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कथा-कहानी
अभाव की पूर्ति स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       श्रीमती प्रेमलता देवी
अब बस करो चित्रकार!

बस, बस देखो तो सही, अभी समाप्त हुआ।

तुम तो न जाने कब से ऐसा ही कर रहे हो। जानते हो सारी दुपहरी ढल गई, संध्या हो गई। फिर भी तुम्हारा लस समाप्त होने में नहीं आता।

तुम तो पागल हो सवि! अभी तो मैं चित्र बनाने बैठा था और तब से तुम दस बार आ चुकी हो, कभी खाना खा लो, कभी विश्राम कर लो और अब कह रही हो कि नदी तट चलो। मैं कह रहा हूं कि बस दो बार तूलिका फिराने से चित्र समाप्त हुआ जाता है- तुम तनिक ठहरो तो।

हूं, मैं पागल हूं, तनिक कुटी से बाहर निकल कर तो देखो, संध्या घनी हो रही है। और न मानकर वह चित्रकार को बाहर खींच ही लाई। अस्त होते सूर्य को देख चित्रकार सचमुच अचम्भित हुआ और बोला- यह क्या? सच सवि, प्रातः से बैठा बैठा मैं थक क्यों नहीं गया? समय की ऐसी विस्मृति तो मुझे कभी नहीं हुई थी।

और तुम्हारा मध्यान्ह का भोजन जो पड़ा पड़ा पानी हो गया है- सो?

क्या सच सवि? पर मुझे तो जैसे भूख ही नहीं लग रही है।

वह मैं जानती हूं, सदा ही तुम्हें जब तुम कोई चित्र बनाने बैठते हो तो भूख नहीं लगा करती। लेकिन आज तुम मुझसे हठ न कर पाओगे, करने पर भी मैं तुम्हें इस समय नदी तट अवश्य ले चलूंगी।

नहीं, नहीं, तुम बहुत अच्छी हो सवि! इधर देखो मनमोहन का वह पीत पट उस पर जो अभी अरुणिमरेखाएं डालती हैं, और वह कमल पाद, उनमें जो महावर लगाता है- यह सब किये बिना कैसे जाऊं सवि?

तो क्या घूम आकर यह सब नहीं बना सकोगे।

नहीं! यह सब अभी करना होगा। मैं तुम्हें किस तरह बताऊं कि इस चित्र को अधूरा छोड़ मैं इस कुटी से बाहर नहीं जा सकता। सवि, इस समय तुम जाओ।

तुम्हारे ऐसे हठ मैं सैकड़ों बार सुन चुकी हूं। अब की तुम्हें मेरे आग्रह पर चलना होगा।

हां सवि तुम सच कह रही हो- तुम्हारे आग्रह को टालने की शक्ति मुझमें नहीं है। पर मेरी अच्छी सविता केवल आज ही के लिये तुम अपना प्रस्ताव वापिस ले लो। आज मैं इसे पूरा करके कल फिर सारी संध्या तुम्हारे साथ नदी तट पर व्यतीत करूंगा।

तो तुम नहीं जाओगे चित्रकार मैं जानती हूं। सदा की तरह आज भी मैं पराजित हो गई। परन्तु यह फल खिलाए बिना कभी नहीं जाऊंगी।

और चित्रकार को उसके अनुरोध से जलपान करना ही पड़ा। जूठे बर्तन उठाकर जाती हुई सविता को वह अपनी पर्णकुटी के द्वार पर खड़ा-खड़ा देखता रहा और अचानक उसकी दृष्टि दूर तक चली गई टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी के अंत पर जा पहुंची- जहां स्थित था वह विशाल मठ, जिसके अधिष्ठाता की पुत्री है यह सविता- भोली सविता। जो इस चित्रकार की प्रेरणा है, सुख भी और दुख भी है। सुख-दुख के इस अनुपम सामंजस्य में वह अपने को भुला बैठता और कुछ खोया सा बेसुध वह अपने ही स्वप्न संसार में विचरता रहता। दूर जाती हुई सविता अब आंखों से ओझल हो गई थी और मठ की विशाल दीवारों से टकरा कर आती हुई घंटों की ध्वनि उसे कर्णगोचर हुई और उसी के साथ-साथ उसके कानों में सविता के यह शब्द भी सदा की तरह आज भी मैं पराजित हो गयी।'- चित्रकार की विचार श्रृंखला आगे बढ़ी- क्या सचमुच मैं सविता से जीत पाता हूं? यह भोली भाली बाला कब और कैसे मेरे जीवन में आई, और क्यों? इन सब का उत्तर मैं चाहकर भी नहीं पा पाता- मेरे सुख दुख का क्यों इस पगली को इतना ध्यान है? जैसे मेरे जीवन का भार इसी पर हो स्नेह का ऐसा मधुर बंधन संस्कृति की अमूल्य से अमूल्य निधि को मैं इस बंधन के लिये छोड़ सकता हूं। और उसकी यह विचार श्रृंखला तब टूटी जब मठ से आती हुई जय ध्वनि ने उसे समय का आभास दिया, और उसने चौंक कर कुटी के अंदर झांका, अंधकार ने चारों ओर अधिकार कर लिया था और बड़ी कठिनता से चित्रकार ने दीपक बाल कर प्रकाश किया। यह उसके मठ जाने का समय था। वायु के साथ आते हुए जय घोष में खोया वह सोचता रहा मैं जाऊं या न जाऊं कि उसकी दृष्टि एकाएक उस अधूरे चित्र पर पड़ी- और वह मोहन के चित्र को देखने ऐसा तल्लीन हो गया कि मठ जाने का विचार उसके मस्तिष्क से उतर गया- और एक नवीन उत्साह से अपने हाथ की तूलिका को चित्र पर इधर उधर दौड़ता रहा- आज कई दिनों से वह यह चित्र बना रहा है- सवि कहती है कि पूर्ण हो गया है पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि इसमें कहीं कोई अभाव है? पर कहां! वही तो कदम्ब का वृक्ष है- वही मनमोहन मधुकर है, वही जमुना तट और वही बृंदावन का कुंज- कहीं भी तो कोई अभाव नहीं। और इसी प्रकार उसने कितने दिन और कितनी रातें जागरण में उसी अभाव की खोज निकालने में लगा दीं। परन्तु उसे संतोष न होता कभी मोहन के पीत पट पर रेखा डालता तो कभी कुंकुम का तिलक और गहरा कर देता और कभी जमुना की, लोल लहरियों में नीलम का रंग भरता- इसी प्रकार अभावों की पूर्ति करते रहते भी न जाने किस अभाव की पूर्ति में वह बहता रहता- नवीन योजनाएं सोचता, नूतन ढंग निकालता अपनी सम्पूर्ण कला की परीक्षा वह इस चित्र में करना चाहता- पर सफलता उससे उतनी ही दूर भागती और इसी प्रकार कुछ बेसुधी में कुछ पागलपन में और कला प्रदर्शन में रात्रि भागी जा रही थी। उषा उदयाचल पर्वत से अपना घूंघट उठा उठा कर झांक रही थी। पक्षी गण कलरव करके अपने नीड़ों से आलस्य को विदा दे नभ में उड़े जा रहे थे और सविता ने भी नित्य की भांति चित्रकार की कुटी का द्वार खोला और देखा, चित्रकार को नित्य की तरह चित्र की ओर एकटक ताकते हुए। वह धारे से कुटी के अन्दर आ उसके पीछे खड़ी हो गई और बहुत देर तक चित्र और चित्रकार को देखती रही- उसने देखा कि आज फिर चित्र में कल से अनेक परिवर्तन हो गए हैं। मनमोहन का रूप आज विश्व सौन्दर्य को भेदकर पारलौकिक सौन्दर्य त्रिवेणी में भीज रहा है- जमुना की तरंगें आज नवीन उमंग में भरकर हिलोरे मार रही हैं, मोहन के अधरों की मुरली मानों विश्व में एक बार फिर गुंजरित हो उठने को आतुर हो गई है- वह खोई खोई सी निरखती रही और देखती रही अपने चित्रकार की कला की चरम सीमा को ओर फिर धीरे-धीरे उसके निकट जाकर बैठ गई।

'चित्रकार'

उन्मीलित पलकें अस्थिर होकर निकट बैठी सविता की ओर घूमीं और असीम प्रफुल्लता से उसकी आंखें चमक उठीं- सवि तुम कितनी अच्छी हो! मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में था।'

तुम्हें, अपनी चित्रकारी से अवकाश कहा? इस चित्र के पीछे तो तुम हाथ धोकर पड़ गए हो। न खाने की सुध न पीने की सुध- मैं अकेली अकेली दिन भर घूमा करती हूं और तुम हो कि यह कहकर चल देते हो- आज नहीं कल नदी तट घूमने चलेंगे।

तुम पगली हो सवि! तुम्हें मैं किस तरह समझाऊं कि मैं कितना विवश हूं- नहीं तो तुम्हारे किसी भी अनुरोध को टालना मुझे नहीं सुहाता और टाला भी नहीं जाता जो मेरी सीमा है, मेरी प्रेरणा है उसके स्नेह बंधन से मुक्त होने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मुझे तो तुम्हारे साहचर्य में ही अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है- इतनी पवित्रता, इतना भोलापन भी इस विश्व में कहीं है? ऐसा विश्वास नहीं होता सवि-।

अच्छा बस करो पर यह बताओ कि तुम्हारा यह चित्र पूरा हुआ कि नहीं? और कितना पुट दोगे सौंदर्य का इसमें। इतने ही सौन्दर्य से विश्व की आंखें झप जाएंगी, कला प्रेमी इसे पाने को लालायित हो उठेंगे।

सच कह रही हो सविता तुम्हारी आंखों में सौन्दर्य का महत्व बहुत ऊंचा है- यह मैं जानता हूं। तुम्हारे मुख से अपने चित्र को सुन्दर सुन मुझे लगता है कि वास्तव में यह सुन्दर है- पर सवि सच बताना क्या तुम्हें इसमें कोई अभाव प्रतीत नहीं होता?

अभाव! नहीं तो, चित्रकार मुझे तो कुछ भी भास नहीं होता। सभी कुछ तो पूर्ण है। तुम इतने कलाविद् हो, तुम्हारा अंतर कला का अगाध भंडार है- यह प्रथम बार आज मुझे अनुभव हुआ। सच कहो तुम इतने लालित्य का सृजन कैसे कर सके?'

लालित्य का सृजन? मुझे तो बड़ा आश्चर्य हो रहा है सवि यह कहो कि यह तुम्हारे ललित भावों का प्रभाव है- तुम्हारी ही प्रेरणा से मैंने चित्र बनाना आरम्भ किया था और तुम्हारे ही भाव इसके आधार थे- इस प्रकार तुम्हीं को तो इसका श्रेय है।

चित्रकारन यह चित्र तो अब पूर्ण हो गया, और क्या करने को शेष है?

उसी को सोचते सोचते तो इतने पहर बीत गए और इसी कारण तो सवि, मैं तुम्हारे सामीप्य के लिये इस समय व्याकुल था। मेरा विचार था कि यदि तुम इस समय होतीं तो अवश्य मेरे अभाव की पूर्ति कर देतीं पुरुष की शक्ति जहां शिथिल हो जाती है वहां नारी की पहुंच होती है अब तुम्हीं बताओ न?

मुझे तो कहीं अभाव नहीं दीखता, चित्रकार। तुमसे मैं तो कह चुकी।

नहीं सविता- यह कभी नहीं हो सकता, कहीं अभाव है- और ऐसा अभाव कि मेरे अंतर को मथे डाल रहा है। आंखें उस अभाव की पूर्ति देखने को, कान सुनने को व्याकुल हैं-।

मुझे तो लगता है कि तुम पागल हो गए हो।

पर ऐसा नहीं है सवि- काश! तुम मेरे अंतर में होने वाले संघर्ष को देख पातीं। सवि, तुम्हारी उपस्थिति में मुझे अभाव का आभास और भी अधिकता से होने लगता है- तनिक ठहरो।

और चित्रकार अपनी भाव श्रृंखला में बह चला. . . कभी कदम्ब के वृक्ष को देखता, कभी कदम्ब पुष्पों को देखता। कभी जमुना की उताल तरंगों को निरखता... ओ वृन्दावन के वासी! तुम्हारी लीला के हेतु सभी सामग्रियां तो प्रस्तुत हैं- बोलो न? किस बात का अभाव है? और वह अचानक चौंक पड़ा. . .! भूले हुए को जैसे स्मृति हो आई हो। नयन हीन को जैसे ज्योति प्राप्त हो गई हो। उसी प्रकार चित्रकार शुन्य उन्मीलित नयनों से चित्र को ताकती हुई पास बैठी सविता के कंधे झकझोर कर चीख उठा. . . सवि! सवि!1 सुनो तो- सुनोगी मेरे अभाव की बात- आह! काश मेरे अभाव की पूर्ति हो पाती।

सविता अधिक उत्सुक हुई और बोली-

कहो न चित्रकार?

सुनो- तुम सदा की तरह मुझे पागल कहोगी. . . पर मैं तुमसे सब कुछ कह देने का लोभ नहीं छोड़ सकूंगा- और चित्रकार की भाव श्रृंखला फिर बंध चली- सवि, देख रही हो यह कदम्ब का वृक्ष, कदम्ब पुष्प, मनमोहन का अगाध सौन्दर्य- जमुना की नीलभ लहरी, गाउओं का स्वच्छन्द विचरण- गोधूलिका समय और और मधुकर की यह मुरली? तुम्हें सब कुछ पूर्ण लग रहा है- पर मुझे सब कुछ अपूर्ण लग रहा है- सब कुछ अपूर्ण- निर्जीव. . . असुन्दर. . लालित्य विहीन. . .! सवि! मैं कहता हूं सवि जिसके लिये मैं कई दिनों से पागल हो रहा हूं- वह आशा क्यों नहीं सफल होती? यह कदम्ब तरू मंद मंद मलयानिल से क्यों झूम नहीं उठता- इन कदम्ब पुष्पों से पराग क्यों नहीं झड़ता- यह जमुना की उताल जल लहरियें उन्नत होकर गोकुल विहारी के चरणों को चूगने के लिये क्यों नहीं मचल पड़तीं। गउएं जो साधो की ओर टुकुर टुकुर देख रही हैं, रम्भा रम्भा कर साधो का गुणगान क्यों नहीं कर उठतीं- शशि और सितारे मुसकरा कर मोहन का स्वागत क्यों नहीं करते- और सवि! यह मोहन का पीताम्बर मलायानिल से हिलोरे क्यों नहीं लेता- पावों के नूपूर झंकृत क्यों नहीं हो उठते. . . अलकों की लटें उड़ उड़ कर मधुकरों के समान मोहन के मनोरम मुख को छविमान करने के हेतु भौहों पर क्यों नहीं आ पड़तीं. . . और सवि! और सवि! मधुकर की यह मुरली गूंज क्यों नहीं उठती. . . जिसकी सुरीली तान से हिम शिखर तक प्रतिध्वनित हो उठते थे। जिसकी मधुर ध्वनि से गउएं रम्भा रम्भा कर अस्थिर हो जाती थीं- जिसके मादक स्वर से गोपियां गृहकार्य तज तज कर अपनत्व को भी विस्मृत कर. . . कदम्ब तरूकी ओर मधुबन के निकुंजों की ओर दौड़ पड़ती थीं सारा मधुबन जिसकी तान से मुखरित हो झूम झूम उठता था- और कदम्ब पुष्प भी खुल खुलकर झूम-झूमकर नीचे खड़े सांवरे का रूप निरखने को लालायित हो उठते थे- सविता- कुछ देखा? कुछ सुना तुमने? जबतक कुछ नहीं था तो तुमने आधार बनाया, आधार हुआ तो भाव प्रेरणा की, चित्र रूप में वह भाव व्यंजना हुई तो तुमने अभाव का भाव दिया और जब अभाव की प्रापित हो गई तो उस पूर्ति का साधन भी तो तुम्हीं हो। सवि- बोलो- बोला न? तुम चुप क्यों हो?'

चित्रकार! तुम्हारी इन सब बातों का मैं कुछ भी अर्थ नहीं समझ सकी हूं।

ऐसा मत कहो सविता! समझ न सककर तुम इसका साध्न कैसे बताओगी- बोलो?

पर तुम यह क्यों भूलते हो चित्रकार- कि यह कागज पर उतरा हुआ यह रूप भाव व्यंजना' मात्र हैं। इस निर्जीव चित्र में जीवन डालना, उसमें आत्मा का संचार कर देना ही यदि मानव के, तुम्हारे, हस्तगत होता तो हम तुम ही क्या चित्रकार विश्व का कण-कण सांवरे की वंसरी ध्वनि से उभ्दासित हो उठता, संसृतिका मन-मयूर मदहोश हो नृत्य कर उठता। जगत के अणु-अणु में एक स्वर्गीय संगीत झंकृत हो उठता। परन्तु चित्रकार, हम तुम मानव हैं। इतने उत्तावले न बनो। विचार शक्ति को छोड़कर भावनाओं को बहाव में इतना बह जाना उचित नहीं।