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कथा-कहानी
बन गई आखिर वह वेश्या स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
      
'मुझे छोड़ दो।' मनमोहन ने गिड़गिड़ाकर कहा- 'क्या तुम अकेले नहीं जा सकते?'

अरे, चलो भाई! तपेश उसे खींचता हुआ बोला- 'क्या फिजूल वक्त बरबाद कर रहे हो?'

मैंने तो साफ कह दिया कि मैं नहीं जाता। लेकिन तुम्हें जाना पड़ेगा और मुझे उम्मीद है कि तुम जरूर जाओगे।

मनमोहन और तपेश, दोनों दोस्त थे। उन्नाव के आसपास किसी देहात में मनमोहन का घर था। तपेश, लखनऊ यूनिवर्सिटी में ला फाइनल का विद्यार्थी था और मनमोहन ग्रेजुएट होकर कामकाज में लग गया था। अपने किसी काम से वह लखनऊ आया और तपेश के साथ ही ठहरा।

तपेश बीए में उसका सहपाठी था। कालेज से निकलने के बाद यह उसकी पहली भेंट थी।

कामकाज में लग जाने के पश्चात, हर व्यक्ति को अपने विद्यार्थी जीवन की स्मृति नहीं रहती। कहां वह शरारत, कहां वह आजादी, कहां वह लापरवाह तबियत? उदरकी चिंता जहां आयी तत्काल सभी विचार हवा हो गए। और मनमोहन के ऊपर तपेश जो इतना जोर दे रहा था, उसकी वजह भी यही थी। और ऐसे नाजुक वक्त में मनमोहन को लाचार होना पड़ा। दोनों शहर की ओर चल दिये। रास्ते में तपेश ने मनमोहन से पूछा- 'जानते हो, हम कहां चल रहे हैं?'

जब चल चुके हैं, तब जहां ले चलो। मैं जहन्नुम तक तुम्हारा साथ देने को तैयार हूं।

तुम नहीं समझे! तपेश बोला- मैं पूछता हूं, उसी पुराने शिकार में चलोगे या यह जो नई नायाब चिड़िया अभी कफस में आई है उसके यहां?

'मैं कुछ नहीं जानता'। अनमना सा मनमोहन बोला- 'तुम जहां ले चलो। मगर, जब चलना है, तब चुपचाप चले चलो। बकवास मत करो।'

एकाएक तांगा वाले ने घोड़े की रास खींचते हुए कहा- सरकार, यहीं उतर जाइये। आगे रास्ता खराब है। सड़क की मरम्मत हो रही है। दोनों तांगे से उतरकर पैदल चलने लगे और तांगावाले ने घोड़े को आगे बढ़ाया- 'ए बाबू. . ए।'

गली में अंधेरा नहीं था। ऊपर छत पर से जो तेज रोशनी आ रही थी, उससे गली के एक हिस्से काफी उजियाला फैल रहा था। और पान वाले की दुकान की बगल से ही सीढ़ियों की एक कतार ऊपर गई थी।

तपेश को हिचक नहीं थी। कई बार वह इस तरह किसी परिचित या अपरिचित के यहां निर्बाध जा चुका है। फिर, मनमोहन ही क्यों परेशान हो? व्रत तो भंग ही हो चुका है। सिर्फ एक साल से आदत में जरा सुस्ती आ गई है। यों, कोई कारण नहीं कि मनमोहन को घबराहट हो!

ऊपर पहुंचते ही, सबसे पहले उठकर, अधरों पर एक मन्द मधुर मुस्कराहट के साथ, जिसने तपेश का स्वागत किया, वह बेशक वही थी, जिसके लिये वे दोनों इतनी दूर से वहां आए थे।

आइये, बैठिये! एक कोमल कण्ठ ने पंचम स्वर में कहा और वे दोनों उसकी तरफ तृष्णा भरी दृष्टि से देखकर, मुस्कराकर बैठ गए।

फर्श पर बढ़िया कालीन बिछी थी और उसपर मखमली मसनद। तपेश मसनद के सहारे, जरा झुक गया और मनमोहन उसकी बगल में, एक किनारे, एकटक उस व्यक्ति को देखने लगा जो एक अजीब चुलबुलाहट के साथ, यौवन की अंगड़ाई लेकर, दोनों के सामने लापरवाह बैठ गया था।

क्षण भर तो दोनों चुप रहे। न तपेश ही कुछ बोल रहा था और न मनमोहन। आखिर, बाईजी ने स्वयं कमरे का मौन भंग किया- कहिये, क्या सेवा करुं?

मनमोहन ने तपेश की ओर देखा और तपेश ने बाईजी की ओर- 'पहले गाना-वाना ही रहे।'

और इसके बाद?

'वक्त आने पर बता दिया जाएगा।'

पूरे घंटे भर तक उस कमरे में सारंगी, तबला और मजीरे के तालपर किसी अप्सरा के चरणों का नूपुर 'छूम-छनन' करता रहा और किसी का सुमधुर कण्ठ समूचे कमरे को तन्मय करता रहा। और, अन्त में जब एक रोमांचक झनकार के साथ वह नृत्यमयी नारी प्रतिमा एकाएक बैठ गई, तब मनमोहन का ध्यान टूटा और तपेश के मुंह से निकल पड़ा- 'वाह!'

बाईजी ने एक अनोखी अदा और निराले अदब से, बल खाकर कहा- आदाब!

और भी कुछ? फिर वही मुस्कराहट और एक नाजुक और मीठी आवाज+ जैसे मिसरी में बसी हो!

आपका नाम लतीफनबाई है न?

जी, आपका मतलब?

कुछ नहीं, यों ही पूछा था।

आप कालेज स्टूडेण्ट हैं?

हां! तपेश ने चकित होकर कहा- 'तुमने कैसे जाना?'

मैं आपको जानती हूं।

कैसे?

कह दूंगी कभी! लतीफन ने मनमोहन की तरफ आंखों से इशारा कर पूछा- और ये?

मेरे एक अजीज दोस्त। इससे ज्यादा परिचय ये स्वयं हैं।

खैर, तो अब फरमाइये।

पहले एक बोतल शराब चाहिये। और तपेश ने कुछ रुपये जो गिनती में दस से अधिक थे, लतीफन के आगे फेंक दिये- 'और एक पैकेट सिगरेट, गोल्ड फ्लेक।'

जब तक शराब नहीं आयी, लतीफन की जादू भरी मुस्कान तपेश की आंखों को नशे से मस्त कर रही थी और जब शराब आ गयी, तब जानी वाकर का जादू सर पर चढ़कर बोलने लगा।

पैमाना छलका और तपेश ने मनमोहन की तरफ हाथ बढ़ाया- 'लो मेरे स्वास्थ्य के नाम पर, यह पहला घूंट, मेरे दोस्त।'

मनमोहन ने एक बार लतीफन की ओर देखा, प्याले को होठ से लगाया और गट-गट कर एक ही सांस में पी गया। इसके बाद तपेश ने, जी भर, और तब मनमोहन का प्याला भी भर दिया गया। वह भी साफ हो गया। इसके बाद, . . फिर. . .।

अब नहीं! अनिच्छा से सिर हिलाते हुए मनमोहन ने कहा- 'नहीं।'

और तपेश ने वह प्याला लतीफन के हाथ में दे दिया- लो पिलाओ, इन्हें! मगर देखो, नशा न आने पावे! और वह खिलखिलाकर हंस पड़ा।

लतीफन मुसकरायी। फिर सोच में पड़ गई।

उसने मनमोहन को देखा और कांपते हाथों से प्याले को बढ़ा दिया।

मनमोहन इनकार नहीं कर सका। उसने हाथ बढ़ाया। मगर लेने के पहले ही, प्याला हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ा और चारों तरफ एक मादक फेनिल गंध सी फैल गई। और मनमोहन अवाक्‌, अस्थिर!

वह लतीफन के यहां अपनी इच्छा से नहीं गया था। मगर वहां जाकर उसे ज्ञात हुआ कि अब तक वह संसार की एक अनुपम वस्तु के दर्शन से वंचित था। जितनी देर तक वह वहां रहा, खोया-सा। और जब लौटा, तब जैसे सपने से जाग कर। वह लतीफन को नहीं भूल सका।

मनमोहन ने जितना ही चाहा कि वह रात वाली बात को भूल जाए उतनी ही उसकी याद आने लगी। अन्त में उसने निश्चय किया कि चाहे जो हो, वह एक बार लतीफन के नजदीक जाएगा जरूर ही।

खा-पीकर, जब दिल की बेचैनी बढ़ी, तब वह बाजार की तरफ रवाना हुआ। घूमते-फिरते, मनमोहन लतीफन बाई के मकान के पास आ गया। वहीं से देखा, छज्जेपर काफी रोशनी थी। सीढ़ियों के पास एकाएक मनमोहन का पैर रुक गया। हिम्मत नहीं हुई कि ऊपर चढ़ जाए। कलेजा, न जाने क्यों, कांपने-सा लगा। और तब उसे अपनी गलती मालूम हुई। वह लौटा। मगर, छज्जे पर से किसी ने उसे देख लिया।

बाबू! ए बाबू जी! कोई पुकार उठा और मनमोहन ने पीछे घूमकर देखा कि लतीफन उसे उंगलियों से बुला रही है- 'वापिस क्यों हो गए? आइये।'

मनमोहन को बहाना सूझ गया- 'कुछ नहीं! सोचा, जरा पान खा लूं, फिर चलूं।'

ऊपर आइये। लतीफन बोली- मैं पान खिलाती हूं। और सच ही लतीफन ने बड़े प्रेम से पान के दो बीड़े लगाए और बड़े प्रेम से उन्हें बढ़ाया।

और मनमोहन जब तक वहां रहा, बेसुध रहा। और जब लौटा, तब उसे होश हुआ।

कुछ दिन बाद एक रोज जब मनमोहन जाने लगा, तब उसने व्याकुल होकर कहा- 'मैं कल यहां से चला जाऊंगा, लतीफन?'

क्यों? वह बोली- 'एकाध दिन और ठहर जाइये!'

मैं अब एक दिन भी नहीं ठहर सकता। मनमोहन ने कहा- 'लेकिन, मैं तुम्हें भूल नहीं सकूंगा।'

लतीफन की आंखों में आंसू छलछला आए।

मनमोहन ने सोचा, क्या यह वेश्या है? क्या यह यहां रूप का सौदा करने बैठी है या प्रेम? इतनी विचलित क्यों? उसने पूछा।

लतीफन ने कहा, सुनो।

उसकी उम्र अठारह साल की हो गई थी, लेकिन शादी नहीं हुई थी। परिवार में उसके पिता थे, मां थी और एक बड़ा भाई था। और उसका चेहरा हुबहू तुमसे मिलता था। यही नहीं, उसका नाम भी मनमोहन ही था।

मनमोहन ने चकित होकर कहा, क्या सच?

लतीफन बोली, सुनो तो।

उसकी शादी नहीं होने की वजह यह नहीं थी कि उसके पिता गरीब थे। मगर सच बात तो यह थी कि उसके पिता स्वयं दूसरा विवाह करना चाहते थे। और इस चिंता में वे इतने व्यस्त थे कि लड़की के ब्याह की कभी चर्चा ही नहीं उठी। जब-जब मां ने इस सवाल को उठाया, तब-तब पिता जी ने कुछ उल्टा-सीधा समझाकर उसे टाल दिया। और पिता जी के विवाह के लिये वह रुकी रही, जिस तरह कभी एक समूची एक्सप्रेस टे्रन किसी फर्स्ट क्लास मुसाफिर के लिये स्टेशन पर रुक जाती है।

मगर जवानी किसी का इंतजार नहीं करती। आंधी की तरह वह अपनी राह चली जाती है। वह रुक नहीं सकती, और न कोई उसे रोक ही सकता है। और उसी आंधी ने उसे भी अंधी बना दिया। एक रोज वह गांव के ही एक युवक के साथ घर छोड़कर निकल गई और निकल जाने के बाद उसे मालूम हुआ कि वास्तव में दुनिया क्या है?

उसने उसे प्यार किया, इसमें शक नहीं। लेकिन वह कमजोर था। लड़की की रक्षा करने में वह असमर्थ हुआ। वह उसे पाकर प्रसन्न थी। फिर भी, उसकी प्रसन्नता का कारण यह नहीं था कि वह स्वतंत्र थी।

तुम क्या मुसलमान हो? मनमोहन ने पूछा।

महाशय! लतीफन ने कहा- 'जिसने रूप और प्रेम का व्यापार किया, उसकी एक ही जात होती है।'

लेकिन नाम से तो तुम. . .।

आप जो चाहें, मुझे समझ लें। मगर सचमुच मैं न तो हिन्दू हूं और न मुसलमान। मैं वेश्या हूं, पतिता हूं, समाज का कोढ़ हूं। मैं तुम्हारी गली की वह गंदी नाली हूं, जिससे होकर तमाम शहर की गंदगी निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। आज तुम मुझपर मरते हो। क्योंकि मैं युवती हूं, सुन्दर हूं, आकर्षक हूं और मैं तुम्हारी सौन्दर्य पिपासा को शांत कर सकती हूं। कल तुम मुझे दूध की मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दोगे। क्योंकि मेरी जवानी चली जाएगी। मेरे गालों की लाली फीकी पड़ जाएगी। क्यों, यही है न या और कुछ?

मनमोहन का मुंह सूख गया। जी जैसे घबराने लगा। प्राणों के मर्म में कोई डंक सा मारने लगा।

और तब? मनमोहन ने कहा।

वह वेश्या हो गई।

लतीफन बोली, जहां से वह एक मुट्ठी अन्न के लिये ठुकरायी गई थी, वहीं से अब रुपयों की थैलियां बरसने लगीं। हजारों आदमी रोज उसकी गली में दिन-रात चक्कर लगाने लगे। सैकड़ों गोरे-चिकने नौजवान उसको सिर्फ एक दफे देख भर लेने के लिये तरसने लगे।

फिर भी सुख उसके भाग्य में नहीं। रुपयों से दुनिया खरीदी जा सकती है, लेकिन मन की शांति नहीं। एक आग जो निरन्तर उसके हृदय में चिता की तरह धू-धू कर रही थी, उसने अंतर के सम्पूर्ण रसभण्डार को जलाकर भस्म कर दिया।

और एक दिन संयोग से उसका भाई भी वहां आ पहुंचा। वही भाई, अपना सहोदर भाई, जिसने कभी उसको जूते की ठोकर से अलग कर दिया था, उसके प्रेम का भिखारी होकर, उसके घर आया।

अगर वह चाहती, तो उसे भी उसी तरह जूते की ठोकर मारकर भगा देती, लेकिन, वह जो वेश्या हो गई थी। वेश्या सदैव वेश्या है। वह न किसी की मां है, न किसी की बहिन और न किसी की पत्नी। वह बाजार का एक सौदा है, जिसे कोई भी आदमी उचित मूल्य देकर खरीद सकता है।

भले ही उसका भाई धोखे में रहा हो, लेकिन उसने अपने भाई को उसी वक्त पहचान लिया, जिस वक्त पहली बार अपने एक दोस्त के साथ वह उसके मकान पर पहुंचा था।

और, उसने उसे भी प्यार किया। एक वेश्या अपने प्रेमी के साथ जैसा व्यवहार करती है, ठीक वैसा ही व्यवहार उसने भाई के साथ किया।

'तो क्या तुम ललिता हो? मनमोहन तड़प उठा।'

'नहीं। ललिता तो उसी दिन मर गई, जिस दिन तुमने उसे पतिता कहकर स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। मैं तो पाप की एक साकार प्रतिमा हूं, कलंकिनी हूं, वेश्या हूं।'

'और मैं वेश्या का भाई. . .?' क्रोध और ग्लानि से मनमोहन थर-थर कांपने लगा। वह शराब के नशे में, भयानक आवेश से, लड़खड़ाकर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे की तरफ दौड़ा- 'भ्रष्टा...'

ललिता ने मनमोहन के दोनों पैर पकड़ लिये- 'भैया!'

मनमोहन ने जोर से ललिता को झिड़क कर दूर फेंक दिया और सीढ़ियों के नीचे झपटा।

ललिता तिलमलाकर गिरी। परन्तु, गिरकर तुरन्त उठ गई। छत से नीचे देखा, तो मनमोहन सड़क पर पागल की तरह बेतहाशा भागा जा रहा है।

उसने पुकारा- 'भैया... ओ भैया!'

लेकिन, मनमोहन भागता ही चला गया, जब तक रात के पिछले पहर के मटमैले अंधेरे में वह अदृश्य नहीं हो गया।

(यू0एन0एन0)