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कथा-कहानी
हत्यारा स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       नित्यानन्द
जब मेरा विवाह हुआ था, मेरी स्त्री सुभद्रा बिलकुल बालिका सी सरल थी। उसका सुन्दर और भोला मुखड़ा देखकर मैंने निश्चय किया कि कभी उस पर क्लेश की छाया न पड़ने दूंगा और न गरीबी का ही दुःख उसे भुगतने दूंगा। किन्तु हमारा सुख दो-तीन महीने तक ही रहा। फिर मुझे नौकरी करने इलाहबाद जाना पड़ा। सुभद्रा घर ही रही। वहीं से उसे एक लड़का उत्पन्न हुआ और एक वर्ष के बाद मर गया। तब से सुभद्रा मुझे बार-बार घर आ जाने के लिए लिखने लगी। किन्तु मूर्खतावश मैं सिर्फ उस पत्र को ही पढ़ता था- उसके पीछे अनलिखी बातों का समझने की कोशिश नहीं करता था। किन्तु जब उसके पिता ने मुझे लिखा कि वह अपने पुत्र की मृत्यु के दुःख से घुली जाती है, तो मैं नौकरी छोड़कर घर आ गया।

सुभद्रा वैसी ही थी। तरुण और सुन्दर, और इतनी कोमल कि कोई उसे एक बच्चे की मां नहीं कह सकता था। वह स्त्री का बोझ ढ़ोने लायक नहीं कही जा सकती थी। मुझसे उसने कभी मृत शिशु के बारे में बातचीत नहीं की और मैं चुप रहा। मुझे उस बच्चे का हालचाल सुनने की उत्सुकता तो थी, किन्तु मैं सुभद्रा को दुःख न पहुंचाना चाहता था।

कभी-कभी जब हम दोनों अपने छोटे-से मकान में बैठे होते थे, तो मुझे भास होता था कि हम दोनों बाल्यावस्था में ही हैं। एक नयी, प्रेममयी दुनिया में। हमें जीवन की कठिनाइयों का कुछ भी पता न था।

मैंने अपने गांव में एक छोटी सी दुकान कर ली थी। ऐसे ही हमारी गुजर चलती जाती थी कि अचानक एक दिन मुझे शहर जाना पड़ा। शायद शाम तक कार्य समाप्त न हो, इससे मैंने सोचा कि रात-भर वहीं ही रहूंगा। मैं सुभद्रा से वही कहकर शहर चला गया। किन्तु उसी दिन शाम तक मेरा काम हो गया और मैं रात को दस बजे के करीब गांव वापस आ गया। उस वार चांद नहीं निकला था और असमान पर धुंधला बादल छाया हुआ था। किन्तु एक अजब रोशनी आकाश में फैली हुई थी और ओस मेरे सिरपर पड़ रही थी-ओस या वर्षा, मैं कह नहीं सकता। अन्त में मेरा घर दिखाई देने लगा।

मेरा घर गांव के बाहर एक ओर था- अकेला ही सड़क की दायीं ओर-उससे थोड़ा आगे सड़क की दो शाखायें हो जाती थीं, एक तो गांव जाती थी, दूसरी बाहर। जब मैं मकान के दरवाजे तक पहुंचा, तो मुझे मालूम हुआ कि कोई और दूसरी सड़क से मेरी ओर आ रहा है शायद मुझसे मिलने।

मैं वहीं खड़ा हो गया और प्रतीक्षा करने लगा। मेरे マपर एक बड़े नीम के पेड़ की छाया पड़ रही थी। इसके बिना मुझे देखे वह आदमी मेरे बहुत नजदीक आ गया- मानो दरवाजे के भीतर जाना चाहता हो। फिर अचानक वह खड़ा हो गया और मुझे मालूम हो गया कि वह कौन है। वह गोपीनाथ था-सुभद्रा के ननिहाल का पड़ोसी। एक समय उसने भी सुभद्रा से विवाह करना चाहा था।

वह अचानक खड़ा हो गया और मैं भी छाया से बाहर आकर बोला - क्यों गोपीनाथ! इधर कहां जा रहे हो? इतनी रात को इतनी जल्दी?

वह एकदम उनर न दे सका और जब उसकी जबान खुली, तब उसकी आवाज अजब थी।

सचमुच मैं कह नहीं सकता कि मैं कहां जा रहा था। मैं तो सिर्फ सैर करने निकला था।

इस बार? मैंने पूछा।

हां। अब झूठ वह जल्दी बोल सका था- हां, मेरे एक मित्र ने मुझे खाने को बुलाया था। वहीं जाने की मंशा थी।

खाने की। मैंने आश्चर्यान्वित होकर कहा - यार, साढ़े दस बज चुके हैं। तुम्हारा मित्र तो खा-पीकर सो भी चुका होगा। किन्त जब खाने ही जा रहे हो तो चलो मेरे साथ ही खा लो। घर में दिया जल रहा है, इससे मेरी स्त्री अभी सोयी नहीं। कुछ बना देगी।

उसकी घबड़ाहट मुझे समझ पड़ी नहीं। कुछ देर तक चुुप रहने के बाद वह कुछ बड़बड़ाकर जाने को उद्यत हुआ। उसकी बातें मुझे समझ में आने के पहले ही मेरे घर का दरवाजा खुला और मैंने सुभद्रा को वहां पर खडे देखा, और तब, गोपीनाथ एकदम चुप हो गया।

सुभद्रा ने अन्धेरे की ओर देखते हुए पूछा- कौन है?

उसकी आवाज से मालूम होता था कि वह डरी हुई है। शायद घर के सामने इतनी रात को आवाजें सुनकर घबड़ा गयी हो।

कोई नहीं सुभद्रा! मैंने कहा- मैं और गोपीनाथ ही हैं। मैं खाने को कहता हूं- वह मानता नहीं। तुम खा चुकीं या नहीं?

कुछ देर तक सब निस्तब्ध थे। फिर जब सुभद्रा बोली, तो उसकी आवाज मुश्किल से पहचानी जाती थी।

ज्यादा तो कुछ नहीं, किन्तु जो कुछ है वह उनके लिए पर्याप्त होगा। उन्हें ले आओ।

परन्तु गोपीनाथ को किसी भी तरह मैं राजी न कर सका। वह जल्दी-जल्दी चला गया। मैं भी मुड़कर घर की तरफ चला। सुभद्रा वहां दरवाजे पर खड़ी थी, और जब मैंने उसका मुंह चूमने के लिए दोनों हाथों में लिया, तो अचानक मेरा दिल कांप उठा। मैं उसे चूमना भूल गया और चुपचाप भीतर गया।

और एकाएक मुझे सब कुछ मालूम हो गया और जीवन में कुछ माधुर्य था, वह लुप्त हाे गया। मैंने देखा कि दो थालियों में खाना परोसा हुआ रखा है-दो पीढ़े रखे हैं, एक ओर मेरे पिता का हुक्का रखा है-तम्बाकू भर कर। मैं हुक्का कभी नहीं पीता-परन्तु गोपीनाथ पीता है।

यह सब देखकर मैं पत्थर सा खड़ा रह गया। मेरे पीछे ही सुभद्रा भी भीतर चली आयी और अचानक वह भी पीली पड़ गयी। मुझे मालूम हो रहा था कि उसके दिल में कितनी उथल-पुथल हो रही है-मानो उसका दिल चीरकर मेरे सामने रख दिया हो।

परन्तु वह धीर थी और जल्दी से उसने अपने को संभाल लिया।

धीरे से हंसकर उसने कहा- मुझे मालूम था कि तुम आज ही आ जाओगे। इससे मैंने अभी भोजन नहीं किया, तुम्हारा रास्ता देखती बैठी हूं। अभी भी देरी थी-इससे मैंने हंसी में चिलम भी भर दी-तुम तो पीते नहीं, किन्तु यों ही दिल में आया कि भर दूं।

उसने ठहरकर देखा के इस झूठ का असर मुझपर कैसा पड़ता है। मुझे मालूम था कि ऐसी ही बाते वह वास्तविकतापूर्वक कर सकती थी-मेरे इलाहबाद जाने से पहले। मुझे चुप देखकर वह फिर बोली- और अब तुम आ गये हो। चलो, बैठो।

मैं पीढ़े पर बैठ गया और उसने मुझे वह खाना खिलाया, जो उसने अपने प्रेमी के लिए बनाया था। जब किसी को मर्मान्त चोट लगती है, तो वह एक दर्दभरा शरीर हो जाता है-उसके कुछ देर बार ही उसे चोट का पता लगता है। मेरा भी वही हाल था।

मैं मूढ़ सा वहां बैठा रहा और सुभद्रा हंस-हंसकर न जाने क्या कहती रही। मुझे मालूम था कि यह सब नाट्य है, कि वह मुझे देख रही है और शायद सोच रही हो कि मैं कहां तक समझ पाया हूं।

मुझे आज बहुत काम है, सुभद्रा, मैंने कहा - तुम जाकर सो जाओ।

ग्यारह तो बज ही गये हैं और ज्यादा देर मत बैठना, मेरी कसम।

उसने मुझे दोनों बांहों में भरकर चुम्बन किया-मानो मैं ही उसका प्रियतम था-मेरे मुंह से भी प्रेमवार्ता निकलने ही वाली थी कि वह चली गयी। जब तक वह सोने के कमरे में नहीं चली गयी, मैं उसे ताकता रह गया।

उसके इधर-उधर चलने का शब्द मुझे साफ सुनाई दे रहा था। फिर कुछ देर तक शान्ति रही, शायद वह प्रार्थना कर रही थी। फिर उसके चारपाई पर लेटने की आवाज आयी और मैं सोचता रह गया कि मेरी अवस्था में मनुष्य को क्या करना चाहिये।

किन्तु मैं कुछ सोच न सका, सिर्फ बैठा रहा। अन्त में जब दिया बुझ गया, तब भी मैं कुछ न सोच सका-सिर्फ उसके दुराचरण का नाम दुहराता रहा, उससे कोई लाभ न था, मैं तो समझ ही गया था-तब ही, जब कि मैंने दहलीज पर पांव रखा था। परन्तु इस बात ने मुझे एकदम विमूढ़ कर दिया था। मैं उसके आगे कुछ सोच न सकता था। कुछ निश्चित न कर सकता था। अन्त में मैं बैठा और सोने की कोठरी में गया।

सुभद्रा आंखे बन्द किये लेटी हुई थी। उसके घुंघराले काले बाल तकिये पर बिखरे हुए थे। मैं वहां खड़ा-खड़ा उसकी ओर देखता रहा, मुझे विश्वास न होता था कि यह सब सच है, क्योंकि सुभद्रा के चहरे पर वही सरल बालिकाओं का सा भाव था और शान्ति से उसके श्वास-प्रश्वास चल रहे थे, उनके साथ ही उसका सीना マपर-नीचे हिल रहा था-उसमें कम्पन न था।

परन्तु ज्योंही मैं मुड़ा, एक ऐसी आवाज हुई, जिससे मुझे मालूम हुआ कि वह सोयी नहीं है। जागती है और सिर्फ मुझे धोखा देने के लिए निष्कलंक निद्रा का अभिनय कर रही थी। परन्तु मेरी इस इतनी लम्बी परख के सामने भोलापन कायम रखने में उसे बहुत कठिनाई हुई थी। फिर मेरा 1दय कठोर हो गया और मुझे विश्वास हो गया कि वह सब सच है, कि सुभद्रा का स्वभाव मक्कार है।

मैंने दिया बढ़ा दिया और जाकर खटिया पर लेट गया और तब भी मुझे सबूत मिला कि वह सोयी नहीं है, किन्तु नींद का ढोंग कर रही है।

मैं लेटा-लेटा सोच रहा था कि मेरा कर्तव्य क्या है। मेरा दिल उससे यह कहने के लिए कि मुझे पता है तू मुझे देख रही है छटपटा रहा था। उसकी झूठी बातों का भण्डा फोड़ने को दिल करता था। कह नहीं सकता कि कितनी देर मैं ऐसे पड़ा रहा। धीरे-धीरे मुझे मालूम हो गया कि वह सो गयी है और मेरा दिल बदल गया-मानो एक कसा हुआ तार ढीला कर दिया गया हो।

मुझे तब भी नींद न आयी। मैं पड़ा-पड़ा छत की कड़ियां गिनता रहा और मेरे दिल में निरन्तर आवाज आती थी कि सुभद्रा दुराचारिणी है।

सुभद्रा मानो एक मुर्दे की तरह पड़ी थी-किन्तु उसका सरल, सुन्दर मुखड़ा, भोलेपन से भरा हुआ था।

ऐसे ही काफी देर हो गयी होगी, क्योंकि खिड़की का अन्धेरा गहरा हो रहा था-उषा का आगमन समीप था और अचानक कमरे का दरवाजा खुल गया और एक आदमी भीतर आया। वह भी अचरज था, क्योंकि दरवाजा खुलते वक्त जरूर चिचंड़ाता था और उसकी आवाज तक नहीं आयी। मैं चपचाप पड़ा रहा।

वह आदमी भीतर आ गया और भीतर से दरवजा बन्द कर लिया और कमरे में इधर-उधर घूमने लगा-बिना किसी शब्द के। मेरे मुंह से आवाज नहीं निकली और न मैं उसका चेहरा ही देख सका-मैंने देखने की कोशिश भी न की। सिर्फ कोई बच्चा जैसे पड़े-पड़े मां को देखता रहता है, वैसे ही उसे ताकता रहा।

इधर-उधर घूमकर वह हमारी खटिया के पास आया और सुभद्रा को देखता रहा। उसकी बांह सिर के पीछे पड़ी थी और एक हाथ सिर के नीचे था, ओठ अधखुले थे और लम्बी-लम्बी पलकें गालों तक पड़ी थीं। उषा की पहली धुंधली रोशनी खिड़की से भीतर आ रही थी और बाहर दूर कहीं एक मुर्गा बांग दे रहा था। बाकी सब निस्तब्ध था।

वह आदमी खड़ा होकर सुभद्रा को देख रहा था। मानो किसी निशाचर की छाया हो! और मैं उसपर आंखें गाड़े पड़ा था, बिना हिले-डुले।

सुभद्रा इतनी शान्ति के साथ लेटी हुई थी कि मैं सोचने लगा कि उस मनुष्य के भाव क्या हैं। क्या वह भी उसे एक निष्कलंक बाला समझता है या कलंकिनी पापिष्ठा, जिसका पाप पूर्व भोलेपन के कारण और भी महत्‌ हो? पर अकस्मात्‌ सुभद्रा चौंक पड़ी।

गोपी! उसके मुंह से निकला और मुझे पता लगा गया कि उसका स्वप्न क्या था, क्यों वह डरकर स्पप्न में इस तरह चिल्लाई। उसे मालूम था कि मुझे मालूम है।

फिर जो मनुष्य वहां खड़ा था, फिरकर इधर-उधर कुछ खोजने लगा। उसे पता नहीं था कि वह क्या खोजता है। परन्तु मुझे पता था। मेजपर वह एक बड़ा सा चाकू पड़ा रहा करता था। मैं उस आदमी को और उस चाकू को देखने लगा। धीरे-धीरे उसे ख्याल आया कि वहां पर चाकू होगा और उसने बिना देखे वह उठा लिया और हथेली पर उसकी नोक दबाकर देखी। कुछ देर खड़ा वह सोचता रह गया, फिर खटिया के पास आकर सुभद्रा को देखने लगा।

मैं पड़ा-पड़ा उसे देखता रह गया, मानो वह दीवार पर एक छाया-मात्र हो। उसका चेहरा देखने का ख्याल तक मुझे नहीं हुआ।

फिर सुभ्रदा ने करवट ली और सिर को पीछे हटा दिया और बांहे दोनों सिर के पर रख दीं। उसकी चादर पीछे सरक गयी थी और उसकी सफेद छाती नजर आ रही थी। उस आदमी ने एक कदम आगे बढ़ाया और वार किया।

और मैं जोर से चिल्ला उठा और चाकू को अपने हाथों से दूर फेंक दिया।

ईश्वर जानता है कि सुभद्रा की हत्या मैंने नहीं की, किन्तु कमरे में ही उस शव के पास था।

(यू0एन0एन0)