुककर - 'चलो-चलो, मैं तुमको लेने आया हूं।'

चित्रकार उठा। साथ हो लिया। शहर को छोड़ दोनों एक पगडण्डी की ओर बढ़े। अन्त में पहाड़ी पर चढ़ने लगे। चढ़ते-चढ़ते वैज्ञानिक बोला, 'थक तो नहीं गये।'

'थकान ........।' चित्रकार अटक पड़ा। बोला फिर, ''पेंटिंग की थकान और इसमें अन्तर है। तुमने 'सराय' का चित्र देखा है। '- -' का बनाया : बूढ़ा मुसाफिर, उसकी बीवी, एक बच्चा, रात्रि को चुपचाप सराय के एक कोने में बैठे हैं। चांदनी की छाया में तीनों के चेहरे से थकान टपकती है। वह मात्र हमारे 1दय के भावों और मस्तिष्क पर कब्जा करती है। यह हमारे शरीर से बन्धित है। कितना भारी फर्क है।'

दोनों पहाड़ी की चोटी की ओर बढ़ रहे थे। एक टीले पर बैठकर वैज्ञानिक ने अपनी जेब से कैमरा की तरह छोटा-सा यन्त्र निकाला और चित्रकार से कहा -'देखो?'

''घरर-र-र ........सर .......।' कुछ दिखलाई दिया?'

'नहीं।'

'कोण गलत होगा।'

''घरर....रर....ररर' अब।'

'ठहरो-ठहरो।' कह चित्रकार ने आंखें यन्त्र से हटा लीं।

'उफ।' जैसे भारी थकान के बाद, सांस लेने का मौका मिला हो।

'क्या देखा?'

चित्रकार की आंखें अभी तक, सहमी, डरी उसने पायीं। चित्रकार बोला-'घना जंगल......बड़ी-बड़ी चींटियां, मनुष्य को खा रही हैं। पीले-पीले मुरझाये पने जमीन पर फैले हैं। उन पर कई जिन्दे मनुष्य पड़े हैं। वे हिलते हैं, डुलते हैं, चीखते हैं और आखिर हारे असहाय लेट जाते हैं।'

'यह तो जीवन का एक पहलू है- चित्रकार। इसमें डर क्या? इतनी सी बात से डर गये। यह आविष्कार एकदम नया होगा। जो मनुष्यता और जीन की पहेलियों को सबके आगे पेश करेगा। 'समस्या' न रहेगी फिर। इसके आगे जटिल सवाल हल हो सकेंगे। यह तो निरा एक प्कमं क्कभावत्र् है। मैं चाहता हूं, तुम कुछ ऐसे चित्र बना लो। लो और देखो।'

चित्रकार ने देखा : श्मशान, अंधियारा। चीख उठा- वैज्ञानिक? वैज्ञानिक??

वैज्ञानिक चुप।

'अरे तुम भी क्या?'

वैज्ञानिक चुप यन्त्र पकड़े था, रहा। चित्रकार ने आंखें अलग हटा लीं। कुछ देर तक यन्त्र को और वैज्ञानिक को देखता रहा। कुछ कहना चाहकर भी कह न सका। अपने में ढूंढकर भी कुछ जैसे खोया लगा। कहा फिर - 'वैज्ञानिक यह क्या? क्या मनुष्य की सभ्यता यहीं खात्मे पर है।'

'क्या कहा?'

'यह कैसा दृश्य था। एक मनुष्य दूसरे को हयिों के टुकड़ों से मार रहा है। खून, घाव.....। तुम भी उनमें मुझे झगड़ते लगे।'

'लड़-झगड़।' वैज्ञानिक ने कहा- 'यह तो संघर्ष है। अपने लिए हमें सब निभाना है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं। यह रोज का हल है।'

'रोज का।' चित्रकार ने हल्के से दुहराया।

'हां, हमें रोज अपने को चालू रखने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है और देखो......।'

'घरर- घरर ....ररर।'

चित्रकार ने देखा : युवक-युवतियां नाच रही थीं। कितना पतन। कैसा श्राप। 'बस ...।' कह चित्रकार उठ बैठा-'चलो घर चलें।'

'अभी कुछ और देख लो। यहीं बस नहीं। आगे और है- भले ही अग्राᅠ सही। हमसे अलग नहीं। हममें ही है...।'

'वैज्ञानिक,' चित्रकार जोर से बोला-'क्या कहते हो? मैं इस तक का पोषक नहीं। मेरी दुनिया कुछ और है।'

'कुछ और।' वैज्ञानिक घ्रुपद में हंसा। 'वही सब नहीं, कुछ और जरूरत भी है।'

'जरूरत।' चित्रकार के मुंह से निकला।

'कमी सही। अभाव ही। खैर-देखो, देखो।'

'हैं, हैं, हैं.......भाग चलो, भाग चलो।' चित्रकार ने आंखें मूंद लीं। फिर आंखें मलते पूछा-'यह तुम क्या ढूंढ रहे हो, कहां पहुंचोगे। मतलब क्या है।

'देखा नहीं तुमने। सारी दुनिया, बड़ी इमारतें, इसी तरह गिर पड़ेंगी-एक दिन। न तुम होगे, न हम। हमारा अस्तित्व एक धोखा रह जायेगा।

'यह झूठ है। मैं इस पर विश्वास नहीं करता।'

'नहीं करते। तो, देखो न। हिम्मत क्यों हार रहे हो? घरर.......घरर.....ररर....ररर। 'देख रहे हो न इतनी गाड़ियों का रोज का काम मुरदों को लादकर ले जाना है। क्या देखा : बच्चे मर रहे हैं। उधर दाहिनी ओर वह गरीब औरत रो रही है, उसका स्वामी चोरी में सात साल को जेल गया है। पेट के लिए चोरी करी थी-कानून ने पकड़ लिया। और .........।'

'तुम जानते हो, मैं सिर्फ चित्रकार हूं। 'थिंकर' नहीं। फिलासफी भी मुझे परेशान करती है। जिन्दगी कट रही है, कटने दो। उसके मनोविज्ञान से वास्ता नहीं। अच्छा अब चलो।'

'यही इतना है बस। आगे अभी यन्त्र कुछ पकड़ नहीं पाता। कुछ तुमको भी सूझा?'

'उठो।'

दोनों उठकर नीचे की ओर बढ़े। वैज्ञानिक कह रहा था, 'तुम देख रहे हो न, कितनी विभिन्नता दुनिया में फैली है। इधर महल, उधर झोपड़ियां। वह मोटर जा रही है, हम पैदल ही जिन्दगी का सफर कर रहे हैं। हमारे आगे आज की रोटी भी एक सवाल है।'

चित्रकार चुपचाप बढ़ रहा था। रोज की बात में क्या राय दी जावे। शहर की चौड़ी सड़क पर एकाएक चित्रकार रुक पड़ा कहा-'चलो।'

'कहां।' वैज्ञानिक ने कुतूहल से पूछा।

'सामने, देखते नहीं हो।'

'नहीं, नहीं।'

'चलो भी, वह बुला रही है।'

'क्या तुम उसे जानते हो?'

'हां, आजकल वह मेर नये चित्र की भावना है।'

'भावना - -।'

'सच कह रहा हूं। कुछ वैसे बुरी नहीं। शायद तुमको पीछे गाली देने की नौबत नहीं आवेगी।'

'ठहरो भाई।'

'क्या?'

'वह देखो ....... अरे सड़क के किनारे वह-वह भिखारिन मर रही है।'

'मर रही है- मरने दो। न तुम्हारी सामर्थ है कि उसकी मौत रोक लो। न मेरी। तुम क्यों बेकार इतनी फिव् कर रहे हो। तुम-हम उससे बाहर नहीं। उसका हमसे लगाव है।'

'नहीं, उसे देख लेने की चाहना रह जाती है।'

'चाहना, चलो भी वह खड़ी न जाने क्या सोचती होगी।' चित्रकार ने वैज्ञानिक को अपने साथ ले लिया। सुन्दर फर्श बिछी, किनारे कई तकिये। सामने दिवाल पर आठ ही बजाती रुकी घड़ी। नीले-नीले रंग में पुती दिवाल और एक युवती जामुनी साड़ी में बैठी। वैज्ञानिक दरवाजे पर ठिठक गया, सोचा : भिखारिन मर रही है। उसके पास अपना कोई नहीं। उसकी असहायता यह उपेक्षा? वह लौटकर भिखारिन को दिलासा देगा...। उसे धर्म समझावेगा। उसे शान्ति से मरने की सीख पढ़ावेगा। उसके 1दय में समाज के प्रति उठते विद्रोह को हटा लेगा। वैज्ञानिक ने पीठ फेरी, चाहा नीचे उतर पड़े, कि चित्रकार ने जोर से पुकारा-'वैज्ञानिक?'

वैज्ञानिक की आंखें फिरीं, वह युवती घूर रही थी। अब कहा- 'तशरीफ रखिये।'

वह चुपके एक कोने में सिमटकर बैठ गया। उलझन हट गयी थी। तकिये का सहारा ले लिया था। चित्रकार ने कहा- 'कुछ सुनाओगी नहीं।'

वह गाने लगी -'.............।'

एक विषाद-पूर्ण गीत था। पहाड़ी का चारागाह, खेलते बच्चे, एकाएक आसमान का घिर जाना, बच्चों की घबराहट, फिर बरफ का तूफान। घबड़ाये बच्चों की भाग-दौड़ और निपट अन्धकार में बच्चों का खो जाना। फिर अगली सुबह बरफ की जमी सतह पर सूर्य का चमकना। सफेद फर्श- कहीं-कहीं बीच-बीच में उठी काली-काली सतह सी-बच्चों की लाशें....।'

वैज्ञानिक आंखें मूंदे झूमने लगा और आंखें भर आयीं। ख्याल आया फिर : कल, कुछ साल बाद, जब गाने की उम्र निपट जावेगी। देखी-सी फिर एक छाया-सुफेद-सुफेद बाल, झूरियां पड़ी .... वही सुन्दर वेश्या और .......। वैज्ञानिक चौंक उठा, जैसे किसी ने हिलाया हो। कुछ नहीं सूझा। गाना बन्द हो चुका था। लगा फिर, एक दिन वह वेश्या कौन जाने जीने से マबकर आत्महत्या कर ले। रंगीनता का आखिरी अध्याय वही होगा क्या? फिर गाना शुरू हुआ। वह उठा और चला आया। चुपचाप आगे बढ़ा। बरसात के दिन। कच्ची जमीन पर कीड़े बढ़ रहे थे। वह रुक गया। उनका तमाशा देखने लगा। वह लम्बा-लम्बा सांप-सा आगे बढ़ता, गोल-गोल मि6ी के घेरे बनाता, वहीं रहता। उसने लकड़ी का टुकड़ा उठाया, उसे छुआ-वह सिकुड़ गया। निर्जीव पड़ा रहा। जब आहट बन्द हुई, तब फिर चलने लगा।

भिखारिन की याद आयी। वह वहीं पहुंचा। भिखारिन मर गयी थी। वह कहती लगी-अब आया तू घमण्डी वैज्ञानिक एक दिन तुझे भी कुछ प्राप्त नहीं होगा।

भिखारिन अर्द्ध नग्न थी। उसने अपना रेशमी रुमाल निकाला और उसके चेहरे पर फैला दिया। अब आगे वह बढ़ा। बढ़ा होटल की ओर। मन में भारी उचाट था। सोचता-मक्खियों की जिन्दगी चन्द मिनट की, जानवर कुछ दिन रहते हैं। मनुष्य कुछ साल और दुनिया कुछ शताब्दी। सब - सब ........। पुलपर बढ़ते सुना, 'छप-छप'। देखा - नदी में कछुए एक बकरी के बच्चे के चारों ओर घेरा बनाये उसे खा रहे थे। असहाय बच्चा तड़फ रहा था। उसने आंखें मूंद ली, चाहा कि नदी में कूद पड़े। वह नहीं रहेगा अब। इतनी पीड़ा, इतना दुःख ....।

किसी ने पीछे से हिलाते कहा - 'क्या सोच रहे हो।'

'तुम चले आये चित्रकार।' वह चिल्लाया। 'चित्रकार, चित्रकार ....।'

'तुम रो रहे हो।' चित्रकार अवाक्‌ हो बोला।

वैज्ञानिक संभल गया। कहा फिर, 'चित्रकार, जीवन में सुख नहीं- यही हमारी भूख है।'

'वैज्ञानिक .....।'

दोनों होटल पहुंच गये थे।

चित्रकार मेज पर बैठकर पुकारा- वाय? वाय?? मीनू???

फिर खाना मंगवाया। दोनों खाना खाने बैठ गये।

वैज्ञानिक ने बड़ा आलू का टुकड़ा मुंह में डाल लिया और निगल गया। आंखों में जब भी आंसू थे।

चित्रकार ने फिर पुकारा- 'ब्वाय- दो पेग 'जान हेग।'

'नहीं-नहीं,' वैज्ञानिक ने टोकते हुए कहा- 'एक अपने लिए मंगवा लो।'

'अपने लिए, नहीं। तुम भागना क्यों चाहते हो। कहीं तो डटकर खड़े रहा करो।'

'भागना .......'

खा-पीकर दोनों चुपचाप कुरसियों में बैठकर सिगरेट फूंकने लगे।

वैज्ञानिक बोला - 'इस होटल का भी एक व्य2ित्व है, दायरा है - अधूरा।'

'अधूरा .... हा, हा, हा; चित्रकार हंस पड़ा - 'यार तुम यह क्या कह रहे हो। मुझे तो होटल की जिन्दगी में पूरा मजा मिलता है।

'लेकिन ....'

'क्या .....'

'कुछ भी हो। अपना-अपना ख्याल है। किसी दिन यह होटल भी नेस्तनाबूद हो जायेगा। हजारों, लाखों आदमियों का बही-खाता यहीं दबा रहेगा।'

दोनों उठकर बाहर चले आये। अपने-अपने घर पहुंच गये।

कुछ दिन बाद चित्रकार नये चित्र बनाने में लीन था। करीब-करीब खत्म कर चुका था। एकाएक वैज्ञानिक आ बोला - 'इतनी सुबह-सुबह।'

'कल रात भर सोया नहीं। यह देखो .....।'

'हैं, हैं।' वैज्ञानिक आंखें फाड़-फाड़कर चित्र को देखते बोला।

'क्या है। कितना सुन्दर चित्र है। मुझे यह चित्र खूब लगा है। चाहता हूं, चित्रावली युवती में रल जाマं।'

'यह गलत नहीं ......।'

'ओ चित्रकार यह तो उसी रमणी का चित्र है।'

'रमणी का?' चित्रकार ने आश्चर्य से पूछा।

'क्या तुम नहीं पहचानते हो। उस वेश्या के चेहरे के सारे भाव व्य2 हैं। यह असᅠ है। उस नारी को क्यों इस तरह पोत रहे हो।'

'पोत .....। यह झूठ है।'

'झूठ .....।'

'मैं दावे के साथ कहता हूं। वैसे तुम जानते हो, मैं सारी स्त्री जाति का कायल हूं - सब युवतियों का। चाहता हूं, मौत की अन्तिम घड़ी, कोई कुछ रंगीन साड़ियों के आंचल भिगो, उनका पानी मुंह में टपका दे। और में निश्चिन्त सो जाマं।'

'निश्चिन्त ......।'

'तब आत्मा प्यासी नहीं भटकेगी।'

'क्या तुम आत्मा पर विश्वास करते हो?'

'विश्वास? कहीं कुछ उलझन तो लगती नहीं कि अविश्वास से खेलूं। अविश्वास साध्य है। वही ठीक लगता है। अविश्वास भले ही विद्रोह लावे, हमारी भारी जरूरत है।'

'विद्रोह और जरूरत?'

'तुम क्या चाहते हो वैज्ञानिक।'

'कुछ नहीं।'

'यह झूठ है। मैं जानता हूं। तुम एक स्वप्न को सजीव बना लेने के फिराक में आविष्कार कर रहे हो।'

'क्या .... ठीक ..... नहीं। यह ठीक है, मैं नया आविष्कार कर रहा हूं। यन्त्र से मेरा सम्बन्ध है, लेकिन लेन्स से खेलते दृश्यों से मैं अलग रहता हूं। उनसे मुझे वास्ता नहीं। वे छलावा हैं। रोज प्रयोगशाला में भारी व2 काटना है, कट जाता है।'

चित्रकार ने पूछा, 'सन्ध्या को सिनेमा चलोगे।'

'मुझे उन चलती तसवीरों का शौक नहीं।'

'आज चले चलना।'

'अच्छा, सांझ को सिनेमा हाल में मिलूंगा।' - कहता वैज्ञानिक चला गया।

अब चित्रकार ने तस्वीर के चेहरे को घूर-घूरकर देखा। कपड़े पहिन भागा-भागा वेश्या के यहां पहुंचा। देखा, वह सो रही थी। चाहा, उसे चूम-चूमकर जगा दे। डर गया। लौट आया। हिम्मत हार गया था।

लौटकर बैठ आंखें मूंदे एक बार उसके आगे सोयी रमणी का बिखरा चित्र आया। सारा .....। उसने अपना अलबम खोला। कुछ फोटो निकाले। बड़ी देर तक उनको देखता रह गया। एक फोटो पर रुक पड़ा। उसने राइटिंग पैड निकाला और खिन्न हो लिखना शुरू कर दिया।

श्यामू, आज फिर तेरी याद हो आयी। याद है, तुझे मैंने कितनी चि7ियां नहीं लिखीं। अपने दिल की बातें, अपनी भाषा में लिख, तुम तक पहुंचाते कहीं हिचक न रही। तू जवाब नहीं देती। जैसे जवाब दे नहीं सकती। और जानता हूं, जवाब पाकर मैं कुछ खाली फिर भी रह जाマंगा।

आजकल अजीब 'मूड' में हूं। पिछले पत्र में मैंने तुझे अपने वैज्ञानिक दोस्त की बातें लिखी थीं। अजीब आदमी है। लगता है, संसार की सारी निराशा पिये हो। सोचता हूं, तुझे अपने दिल की बातें लिखकर मैंने गलती की। आज चन्द दियासलाई की सींकें और जला लेने को कागज साथ भेज रहा हूं। अकेले कोने में सब चि7ियां जला देना। सुफेद-सुफेद धुंआ निकलेगा। वहीं मेरा ठिकाना है। हमें भी तो एक दिन ऐसे धुएं में रह जाना है। न, श्यामू, तू अलग रहना चाहती है। रहना-मैं ही कहां चाहता हूं कि कोई मेरे नजदीक रहे। बचपन का लम्बा अरसा लगता है, झूठ था। तब तुझमें समझ न थी। आज तू समझदार हो गयी है। साथ भेज रहा हूं-तस्वीर। इसका चेहरा एक वेश्या से मिलता है। आजकल वही मेरी पेरशानी संभाले है। मेरे पास कोई और साधन भी तो नहीं। याद है, तुम्हारी शादी के बाद मैं अकेला छूट गया था। फिर .....। तस्वीर तुम देखना। खूब ही देखना। वैज्ञानिक का नया आविष्कार अभी कुछ आगे नहीं बढ़ा है। तुम्हारा

संध्या को वैज्ञानिक और चित्रकार सिनेमा घर गये। दोनों साथ-साथ फिल्म देखने लगे। वैज्ञानिक ने चुपके कहा - 'अपने को धोखे में क्यों डूबो रहे हो चित्रकार।'

'धोखा?'

'देखते नहीं, सिर्फ तमाशा है। व्यवहार में यह खरा नहीं। जिन्दगी का तमाशा इससे सुलझा है। अच्छा तो विदा ....।'

चित्रकार कुछ कहे कि वैज्ञानिक बाहर निकल गया।

फिर चित्रकार का मन नहीं लगा। वह भी उठ आया। देखा, सामने पेड़ की छाया में वैज्ञानिक चुपचाप खड़ा था। आगे बढ़, नजदीक पहुंच, वह पुकारना चाहता था - वैज्ञानिक, कि वैज्ञानिक ने ओठों पर उंगली लगा, चुप रहने का कहा।

चित्रकार ने आगे बढ़, वैज्ञानिक के इशारे की ओर देखा : चांदनी खिली, रात्रि, सांप सोया। चूहे का बच्चा उसके मुंह से खेल रहा था।

चित्रकार चौंक उठा। एकाएक सांप ने अपना फन उठाया। चूहा संभला। गलती मालूम हुई। भागना चाहा। सांप उसे पकड़ने बढ़ा। अब आधा चूहा सांप के मुंह में था। फिर पूरा चूहा सांप निगल गया। सांप इधर-उधर घूम-फिरकर बिल में घुस गया।

वैज्ञानिक ने गहरी सांस ली। कहा-'चलो।' चित्रकार चुपचाप साथ हो लिया।

वैज्ञानिक कह रहा था - 'किसी का दुःख नहीं सहा जाता है और उसी को सुख में देखकर ईर्षा होती है। हम एक बात पर रह नहीं जाते।'

चित्रकार चुप रहा। कुछ देर तक वैज्ञानिक भी कुछ नहीं बोला। फिर कहा, 'वह देखो।'

चित्रकार को कुछ भी न दिखलाई दिया। पूछा - 'क्या?'

'वह सामने।'

'सामने ...।'

'कब्र है न। वहीं उसके रिश्तेदारों ने दिया बालकर उजाला कर दिया है। कौन जाने, वह जवान मर गया हो।

उसकी प्रेयसी किसी लड़के के हाथ तेल भेजकर, दिये की रोशनी में अपने को भुला लेना चाहती हो।'

'तुम पागल हो गये हो।' चित्रकार ने टोका।

'पागल।' वैज्ञानिक कहकहा मारकर हंस पड़ा। 'संसार नाश की ओर है ......।'

'वैज्ञानिक?'

'चुप रहो, चुप .... चुप .......।'

'वह कितना मधुर संगीत है। मृत्युगीत, सुना जंगली लोगों में आज भी चालू है। किसी की मौत की पीड़ा वे देख नहीं सकते।'

'मौत की पीड़ा .....?'

'सुना, मरने पर बहुत दुःख होता है। इसीलिए उनके यहां मधुर गीत गाने का रिवाज है। कहते हैं, कुछ जातियों में मरते व2 युवतियां नाच, गाकर प्राणी को शान्ति देती हैं।'

'क्या?'

'तुमने 'किलोपेटᆭा' का नाम सुना है। उस युवती के सौन्दर्य की आज भी तारीफ है। भले ही कई सदियां गुजर चुकी हैं। वह अपने प्रेमी के आगे रात्रि को अपना सबसे प्रिय नाच दिखा, मोह, सुबह जहर का प्याला पीने को सौंपती थी। हर एक प्रेमी पर यह लागू था।'

चित्रकार साथ-साथ सुनता बढ़ रहा था। अब वैज्ञानिक भी चुप हो गया। दोनों धीरे-धीरे रास्ता नाप रहे थे कि सुना-अल्लाह! अल्लाह!!

देखा : भिखारी बूढ़ा, लाठी के सहारे कदम पर कदम मिलाकर चल रहा था। वैज्ञानिक रुक पड़ा। खूब भिखारी को देखा, कहा- 'इसकी भी लालसायें हैं। दिनभर चन्द पैसे मिल जावें। 'उसी खुदा' ने इसे भी पैदा किया है।'

चित्रकार सुनकर बढ़ गया। आगे सड़क के चौराहे पर वैज्ञानिक बोला - 'गुडनाइट' और चित्रकार से हाथ मिला अपने मकान की ओर बढ़ गया।

चित्रकार सीटी बजाता-बजाता वेश्या के यहां पहुंचा। वहां पहुंच चुपचाप बैठ गया।

वह बोली- 'क्या सोच रहे हो।'

'तुम्हारे दिमाग पर .......।'

'मेरा दिमाग।'

'वैज्ञानिक कहता था कि स्त्रियों का और बन्दरों का दिमाग एक सा होता है- खासकर तुम्हारी जाति की स्त्रियों का। जब चाहे खेल लिये और फिर ......।'

अपने दोस्त की हिफाजत किया कीजिये। कहीं कोई 'भेड़ा' न बना दे।'

'मुझे तो बना चुकी न। अब उसकी बारी होगी।'

'यह झूठ है।'

'झूठ...।'

'मैं खुद तुम्हारे स्टूडियो में गयी थी। याद है-तुमसे तसवीर खिंचवाने के लिए। रोज ही तुम टालते गये। बहाना बनाते रहे-भावना नहीं उठती। उतनी हाजिरी के बाद तुमने एक दिन कहा था-तुम्हारी तस्वीर शायद ही बना सकूंगा।'

'बात ठीक है। तुम्हारी तस्वीर बनती और तुम भाग जाती।'

'भाग जाती?'

'जरूर। आज ही न देख लो .......।'

'झूठ है, वादा कर भी अब तुम महीनों में आते हो।'

'तुम सुनकर आश्चर्य करोगी, अनजाने मैंने तुम्हारा चित्र बना लिया है।

'कहां है ......।'

चित्रकार अब संभला, कहा- 'खयाली चित्र हर व2 साथ रखता हूं।'

वह हंस पड़ी।

चित्रकार भी चला आया।

एक हते बाद चित्रकार अपने नये चित्र के बारे में सोच रहा था। एकाएक वैज्ञानिक ने दरवाजा धकेलकर पुकारा 'चित्रकार।'

चित्रकार की आंखें फिरीं, देखा : वैज्ञानिक के बाल बिखरे थे। कपड़े फटे थे। माथे पर से खून टपक रहा था। चित्रकार देखकर सन्न रह गया। चीख उठा- 'वैज्ञानिक।'

'ताज्जुब नहीं दुनिया समझती है, मैं पागल हो गया हूं। राह भर बच्चे मुझ पर कंकड़ बरसाते रहे। चलते लोग घूर-घूरकर देखते रहे। ओ चित्रकार, मैं अब पा गया-पा गया।'

कह वैज्ञानिक नाचने लगा-चिल्ला-चिल्लाकर कहता, 'पा गया! पा गया!'

फिर वैज्ञानिक ने चित्रकार का हाथ पकड़ते हुए कहा - 'चलो' और घसीटता बाहर ले गया। चलते-चलते पहाड़ी की चोटी पर दोनों पहुंचे। वैज्ञानिक ने यन्त्र ठीक किया। घरर - घरर- ररर, ररर।

चित्रकार ने देखा : सुन्दर बाग, चारों ओर फूल खिले। फुहारे के पास कबूतर का जोड़ा खेल रहा था।

'हा, हा, हा,' वैज्ञानिक ठहाका मारकर हंस पड़ा। हंसा, तीव्र स्वर में चिल्लाया - 'पा गया? पा गया??'

उसने यन्त्र पहाड़ी से नीचे की ओर लुढ़का दिया। फिर उसी सीध में नीचे की ओर दौड़ा। चित्रकार ने पुकारा- 'वैज्ञानिक, वैज्ञानिक, ठहरो।'

वैज्ञानिक चिल्लाता चला जा रहा था, 'पा गया।'

'ठहरो, ठहरो।' चित्रकार कांपते बोला- 'उधर नहीं, नहीं .......।'

वैज्ञानिक रुका नहीं। भागता चला गया।

चित्रकार ने जोर से पुकारा- 'वैज्ञानिक।'

वैज्ञानिक नदी के किनारे पहुंच पानी में पैठ रहा था। चित्रकार सन्न रह गया, कहा फिर, 'डूब जाओगे वैज्ञानिक।'

वैज्ञानिक पानी चीरता आगे बढ़ गया।

चित्रकार ने देखा, गले तक पानी था।

फिर देखा-एक, दो, तीन ...... कई बुलबुले उठे और ........

आंखे मूंद चीख उठा - 'ओ' वैज्ञानिक, क्या यही नया आविष्कार था?'