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कथा-कहानी
तुलना स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       विजय वर्मा
रमा का रूप अतुलनीय है। यदि उसके मन का विकास भी वैसा ही होता। पंडित नारायणदत्त ने समझा था कि वे ऐसे विकास में अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा भाग ले सकते हैं, अतः उन्होंने एक महान योजना तैयार की थी पर जब उसे कार्यरूप में परिणत किया गया तब उसका फल सर्वथा विपरीत हुआ। मनोविज्ञान, प्राणि विज्ञान, समाज विज्ञान आदि की सहायता से और अनेक 'विशेषज्ञों' की सम्मतियों के आधार पर निश्चित की हुई अपनी योजना का ऐसा कुफल देखकर वे आश्चर्य स्तम्भित रह गए! इसी समय उनके घर में शैलबाला का प्रवेश हुआ। स्वयं उनकी स्त्री, रमा ने उसे बुलाया था। शायद वह अपनी इस बाल-सखी को अपने अदम्य स्वभाव की विजय दिखलाना चाहती थी।

शैल ने आकर देखा, रमा प्रतिदिन आठ बजे के निकट अपने शयन गृह से निकलती है, फिर नित्य क्रिया से निश्चिन्त हो, समाचारपत्रों को देखने के लिये स्त्री वाचनालय में चली जाती है। वहां से बारह बजे लौटती है। तब महाराजिन को छुट्टी मिलती है। खा पीकर वह स्त्री-समिति' में जाती है। वहां ऐसा कोई दिन नहीं बीतता जब वह किसी न किसी सदस्या से लड़ती न हो- और उस लड़ाई को पूरी तेजी पर न पहुंचाती हो! इसके लिये कोई न कोई विषय मिल ही जाता है। किसी ने कांग्रेस की या उसके किसी नेता की प्रशंसा कर दी, महासभा या मुस्लिम लीग के किसी नेता के बारे में कुछ कह दिया, या किसी धार्मिक अथवा सामाजिक बात के बारे में कुछ मत प्रकट कर दिया, बस रमा को भिड़ पड़ने का अवसर मिल गया। आज वह जिसकी प्रशंसा करने पर लड़ती है, कल उसी की निन्दा करने पर भी लड़ सकती है। इससे लोग समझते हैं कि उसको किसी सत्य की खोज या किसी सिद्धांत के अनुसरण से प्रेम नहीं है, बल्कि उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति वितंडावाद की ओर है और उससे भी कुछ आगे झुक गई है। शाम को पांच साढे पांच बजे वह इस समिति या 'क्लब' से वापिस आती है। रात को आठ बजे तक खा-पीकर फिर शयन गृह में चली जाती है। यही उसकी दिनचर्या है।

हां, एक बात रह गई। शयन गृह से मिला हुआ ही उसका श्रृंगार गृह भी है। दिन में खाने-पीने के बाद वह इसमें जाकर श्रृंगार करती है। रात्रि में भी इसमें कुछ समय देती है और प्रातःकाल भी। किन्तु वस्तुतः उसे अपने शारीरिक सौन्दर्य के लिये किसी विशेष श्रृंगार की आवश्यकता नहीं है, और इसे वह जानती है।

शैल ने दो दिन रमा का वाचनालय में और क्लब में साथ दिया। तीसरे दिन वह नहीं गई। उस दिन रोटी बनाने वाली को उसने रमा के पति के खा-पीकर बाहर जाते ही छुट्टी दे दी। दिन में पंडित नारायणदत्त जी की बैठक में जाकर उनकी मेज तथा पुस्तकों को उसने सजा दिया। दो-तीन पुस्तकों को कुछ समय तक पढ़ती भी रही। जब पंडित जी साढ़े चार बजे के निकट वापिस आए तब उन्हें अपने इस कमरे में व्यवस्था दिखाई दी। उन्होंने समझा, जो योजना उन्होंने कार्य में परिणत की थी उसका सुफल अब देखने को मिल रहा है। उस दिन ताजी बनी हुई जलपान की चीजें भी विशेष स्वादिष्ठ थीं। उन्होंने अपनी स्त्री को बुलाया। पर भीतर से उत्तर मिला- वे अभी समिति से वापिस नहीं आईं!

ओह समिति! कहां से मैंने यह समिति खुलवाई! अपने आप कहकर पंडित जी चुप हो गए!

साढ़े पांच बजे रमा आई। पंडित जी ने कहा- मैंने देखा कि मेरे इस कमरे की पुस्तकों को ठीक तरह रख दिया गया है और मेरी मेज+ भी सजा दी गई है। मैने समझा कि यह सब तुमने ही किया है-

रमा बोल उठी- मैंने! आपने ही तो न जाने कितनी बार इसपर दुख प्रकट किया था कि यहां की स्त्रियां स्वतंत्र भावनाओं और स्वतंत्र संस्कृति को भूलकर पुरुषों की क्रीतदासी सी हो गई हैं! मैं तो मेज को ही नहीं, कमरे के फर्श तक को प्रतिदिन दो बार साफ करना और जलपान सामग्री ही नहीं, दोनों जून का खाना बनाना भी अपना कर्त्तव्य या धर्म समझती थी, पर आपने ही बतलाया कि ये सब काम मुझे शोभा नहीं देते! क्या अब आपका विचार वैसा नहीं रह गया है?

इसके पहले कि पंडित जी उत्तर दे सकें वह कहती गई- यह काम शैल ने किया है, क्योंकि अभी वह बेचारी तनिक भी नहीं समझती कि आप इन कामों को करना कितनी हीनता का द्योतक मानते हैं और वस्तुतः उनके करने में कितनी आत्महीनता या आत्मप्रवंचना रहती है!'

पंडित जी चुप रहे, पर एक धीमी सी सांस उनके हृदय में ऐसी उठी जिसे अगर रमा देख पाती तो शायद उसे विशेष आश्चर्य होता!

वह उठकर जाने लगी तो हंसकर बोली- शक्ति के शिव से मिलन में ही आप वास्तविक आनन्द की उत्पत्ति मानते हैं, फिर आज इस सजावट की ओर आपकी दृष्टि गई ही कैसे?

इस अमृतमयी' हंसी के सामने पंडित जी कोई विरोधिनी बात कभी न कह सकते थे, आज भी न कह सके, पर उन्होंने पूछा- तो तुम्हारी सखी अपने पति के नशे और जुए की आदतों से परेशान होने पर भी, स्वयं नौकरी करके अपनी किसी तरह गुजर करके भी पति की गुलामी और दूसरों की सेवा में श्रद्धा रखती है?

संस्कार- आपके ही एक घनिष्ठ मित्र तो एक दिन एक घंटे इस विषय पर बोलते रहे कि संस्कारों का कितना गहरा प्रभाव हमारे मन पर रहता है! मुझी को देखिए- अपने को बदलने में कितनी अधिक कठिनाई हुई। अगर आपकी इतनी दृढ़ इच्छा न होती, अगर आप यह समिति खोलकर तरह तरह की अग्रणी स्त्रियों से अपनी तुलना करने का सुअवसर मुझे न देते और अगर मैं अपने उसी प्राचीन संसार में सड़ती रहती, वहीं की प्रतिगामिनी स्त्रियों के वातावरण में बनी रहती तो क्या मैं कभी यह जान भी पाती कि प्रगतिशीलता, या सभ्यता किसे कहते हैं! चीनियों और कट्टर हिन्दुओं की भांति मैं भी अपनी पुरानी संस्कृति को ही सर्वश्रेष्ठ संस्कृति मानती रहती और उसी के गुणगान करती रहती, जैसा कि शैला अब तक करती है! इतना पढ़ लिखकर भी नई धाराएं कुछ समझ नहीं पाती! मैंने उससे कह दिया है कि अपने बच्चे को यहां बुला ले और गर्मी की छुट्टियां भर यहीं रहे- मैं जाने न दूंगी! देखिए न अपने बच्चे को भी बिगाड़ डालना चाहती है, ऐसे निकम्मे आदमी के भरोसे उसे छोड़ आई है! ऐसे आदमी का क्या विश्वास!'

यदि मैं भी ऐसा ही हो जाऊं तो तुम मेरा विश्वास न करोगी?'

आपने स्वयं ही मुझे ऐसी पुस्तकें दी थीं जिनमें इसपर जोर दिया गया था। आपने स्वयं ही यह मुझे कई बार समझाया है और समझवाया भी है। जो इतना पतित हो सकता है उसका विश्वास कैसे किया जा सकता है? ऐसा करना तो सभ्यता और संस्कृति को मटियामेट कर देना होगा। जो संघर्ष में पराजित हो जाता है उसे छोड़ देने में ही अपना एवं सभ्यता का कल्याण है।