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कथा-कहानी
पद चिन्ह स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       उषादेवी मित्रा
स्मृति? व्यंग? दर्दीली आह? खेल? स्वप्न लीला? अथवा हो परिहास, सो भी ट्रेजेडी, या कामेडी ही। चाहे कुछ भी रहा हो, परन्तु है यह सत्य। सुधेन्दु? हां, उसी श्रीमान युवक के जीवन की एक छोटी घटना शराब भरी प्याली-सी।

ग्रीष्म के दोपहर को उपहास करती ट्रेन द्रुतगति से चलती और उसी निरन्ध्र भीड़ को चीरता सा सुधेन्दु जब सेकेण्ड क्लास के कमरे में चढ़ा तब मनमें थी असीम एकाग्रता, उत्साह। संगीत प्रियताने उसकी आराम प्रियता तक को ग्रास लिया था। उस भीड़ में खड़े खड़े जब म्युजिक कानफ्रेंस सुनने का आग्रह उसका प्रायः समाधिस्थ सा था, तब पहुंचा उस रिजर्व बर्थ से सुमिष्ट आह्‌वान- ÷आप मेरे बर्थ पर बैठिये, जगह है, सुन रहे हैं?'

वह स्वर? क्या ट्रेन ही में सहाना की मूर्छना शुरू हो गई? चकित, त्रस्त नेत्रों की दृष्टि पसार कर सुधेन्दु हतवाक हो रहा। अपराजिता लता-सी लचकती वह तरूणी। नीलाम नयन की नील मणि सी दृष्टि, तीक्ष्ण किन्तु आतुर दृष्टि उसी के मुख पर पसारे वह बैठी है न, पुकार रही है उसी को। उसे विश्वास नहीं हुआ, देखा और फिर देखा, मुसकरा पड़ा मनमें- यह तो नित्य नैतित्तिक घटना है, फिर इसके लिये चौंक कैसी?

रास्ता निकाल कर वह पहुंचा तरुणी के बर्थ तक, बैठ गया मुस्कान की अबीर मुंह पर लिये- ÷धन्यवाद'। कमरे में तब मृदु गुंजना हो रही थी- ÷मिस पारिजात हैं न?' कोई कहता गुन-गुनाकर- ÷हां, वही प्रसिद्ध नर्तकी।' यार, उस छोकड़े के भाग्य को तो देखो, इतने यात्रियों में से पारिजात ने चुना आखिर उस बेवकूफ छोकड़े को।

क्यों नहीं- एक सूटेड बूटेड महाशय सिगरेट की राख फेंकता हुआ कहने लगा- यह तो आपकी जबरन की ईर्षा है, जरा देखा भी उस युवक को।

रहने भी दीजिये- ÷कहने लगा झुंझला कर दीपेन जरा रंग गोरा हुआ तो क्या? क्या हममें से एक भी सुन्दर नहीं हैं?

हैं क्यों नहीं? किन्तु सुन्दर आकृति ही शायद आकर्षण का केन्द्र नहीं है।

तो?

मेरे विचार से मनुष्य का सौन्दर्य, रूप सब कुछ इसके व्यक्तित्व पर निर्भर है।

फिर यों कहिये कि सौन्दर्य की परिभाषा. .

हां, व्यक्तित्व है।

कम्पार्टमेंट की समालोचना, उक्तियां, उन दोनों के कानों तक नहीं पहुंच रही थीं, ऐसा नहीं है। एक अवहेलना से सुधेन्दु ने उस ओर देखा फिर मुंह में सिगार लगाए हुए ही पूछा, ÷आप भी शायद म्युजिक कानफ्रेंस में जा रही हैं।'

जी हां, मेरा प्रोग्राम है न।

ऐसा फिर गीत अथवा वाद्य का?

मेरा? अपनी गर्वीली आंखों को युवक की आंखों में गड़ाकर वह बोली- ÷नहीं, मृत्यु का।'

अपनी चौंक को अनायास छिपाकर लापरवाही से सुधेन्दु ने कहा- ÷अच्छा, आप ही पारिजात देवी हैं? बड़ी प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।' इसके बाद आंखों से चश्मे को निकाल कर सुधेन्दु साफ करने लगा और पारिजात की नशीली आंखें भरने लगीं उस मुख श्री पर।

ट्रेन की गति धीमी हुई, एक वृद्ध व्यक्ति ऊपर के बर्थ से उतरा, बोला सुधेन्दु से ÷आप? कानफ्रेंस में जा रहे हैं न?' एक बोझ उतरा, बड़ी खुशी की बात है। पारिजात की देख-रेख करना आप ही को दे रहा हू। उसे भी आगरे में ठहरना है। देख भाल और उसे घर तक पहुंचाना- यह सब आप करेंगे। मेरी छुट्टी। सुनती हो पारिजात, यह मेरे मित्र हैं। इसी स्टेशन पर मुझे उतरना है। विस्मय-विस्मय। दुनियां एक पहेली है। मैं सदा देखता हूं सुधेन्दु बाबू, मनुष्य की जरूरत किस अनोखी रीति से रास्ता खोज निकालती है, किस विचित्र ढंग से पूरी हो जाती है। यही देखिये न, इधर मुझे विशेष प्रयोजन था दो दिन रुकने की। उधर यह पारिजात अकेली परदेश जाए कैसे? सहसा राह में मिल गए आप। विस्मय-विस्मय।

ट्रेन रुक चुकी थी, और सुधेन्दु जबतक कुछ सोचे, कहे तब तक वृद्ध विस्मय विस्मय करता हुआ प्लेटफार्म पर उतर चुका था। नारी ने चक्र नेत्रों से सुधेन्दु को देखा, पूछा- ÷आप अड़चन में पड़ गए न मुझे लेकर।'

सहम कर सुधेन्दु ने कहा- मैं? नहीं तो।

आप होटल में ठहरेंगे न!

नहीं। एक आत्मीय के घर। वहीं आपको भी ठहराऊंगा।

सुधेन्दु सिगार सुलगाने लगा और ट्रेन के दूसरे यात्राी ईर्षालू नेत्रों से उसे घूरने लगे।

रात परी की अलबेली चाल में पीलू का ठाट, उधर आकाश देहरी पर देवबाकाएं चांद-किरण को लेकर लुका-छिपी खेल में व्यस्त।

चित्र-सा वह पुष्प पत्र शोभित वृहत्‌ बंगला, उस चांदनी में बैठा जैसे झपकियां ले रहा था। निस्तब्ध अर्द्धरात्रि नींद में थी मस्त।

टिन-टिन-टिन पड़े-पड़े सुधेन्दु ने आंखें उठायीं। तीन, बज गए तीन। और वह पारिजात? सुधेन्दु ने सिर घुमाकर देखा- यहीं तो रुद्वद्वार के उस ओर है वह विख्यात नर्तकी। सो गई होगी वह नीलम परी झेंप गई होंगी वह मदभरी आंखें और-

खुट। अलसाई हुई आंखों से सुधेन्दु ने उस ओर देखा, और तब उठ बैठा- आप! आप! क्यों तबीयत तो ठीक है न? पारिजात खड़ी थी सामने साड़ी का आंचल लोट रहा था धरती पर। केशराशि झूम रही थीं पीठ पर, आंखों के काजल पर शायद थी पराजय की थकान।

बोली- ÷आह यह दर्द और कल का प्रोग्राम। मैं तो उठ भी नहीं सकूंगी। यदि बाम आप दे सकें तो दर्द से शायद मुक्ति हो।' सुधेन्दु जल्दी से उठा, बाम की शीशी लाकर बोला- ÷आपने पहले ही मुझे क्यों न बुलाया? मुफ्+त में इतनी देर तकलीफ सही।'

ऊषा जाग चुकी थी। प्रभाती की गमक, तरु-हृदय में पक्षी का काकली गान। खुली खिड़की से अरुण प्रकाश कमरे में छिटक रहा था। घड़ी ने छः की घंटी बजा दी। सुधेन्दु सहमकर उठ खड़ा हुआ, उस चेतना से पारिजात भी मानों वास्तव जगत में लौट पड़ी। चलते चलते सुधन्दु लौटा- ÷अब दर्द कुछ कम हुआ न?

वह बाम मलते-मलते भूल ही गया था कि रात की घड़ियां निकली जा रही हैं।'

अपने कमरे में लौटकर सुधेन्दु पलंग पर लेट गया। पड़ रहा आंखें बंद कर। उन बंद आंखों में कौन जाने क्या क्या था?

उस दिन सूर्य की किरणों में फगुआ का रंग भर उठा था। वृहत हाल में, तब गीत शेष हो चुका था। था केवल नृत्य के ताल की अपूर्व गूंज। उसके अंग-प्रत्यंग में मानो यौवन का स्वर्णदीप जल उठा था- हां, उसी पारिजात के दर्शक ये मूक, मुग्ध, समाधिस्थ से। शत-शत नेत्रों की स्थिर दृष्टि उसकी आरती उतार रही थी।

परन्तु पारिजात? नवोढ़ा सी वह लजीली दृष्टि लौट पड़ती केवल सुधेन्दु के ही मुख पर। तब मानो आकण्ठ सुरा पानकर वह मस्तानी आंखें दुनिया को छिन्न-भिन्न कर डालना चाहतीं। एक उद्दाम बेग व्याप जाता उसके नृत्य में। दर्शक रहते विस्मय विमुग्ध सुधेन्दु रहता स्तब्ध, मुग्ध, देख कर उस नृत्य को।

विदा की वह बिछुड़ती बेला। मोटर पुष्प भार से दबी जा रही थी। कार के भीतर स्तूपीकृत सुगंधित पुष्प राशि के मध्य में उपविष्ट थी नर्तकी। एक ओर सुधेन्दु।

बेला, गुलाब, रजनीगंधा आदि पुष्पहारों से पारिजात का शरीर ढक चुका था। सुरभित पुष्प, राशि-राशि पुष्प प्रेम-नेह-श्रद्धा-भक्ति, आदर के पुष्प उपहारों के मध्य में वह मुख यदि बनदेवी का स्मरण दिला रहा हो तो विस्मय नहीं। पुष्प वर्षा के मध्य से कार चल पड़ी।

सुधेन्दु ने धीरे से अपना उपहार निकाला। वही एक छोटा-सा अपराजिता का पुष्प मात्र। रोमांचित पारिजात ने आदर, सम्मान से हाथ पसार दिया। सुधेन्दु आंखें उठाकर सहसा सिहर उठा, हां, प्रथम चुम्बन का उच्छ्वास पारिजात की आंखों में जाग रहा था। पल भर में पहचान लिया सुधेन्दु ने उस दृष्टि को। लगा उसे जैसे नर्तकी उसके जन्म जन्मांतर की परिचिता हो। पारिजात देवी- अपराजिता पुष्प तब भी था सुधेन्दु के हाथ में परन्तु उत्तर तब देता कौन? बोधहीन पारिजात की आंखों के सामने तब अतीत और भविष्य एकाकार हो चुका था। था केवल उन अर्द्ध निमीलित नेत्रों के सामने गौर वर्ण, सुगठित देह, एक सुन्दर पुष्प आकृति एवं प्रतिभावान उज्ज्वल नेत्रों के उत्सव की दीप्त दृष्टि। पल-पल पारिजात बिसारती गई वर्तमान को भी।

÷पारिजात देवी।' पुकार रहा था सुधेन्दु। उठा लिया पारिजात ने सुधेन्दु के हाथ से उस अपराजिता को। यत्न से रख लिया उसे अपने जूड़े में।

÷बिदा।' एक दर्दीली आह सा कह उठा सुधेन्दु- बिदा।

याद?

जाने कौन सी वांगमय भाषा, कौन-सा मूर्त विश्वास था उन दोनों के नेत्रों में। इसके बाद चल पड़े दोनों दो ओर- एक अतृप्त संतोष लिये लिये।

शीत की गुलाली संध्या- बासर-दीपकी खुशी-सी, द्वितल गृह के ऊपर के एक कमरे में अटक पड़ी थी। गृहस्थ गृह के शंखों का निनाद सान्ध्य वन्दना में लीन था। सो तब जैसे उसी ध्वनि में समता रखे पुकार रही थी बहनें- ÷सुधेन्दुदा , कहो न और कहानी। हां. . और भी मजेदार।'

पलंग पर पड़ी थीं-सुधेन्दु की मौसेरी दो बहने और चेयर पर बैठा था सुधेन्दु।

÷अच्छा सुधेन्दुदा, किसी लड़की से कभी तुम्हारा-' खिलखिला पड़ी दोनों बहनें- अपनी ही अधूरी बातों पर। पूर्ण कौतुक से कह उठा सुधेन्दु- क्यों नहीं

बहुतों से?- हंसी से लोट रही थीं दोनों- कहो न, हां-हां, वही कहानी सुनाओ न।

एक सचल आमोद, कौतुक से कह उठा सुधेन्दु- तो लो फूल तुलसी हाथ में। मैं सत्यनारायण की कथा सुनाऊं।

परिहास में मस्त कह चला सुधेन्दु- जाने क्या-क्या। और फिर मानो खेल-खेल में कब वह कह बैठा अपने ही जीवन की उस एक छोटी-सी बात को सो वह जान सका तब ही जब कि दोनों के प्रश्न का उत्तर वह दे चुका- पारिजात की? उसकी शादी हो गई है। उससे पुनः भेंट? हुई थी न कई माह पहले ट्राम में। उसने मुझे पहचान कर भी न पहचानना चाहा था। और मैंने? परन्तु . . .

सुधेन्दु की दृष्टि पड़ गई बहनों के मुंह पर। दोनों लड़कियों की आंखें विस्मय, अचम्भे से मानो बाहर को निकली आ रही थीं।

चुप क्यों हो गए सुधेन्दु दा, कहो न, उसे देखकर तुमने क्या किया? वह जोर से हंसा। फिर सहम कर खड़ा हो गया- ÷जरा बाहर जाना है।'

अर्द्ध रात्रि, निस्तब्ध गृह और उस रात्रि के एकाकीपन में डूबा हुआ सुधेन्दु। अनिद्रा से नेत्र पल्लव भारी हो रहे थे। पलंग पर पड़ा था सुधेन्दू।

कौन जाने उस स्तब्धता में अतीत का कोई चित्रवाणी युक्त हो रहा था या नहीं। सो यह भी कौन जाने- खेल खेल में जिस सत्य को आज वह कह गया, उसके लिये मन में दर्दीली पीड़ा थी या नहीं? फिर वह भी कौन जाने कि पथ चलने की बेला में जो पद चिन्ह हृदय के कोने में पड़ गए थे और जिनका कि निश्चिन्ह हो जाना ही अब तक निश्चित था, वह कल्पना मात्र थी या नहीं? फिर यह भी कौन कह सकता है कि वे पदचिन्ह कोई सत्ता, कोई दाबी लिये अड़ गए थे उस समय उसकी आंखों के सामने या नहीं। कैसे कहा जा सकता है कि उसके मनके प्राण में कोई प्रश्न उठा था या नहीं- क्या वह मात्र खेल ही था? उस दिन का पाना यदि सत्य था, तो आज की कहानी-कहानी ही क्यों। और यदि उस दिन के वे पल जीवन ही न थे, यदि आज की कही कहानी कहानी मात्र थी तो फिर वास्तविक है भी क्या?

कौन जाने क्या था सुधेन्दु के मन में।

किन्तु इतना तो सही ही है कि ठीक उसी पल में दुःस्वप्न देखकर जाग उठी पारिजात। और वैसे ही उठकर सूटकेस को खोला। एक चांदी की छोटी-सी डिबिया खोली उस डिबिया को जिसमें सूखा जरा जीर्ण एक फूल- छोटा सा फूल। दूर अतीत में भरम रहा पारिजात का चित्त अस्पष्ट एक सपना-सा। आच्छन्न हो रही थी वह। न जाने कैसा उठा कर रहा है उसका जी।

पलंग पर से मार्बल पत्थर सा सुन्दर शिशु पुकार उठा. . . मा-मा।

पारिजात दौड़ती पलंग की ओर चल दी।