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कथा-कहानी
एक था लेखक रामदुलारे स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       द्विजेन्द्रनाथ मिश्र
रामदुलारे कहानी लिखता था। लेखकों में उसकी गिनती थी और लिखने के रुपये भी मिलते थे। बड़े बाजार के पास एक छोटा सा मकान किराये पर लेकर वह रहता था। खाना होटल में खाता, फिर वहीं से साइकिल पर कालेज चला जाता। होस्टल में वह कभी नहीं रहा, होस्टल से उसे चिढ़ थी।

कालेज में रामदुलारे की बहुतों से दोस्ती थी - दुश्मन कोई नहीं था। पढ़ने में भी बुरा नहीं था, थर्ड डिवीजन में कभी नहीं आया। क्लास में सब उसे चाहते थे। रामधार से भी जान-पहचान थी।

यह रामधार कोई वैसा साहित्यिक जीव नहीं था, न कोई ऐसा हंसोड़ा ही था, लेकिन एक दिन हुआ यह कि वह रामदुलारे को पड़ोस के सटे मकान के दरवाजे पर अचानक खड़ा मिल गया। क्लासफेलो था, हाथ जोड़कर बोला - 'नमस्कार'! तब फिर उससे बात करनी ही पड़ी; बोला कि, इस घर में उसके फूफाजी रहते हैं और वह कभी-कभी अपनी बुआ से मिलने चला आता है। तभी से अच्छी जान पहचान हो गयी।

जबसे जान-पहचान हो गयी है, रामदुलारे आते-जाते पड़ोस के उस मकान पर भी एकाध बार नजर डाल लेता है।

एक दिन शाम को सोचा कि चलो चौक तक घूम ही आवें- उधर से कुछ फल-वल लेते आवेंगे और घर से निकला। सिल्क का कुरता पहने था, हाथ में पतली-सी एक छड़ी थी, और पैरों में चप्पल। निकला कि नजर पड़ोस की खिडकी पर गयी कि वहीं ठगा सा रह गया। अरे, यह तो उसे मालूम ही न था - कैसे अचरज की बात है कि इसी घर में रहती है - इसी सटे मकान में!

वहीं, अपने दरवाजे पर, खड़े-खड़े सोचा कि शायद रामधार की फुफेरी बहन होगी कि- वह धीरे से पुकार उठी- ''ओ आमवाले।''

आमवाला खिड़की की उस पटरी पर था, गरदन घुमाकर देखने लगा।

पुकारने वाली ने अपनी सुन्दर सी बांह उठाकर बुलाया ''यहां आओ।''

रामदुलारे उसी तरह खड़ा था। पास से होकर एक खाली इक्का निकला, इक्केवाला पूछ बैठा - ''क्या हुजूर चौक?''

रामदुलारे चौंक पड़ा, कहा ''हां, चलो।''

इक्केवाले ने भीतर का मैला कपड़ा हाथ से जरा सा झाड़ कर कहा - ''बैठिये मालिक।'' और रामदुलारे इक्के में बैठ गया। वह पूछ रही थी - ''आम कैसे दे रहे हो?''

इक्का खड़खड़ाया कि उसने अपनी पलकें उठायीं - फिर पल भर में ही नीचे को देखकर बोली - ''दो आने की जोड़ी दो।''

इक्का आगे बढ़ा। रामदुलारे बैठा था। इक्का चलता गया, चलते-चलते चौक भी आ गया। रामदुलारे बैठा रहा। इक्केवाला बोला कहां ले चलूं सरकार? तब मानो रामदुलारे को याद आयी की अरे, चौक में ही इक्का खड़ा है।

उतरकर चल दिया, ............... ओ आमवाले! यहां आओ! आम कैसे दे रहे हो? दो आने की जोड़ी दो।........

इक्केवाले ने पुकारकर कहा - ''हजूर पैसे!''

रामदुलारे रुका, फिर उसे पैसे देकर 'सिनेमा' में जा बैठा।

कोई एक छोटी सी घटना कभी जीवन में बहुत मूल्यवान्‌ हो जाती है। रामदुलारे भावुक था, भावुक होने के नाते ही कहानी-लेखक बना था। उसपर वह घटना ऐसी बुरी तरह असर कर गयी कि सोते-जागते, उठते-बैठते उसे याद रहने लगी- ''ओ आमवाले! ........ यहां आओ.........!'' इक्का खड़ खड़ाया, उसने आंखें उठायीं, आंखों में वे आंखे आ गिरीं............. 'दो आने की जोड़ी दो।'

जब पूरा दृश्य समाप्त हो जाता है, तो रामदुलारे फिर उसे शुरू से दुहराता-'ओ आमवाले!......'

इसी तरह कई दिन हो गये। रामदुलारे निकलते-बैठते उधर देखता रहा, लेकिन वह मुख फिर नहीं दिखा। मात्र रात में अकेले कमरे में लेटे-लेटे वह देखता रहता-एक गोरी बांह, दो लाल चूडियां, पतली-पतली अंगुलियां-'यहां आओ....' जैसे उसने आमवाले को नहीं -रामदुलारे से कहा था, 'यहां आओ!'..... उसी बीच सड़क पर कोई सवारी निकल जाती, तब जैसे वह सब उड़ जाता।

वह कहानी लिखने बैठा था। सामने कागज रखकर कलम उठायी, लिखा-'उसका नाम था.......' क्या नाम था? रामदुलारे सोचने लगा-चन्द्रमुखी? नहीं, यह नहीं, उसका नाम था-उसका नाम था मोहिनी। शहर के दक्षिणी भाग में, बाजार के पास उसका घर था। वह स्कूल में पढ़ती थी और जगदीश पढ़ता था कॉलेज में। जगदीश उसका पड़ोसी था। उन दोनों का कभी परिचय नहीं हुआ था।

'एक दिन जगदीश घर से निकला, तो वह अपने दरवाजे पर खड़ी-खड़ी आम खरीद रही थी......' लिखते-लिखते वह रुक गया, इन लाइनों को बार-बार पढ़ने लगा। बोला, अरे भला यह भी कोई कहानी है। इसे कोई क्या पढ़ेगा! और हारकर कलम रख दी, फिर वहीं लम्बा लेटा रहा।

हवा धीरे-धीरे बह रही थी। रामदुलारे को झपकी आ गयी। सो गया। थोड़ी देर पीछे ही आसमान में जाने कहां से बादल घिर आये। रामदुलारे सोता रहा। तब फिर हवा ने जोर पकड़ा, खूंटियों पर कपड़े हिलने लगे। खूब जोरों के झोंके आ रहे थे, पास रखे कागज खड़खड़ाये और उड़कर तितर-बितर हो गये। कहानीवाला कागज दीवाल के पास जा लगा।

अचानक उसकी आंख खुली, तो देखा कि अन्धड़ चल रहा है। तब चुपचाप उठकर नीचे चला गया। कागज सारी छत पर इधर-उधर उड़ते फिर रहे थे। रामदुलारे को याद ही नहीं रही और वह कहानीवाला कागज उड़ा, तो सीधा दूसरे घर में जाकर गिरा। रामदुलारे की आंखों में नींद भरी थी, नीचे आकर फिर सो रहा। रात-भर आंधी सी चलती रही।

सुबह हुई। घर में कुसुमा सबसे पहले उठती थी, वही सबके पहले नीचे आयी। रातभर की आंधी कूड़ा सारे आंगन में बिखरा पड़ा था। वह जीने की सीढ़ी पर खड़ी-खड़ी देखती रही कि घर कैसा हो रहा है! फिर आकर आंगन में इधर-उधर घूमती रही। अचानक देखा कि एक कागज पर पेन्सिल से कुछ लिखा पड़ा है। पहले खड़े-खडे+ ही पढ़ा, फिर हाथ में लेकर पढ़ा, तो सन्नाटे में आ गयी! बड़ी देर तक उस कागज को हाथ में लिये खड़ी रही, फिर जाने क्या सोचकर उसे जेब में रख लिया।

वह बोली - ''मुझे भूख नहीं है।''

इस पर मां ने झल्लाकर कहा - ''भूख नहीं है-भूख ही नहीं है! क्यों भूख नहीं है? क्या खा लिया था?''

कुसुमा बोली - ''मेरे पेट में हल्का-हल्का दर्द हो रहा है अम्मां, सुबह बिना कुछ खाये पानी पी लिया था।''

''पानी क्यों पी लिया था? हांड़ी भर लड्डू घर में है और तुम्हें घर में कुछ खाने को मिला ही नहीं!''

''मुझे उस वक्त बड़े जोर से प्यास लगी थी, लड्डुओं की याद ही नहीं रही। ......... अच्छा अम्मां, तुम्हें मौसी का पता याद है? मेरे पास लिखा रखा था, सो जाने कहां खो गया।''

''क्या करेगी?''

''चिट्ठी लिखूंगी। डाकखाना कहां का है?''

''डाकखाना तो सलेमपुर का है, जिला झांसी। चिट्ठी कब लिखेगी?''

कुसुमा छतपर जाती-जाती बोली- ''दोपहरी में लिखूंगी, तुम खा-पी लो।''

वह कागज अभी तक उसके हृदय में ऊधम मचाये था। सुबह से वह उसे जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी! स्कूल गयी, वहां भी उसे नहीं भूली, पढ़ने में मन न लगा, तो वहां भी एक बार चुपके से उसे कापी में रखकर पढ़ लिया। फिर स्कूल से आते समय महादेवी से बोली-''तम्हें एक नयी बात सुनाऊं?

महादेवी ने कहा-''सुनाओ!''''

तब तक गाड़ी के सामने एक छकड़ा आ गया, गाड़ी रुक गयी। कुसुमा सिर घुमाकर उसे देखने लगी। महादेवी ने उसे हिलाकर कहा-''क्या नयी बात है, सुनाओ न?''

कुसुमा थोड़ी देर तक चुप रही, फिर बोली-''तुम हेमलता को जानती हो न? वह इस साल हाई स्कूल में फिर फेल हो गयी।''

''बस! यही नयी बात थी!''

कुसुमा ने धीरे से कहा-''हां।''

फिर उसका घर आ गया। आज मन जाने कैसा हो रहा था, रोटी भी नहीं खायी गयी। मां को चुप करके ऊपर आ पलंग पर पड़ी रही। छत में एक जगह पर काला निशान बना था। कुसुमा की आंखे वहीं जा लगीं। देखते-देखते वह निशान एक शक्ल बन गया-एक इक्के की शक्ल, इक्के में एक आदमी बैठा है। उस आदमी को कुसुमा देखने लगी-कुरता पहने है, छड़ी सामने रखी है। तब वह बोली -यह कागज अपने आप उड़कर नहीं आया है। जरूर किसी ने जान-बूझकर इधर फेंका है। और भला किसने फेंका होगा, कल उन्होंने मुझे आम लेते देखा था, उन्होंने यह लिखा है, उन्होंने इसे इधर डाला है! कैसी अजीब बात है! अगर और किसी के हाथ पड़ता, तो जाने क्या सोचता। वह तो यह अच्छा है कि नाम बदले हुए हैं, नहीं तो गजब हो जाता! समझ में नहीं आता कि इस बात को इस तरह लिखने की क्या जरूरत थी, फिर भला यह कागज इधर फेंका क्यों? आज तक कभी तो मेरी उनसे बातचीत नहीं हुई, अरे बातचीत तो क्या, मैंने उन्हें इससे पहले कभी देखा तक नहीं! फिर यह बात किसलिए हुई? आफत तो यह है कि किसी से पूछ भी नहीं सकती।...... इक्के की शकल मिट गयी-वहां एक धब्बा रह गया।

रामदुलारे को तो कुछ भी याद न रहा-न कहानी, न कागज। सोकर उठा, तो खूब दिन चढ़ आया था। जल्दी से नहा धोकर साइकिल उठा कालेज को सरपट भागा।

दोपहर को उधरे से जब लौटा, तक एक सम्पादक की चिट्ठी मिली कि कहानी भेजिये। उस समय सब जाग्रत हुआ। बहुत से कागज छतपर भीगकर चिपट गये थे। वह लिखा हुआ कागज नहीं दिखा, तो सोचा कि कहीं गिर-गिरा गया होगा।

और वह सबसे निबटकर लिखने बैठा। कहानी फिर वहीं से शुरू हुई और बहुत आगे तक चली गयी कि मोहिनी को मालूम हो गया कि जगदीश उसे प्रेम करता है, तो वह जगदीश से बची-बची रहने लगी। शायद वह मन ही मन उससे घृणा करती थी।.....

यहीं पर वह रुक गया। कहानी का अन्त उसके मन में बैठ नहीं रहा था, इसी से कलम ठहर गयी। कहानी का अन्त, अगर वह चाहता तो इस प्रकार कर सकता था कि- जगदीश को जब सब ओर से निराशा हो गयी, तो उसने हारकर मोहिनी का ध्यान छोड़ दिया- उसे भुलाने लगा, फिर दूसर साल जगदीश की किसी और लड़की से शादी ठहर गयी। ...... या फिर और ही किसी तरह से लिखता, लिखता कि-अचानक एक दिन जगदीश ने सुना कि मोहिनी की शादी होने जा रही है।.........लेकिन उसने यह कुछ भी न तो सोचा और न लिखा। वह जाने क्या सोचता रहा? शायद वह कहानी का अन्त इस तरह करना चाह रहा था कि ............. लेकिन वह लिख कुछ भी न सका। अन्त में, उदास होकर उसने लिखने का सब सामान उठाकर रख दिया।

सावन का महीना था। सोमवार को, शहर के बाहर 'एकलिंगजी' का मेला होता है। सड़क पर लारी खड़ी थी। एक आदमी पुकार-पुकारकर कह रहा था- मेला! मेला!

उस समय रामदुलारे घर में, हाथ पर हाथ रखे, खाली बैठा था। किसी भी काम को मन नहीं हो रहा था। उसने सुना, लारीवाला चिल्ला रहा था-''मेला-मेला! लौटा-फेरी के दो आने।''

आखिर रामदुलारे उठा, बरसाती ली और ताला लगा लारी के पास आ खड़ा हुआ। नौकर पास आ बोला -''चलिये बाबूजी भीतर बैठिये!'' और रामदुलारे दरवाजा खोलकर भीतर घुसने लगा। घुसते ही देखा कि जो कल्पना में नहीं था, वही हो रहा है; देखा कि सामने की सीट पर वह बैठी है! पास में मां है, उधर चश्मा लगाये जो बैठे हैं, वे शायद पिता हैं।

रामदुलारे खड़ा रह गया। घड़ी भर कुछ सोचा, फिर चुपचाप सीटपर बैठ गया। बैठकर, रामदुलारे ने देखा, देखा कि उसने इधर से मुंह फेर लिया है- सड़क की तरफ आंखे कर ली हैं।

मेले में रामदुलारे का मन नहीं लगा। वे लोग तो उतर कर सीधे मन्दिर की ओर चले गये, और वह थोड़ी देर तक खड़ा-खड़ा तमाशेवाले बन्दर की उछल-कूद देखता रहा, फिर मेले में तनिक देर घूमघामकर एक दूसरी लारी पर बैठकर घर चला आया।

उधर कुसुमा ने मन्दिर तक जाकर, लज्जा छोड़, चारों ओर किसी को देखा, फिर भीतर पहुंच पूजा के फूल चढ़ा दिये, और प्रार्थना करने को हाथ भी जोड़ लिये। लेकिन कहा कुछ नहीं, न मुंह से और न मन में। मां के साथ उसी तरह हाथ जोड़े खड़ी रही।.......

जब वहां से लौटकर लारी में आ बैठी, तो सोचा कि इस बार वैसी बात नहीं करुंगी; लज्जा तो ठीक है, लेकिन यहां तक क्यों? इसका मतलब ही क्या हुआ? क्या वे मेरे........? और मन ने सारी दृढ़ता से कह दिया-नहीं!'

बैठी-बैठी सोचती रही कि अभी मेले की सैर हो रही होगी। फिर वह रास्ते की ओर देखती रही कि अब आ रहे हैं। लारी तब तक ठसाठस हो गयी।

कुसुमा बोली-''बिलकुल जगह नहीं रही, वे कहां बैठेंगे?''

लेकिन सुना किसी ने नहीं, उसने मन में कहा था। केवल उस और मां के बीच मे थोड़ी सी जगह बची थी। कुसुमा ने एक बात सोची; मन ने कहा-'छिः!' और लारी चल दी। चलकर दरवाजे के पास आ रुक गयी।

उतरते समय एक नजर पड़ोस के किवाड़ों पर डाली, फिर मां के पीछे-पीछे घर में घुसी।

दसवें दिन की बात है। कुसुमा स्कूल की लाइब्रेरी में खड़ी मासिक पत्रिका की तसवीरें देख रही थी कि एक लाइनपर नजर जा रुकी कि-'लारी में उसने जानबूझकर दूसरी ओर को मुंह फेर लिया।'

लारी में! कुसुमा ने पीछे पेज उलटा। वह एक कहानी थी, और उसका लेखक था-रामदुलारे बी0ए0।

तब कुसुमा ने धड़कते दिल से पढ़ना शुरू किया-'उसका नाम था मोहिनी..........'

ठीक वही कागजवाली कहानी थी। कुसुमा को पसीना आ गया। धम्म से कुर्सी में बैठकर पढ़ने लगी-'ओ आम-वाले!......'

वह पढ़ती गयी-पढती गयी, सब कुछ वही था! और फिर लिखा था कि- 'जगदीश को इतने प्रेम का प्रतिदान मिला-मोहिनी की उपेक्षा। यहीं तक नहीं था, वह उससे मन ही मन घृणा भी करती थी। उसे जगदीश की शक्ल से नफरत थी। नहीं तो उस दिन लारी में, जगदीश का इतना तिरस्कार-इतनी अवहेलना क्यों होती?

कुसुमा के दिल में 'धक्‌-धक्‌' होने लगी। कहानी खत्म नहीं हुई थी, नीचे कोने में लिखा था -'अगले अंक में।' एक लम्बी सांस लेकर उसने पत्रिका बन्द करके रख दी, फिर धीरे-धीरे उठकर बाहर चली आयी कि घण्टा बज गया, तब कुसुमा क्लास में जा बैठी। मास्टरनी ने जब कहा-'राइट डाउन!' तो जैसे वह सोते से चौंक, कापी खोलकर लिखने लगी।

उसी शाम को वह महादेवी के घर पहुंची। किसी काम में जी नहीं लग रहा था। आते ही उससे बोली-रेकार्ड बजाओ।

महादेवी ने एक मजाकिया गाना चढ़ा दिया। रेकार्ड बजने लगा और महादेवी हंसती-हंसती लोटने लगी, लेकिन कुसुमा को बहुत थोड़ी हंसी आयी। जब वह खत्म हो गया, तो बोली- ''रहने दो, इसे बन्द कर दो। कोई किताब पढ़ो।''

''किताब? किताब इस वक्त क्या पढूं?''- कहकर वह पलंगपर पड़ी रही।

महादेवी ने बाजा उसी तरह छोड़ा, आलमारी खोलकर कोई पत्रिका निकाल लायी, फिर पास पड़ी आराम-कुर्सी पर लेटकर बोली-''पढूं?''

''हां पढ़ो।''

महादेवी पढ़ने लगी- 'उसका नाम था मोहिनी ........'

कुसुमा उठकर बैठ गयी, बीच में ही बोल दी - ''अखबार है कि किताब? कौन सा अखबार है?''

''तुम्हें इससे क्या, कहानी सुनो।''

पागलों की तरह गिरकर वह बोली - ''अच्छा सुनाओ।''

और महादेवी सुनाती गयी कि वह जगह आयी - 'जगदीश को इतने प्रेम का प्रतिपादन मिला-मोहिनी की उपेक्षा! यहीं तक नहीं था .........'

कुसुमा फिर उठ बैठी, हाथ हिलाकर जल्दी से बोली ''रुको-रुको!''

''क्यों?'' महादेवी चुप हो रही।

''यह गलत है।''

''क्या गलत है?''

''यह कहानी गलत है......... यह यहां पर बिलकुल गलत है। मोहिनी ने घृणा नहीं की थी।''

''घृणा नहीं की थी। क्या पागलों की सी बातें कर रही हो! तुम्हें कैसे मालूम कि उसने घृणा नहीं की थी। लिखने वाले के मन की बात तुम जान ही कैसे सकती हो कि क्या समझकर उसने लिखा है?''

''सो नहीं, यहां पर कहानी साफ गलत हो गयी है, लिखने वाले को क्या पता?''

''बहुत ठीक। लिखने वाले को पता नहीं, तुम्हें पता है! अच्छा, तो फिर कैसा होता?''

''होता कैसा? मोहिनी ने उससे घृणा की ही नहीं।''

महादेवी हंसने लगी। हंसकर पूछा- ''अच्छा, यह बतलाओ कि तुमने आज क्या-क्या खाया है? किसी ने तुम्हें धोखे से भांग तो नहीं खिला दी?''

''हिशू!''

महादेवी 'खिलखिला' करके हंस पड़ी, बोली-''तो फिर आज तुम ऐसी बातें क्यों बक रही हो? हजार बार तुमने अखबार में कहानियां पढ़ी हैं, लेकिन उनमें तुम्हें कभी कोई गलती नहीं मिली। सड़ी से सड़ी कहानियों में तुम्हें गलती नहीं दीखी और इस कहानी को कहती हो कि गलत है! पता है - इसी कहानी पर इनाम दिया गया है!''

''इनाम दिया गया है!''

''इनाम उसे हमेशा मिलता है। तुम देख लेना, अगले महीने कहानी पूरी होते ही उसका नाम इनाम पाने वालों में निकलेगा, न मानो, अभी से शर्त लगा लो!''

कुसुमा चुप रह गयी। गोदी में तकिया रखे बैठी थी, उसी पर अंगुली से कुछ लिखने लगी।

महादेवी ने कहा- ''तुम बड़ी वह हो, बीच में ही सब चौपट कर दिया।''

''सुनाओ, आगे सुनाओ।''

''अब क्या सुनाऊं- यहीं पर खत्म है, अगले अंक में पूरी होगी। देखें आगे क्या होता है! अच्छा, तुम बड़ी अक्लमंद बन रही हो, बतलाओ, क्या होना चाहिए?''

''पहले तुम बतलाओ।''

''मेरी समझ में तो दोनों में सुलह हो जानी चाहिए, और फिर.......''

''और फिर क्या हो?''

''हो क्या, फिर उन दोनों की शादी हो जाये।''

''हिश!''

''अच्छा, रहने दो, तुम बतलाओ।''

''मैं कुछ नहीं जानती, मुझे क्या मालूम कि लिखने वाला क्या लिखेगा? वह जाने क्या लिखेगा? तुम्हारी कविता वाली कापी कहां है? उसमें से कुछ सुनाओ न!....''

''वह मिलती ही नहीं, जाने कहां रखकर भूल गयी! कल मैं घण्टे भर से उसे ढूंढ़ती रही, फिर भी नहीं मिली।''

''तो जाने दो, क्या बजा होगा?''

''छः-साढ़े छः होगा।''

''बहुत देर हो गयी, मैं जाती हूं। अच्छा, कल तुम हमारे घर आना।''

''क्यों, क्या बात है?''

''बात कुछ नहीं है, तुम आना।'' कहती-कहती कुसुमा उठ गयी।

रविवार की छुट्टी थी। दिन के आठ-नौ बजे थे। रामदुलारे साइकिल लेकर बाजार को चला, दर्जी के यहां से कपड़े लाने थे। अभी दस कदम ही बढ़ा होगा कि उधर से रामाधार को तांगे में आते देखा, नमस्कार करके अपने-आप बोला-''जरा बाजार हो आऊं, अभी आता हूं।'' तांगे से थोड़ा सिर निकालकर रामाधार ने कहा -''जल्दी आना!'' कहकर वह साइकिल भगा ले गया।

दर्जी की दुकान पर आकर पूछा - ''कपड़े तैयार हैं न? मालिक बोला -''जी हां, सब तैयार हैं, जरा कमींजों में बटन लगाने को रह गये हैं। बस सब तैयार ही हैं। आइये, तशरीफ रखिये। क्या बतलाऊं कल एक रिश्तेदारी में फंसी गया, दुकान खुल न सकी। अब बस जरा देर है! आइये, आइये, ऊपर निकल आइये।''

रामदुलारे ने कुछ नहीं कहा, चुपचाप साइकिल खड़ी कर कुर्सी पर जा बैठा। जब बटन टांके जा रहे थे, उसने सोचा-आज रामाधार से उसकी चर्चा छेड़ूंगा, कुछ न कुछ तो मालूम होगा ही। फिर अपने-आप सवाल उठा कि, क्या मालूम होगा?

जवाब आया कि यही सब कि उसका क्या नाम है, कौन-सी क्लास में पढ़ती है, शादी कब होगी।

सवाल हुआ कि, अगर शादी हो चुकी हो, तो?

जवाब आया कि, नहीं, शादी अभी नहीं हुई होगी।

तब सवाल उठा कि, किस तरह का वर उसके माता-पिता चाहते हैं? जवाब था कि, यह कौन जाने? लेकिन हां, यह तो याद ही नहीं रहा कि वे कान्यकुब्ज हैं, और हम भी तो कान्यकुब्ज हैं। तब फिर?....... अच्छा मान लो, अगर रामाधार ही यह प्रस्ताव लाये कि .......

दुकान के मालिक ने कहा - ''क्यों साहब, चीन-जापान की लड़ाई की क्या खबर है?''

रामदुलारे झुंझलाकर बोला - ''मुझे भाई, चीन-जापान की लड़ाई की क्या खबर है?''

''अरे साहब, हमें फुरसत ही कब मिल पाती है कि अखबार पढ़ें। आप देख ही रहे हैं, काम इतना बढ़ गया है दम नहीं मिलता।''

राम दुलारे चुप रहा।

वह बोला-''अब इधर हमने जनाने कपड़ों का खास इन्तजाम किया है, सब फैशनों की चीजें तैयार करते हैं। अब आपको बच्चों के कपड़े कहीं दूसरी जगह ले जाने की जरूरत नहीं है।''

रामदुलारे हंसी रोककर बोला-''मैं तो अकेला ही हूं।''

''ओहो, माफ कीजिये।''

तब तक नौकर कपड़े ले आया। उसने चश्मे को संभाल कर कहा- ''लीजिए साहब, तैयार हैं।''

रामदुलारे ने जल्दी से दाम दिये और कपड़े लेकर तेज चाल से लौटा। और आकर साइकिल पड़ोस के दरवाजे पर ही रोकी। कपड़ों का बण्डल हाथ मे लिये चौखट पर चढ़ आया, तब सोचा कि, किसे आवाज दे? घर में घुसते ही बायीं ओर से एक जीना ऊपर को गया था। बैठक ऊपर ही थी, भीतर जनाना था। उसने सोचा कि ऊपर चले चलें, रामाधार तो होगा ही आवाज देने की कौन जरूरत है, कि कोई ऊपर से आता जान पड़ा। जीना बीच में एक जगह घूम गया था, रामदुलारे वहीं खड़ा रहकर आनेवाले का इन्तजार करने लगा थोड़ी देर में ऊपर की सीढ़ी पर चप्पल दीखीं, देखते ही रामदुलारे एक तरफ को हट गया। धीरे-धीरे चप्पलों की आवाज होती रही कि सहसा रामदुलारे न अपने सामने उसे खड़ा पाया और अपने-आप ही आंखे चार हो गयीं।

दो सेकिण्ड निकल गये, पलकें गिर गयीं और चप्पलें धीरे से हटीं कि रामदुलारे ने पूछ दिया -''रामाधार ऊपर हैं?''

चप्पलें रूक गयीं, लेकिन पलकें नहीं उठीं। दो सेकिण्ड और निकल गये। रामदुलारे खड़ा था। कोई उत्तर नहीं और चप्पलें धीरे-धीरे हटने लगीं, फिर अन्तर्धान हो गयीं।

रामदुलारे घड़ी भर उसी तरह खड़ा रहा, फिर क्षुब्ध होकर बाहर आया, साइकिल पकड़कर अपने दरवाजे की ओर बढ़ा। आकर ताला खोला, साइकिल भीतर रखी, फिर आंगन में खड़ा होकर बोला-''यहां तक! और घर का ताला उसी तरह बन्द करके एक साथी के यहां चला गया कि कहीं रामधार से भेंट न करनी पड़े।''

उधर कुसुमा भीतर जाकर पलंग पर पड़ रही। उसे अपने ऊपर बार-बार क्रोध आ रहा था कि क्यों उसने उनकी बात का जवाब नहीं दिया। उस दिन की लारी की बात उन्होंने जिस तरह कहानी में लिखी थी, उसी तरह इसे भी लिखेंगे कि मोहिनी को ........

लेकिन उसके मन की बात कौन जानेगा?

वह रामाधार के लिए नाश्ता लेकर ऊपर गयी, उस समय रामाधार अपने फूफा से इस रामदुलारे के बारे में कह रहा था कि कैसा तेज और चरित्रवान युवक है। कहानी लेखक है और खुशी की बात यह है कि अपनी ही बिरादरी का है। कुसुमा सुनती रही और तश्तरी संभालती रही। बिरादरी की बात सुनकर वह डरी कि कहीं पिता यह न कह दें कि ......। लेकिन परमात्मा ने बचा लिया। वे बोले -''लो, नाश्ता कर लो, कुसुमा तबसे खड़ी है।''

और नाश्ता देकर वह उतरी कि सामने खड़ा पाया रामदुलारे को! तब फिर उससे इतना नहीं कहा गया कि 'हां' और वह सोचने लगी कि भला अब इसका क्या प्रतिकार हो सकता है? उन्होंने क्या सोचा होगा? अगर रामाधार भैया से उन्होंने यह बात कही, तब वे भला क्या सोचेंगे? सोचेंगे कि क्यों जवाब नहीं दिया! सोचेंगे कि ............

मुझे जवाब देना था, कहना था कि- 'हां, रामाधार भैया ऊपर बैठें हैं, चले जाइये।' किस तरह से कहती? इस तरह से - कुसुमा ने अपनी परीक्षा ली, अपने आप धीरे धीरे बोली - हां, रामाधार भैया ऊपर बैठे हैं; चले जाइये। लेकिन कहते-कहते उसकी आवाज कांप गयी।

महादेवी हंसकर बोली -''अब कहो, हार गयीं न। मानती ही नहीं थीं, अब कैसी चुप हुईं?''

कुसुमा अचरज से कहा -''क्या बात है? मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आया, कौन हार गया?

''कौन हार गया! अब अनजान मत बनो ....... तुमने पढ़ी तो जरूर होगी!''

''क्या पढ़ी होगी?''

''वही कहानी, और क्या? सच कहना, तुमने नहीं पढ़ी?''

''नहीं तो, मुझे तो याद भी नहीं रही!''

''यह देखो'' महादेवी ने पत्रिका उठाकर उसके हाथ में दे दी- ''अब अपनी आंखों से पढ़ लो।''

कुसुमा पढ़ने लगी ..............

महादेवी चुपचाप बैठी रही। पढ़ते-पढ़ते जब कहानी का अन्त होने लगा, कुसुमा का मुंह लाल हो उठा, माथे पर पसीना आ गया-उसने धीरे से पत्रिका बन्द कर रख दी।

महादेवी बोली - क्यों मैने कहा था वही हुआ न? तुम तो मानती ही नहीं थी, अब हार गयी न!''

कुसुमा ने बलपर्वूक मुसकराकर कहा - ''फिर?''

''फिर क्या, मैंने तुम्हें हरा दिया!''

''बड़ा भारी काम कर डाला।''

''और तुम क्या समझती हो! यह कोई छोटी बात नहीं है!''

तब तक घण्टा बजा।

महादेवी हंसती-हंसती चली गयी।

कुसुमा का वह 'पीरियड' खाली था। वहीं लाइब्रेरी में बैठी सोचती रही कि आखिर कहानी का अन्त इस तरह हुआ। मोहिनी की उसी जगदीश के साथ शादी हो गयी। क्या .......

इस 'क्या' पर आकर कुसुमा रुक गयी। मन कर रहा था कि 'क्या' से आगे की भी बात कह दी जाए, लेकिन वह बलपूर्वक उसे रोककर कह रही थी कि-यह सब लेखकी अपनी कल्पना है, वास्तव में क्या ऐसा हो सकता है? जिस तरह बीच में वहां पर, लारीवाली घटना में, गलती हो गयी है, उसी तरह ..........

'उसी तरह' पर कुसुमा फिर रुक गयी। मन कर रहा था कि आगे की बात अब नहीं कही जाए, लेकिन कुसुमा बलपूर्वक कहना चाहती थी कि, उसी तरह यहां पर भी गलत हो गया है- मोहिनी की जगदीश के साथ शादी नहीं हुई है। तब सहसा किसी ने चुपके से उसके कानों में कहा- ''क्या उनके साथ तुम्हारी शादी नहीं हो सकती?''....... और मानो सहस्त्र कण्ठ पुकार रहे- 'हां, हो सकती है।'

सुनकर कुसुमा का मन भीग गया।

सहसा दृश्य बदल गया ...........

घर के छोटे से आंगन में मण्डप बना है। उस मण्डप के नीचे, यज्ञ-कुण्ड के आगे, कुसुमा मुंह ढांपे बैठी है। उसके हाथ, बिल्कुल पास एक व्यक्ति के हाथों में दे दिया। हलके गुलाबी अवगुण्ठन में से कुसुमा ने तनिक आंख उठाकर देखा- वह आंख उठाकर देखा- वह व्यक्ति और कोई नहीं, रामदुलारे है। कुसुमा देख रही थी- साफ-साफ देख रही थी, आज से रामदुलारे उसके जीवन का स्वामी हुआ, उसके सर्वस्व का अधिकारी हुआ। पिता बोले-''कहो बेटी, त्वयि मे हृदयं दधासि।'' कुसुमा ने कांपते कांपते कहा- ''त्वयि मे हृदयं दधासि।''

तभी टन्‌ करके घण्टा बज उठा। कुसुमा को होश आया। देह अब तक कांप रही थी, मानो वह अभी-अभी मण्डप से उठकर आई हो! .........

और सब लड़कियों के साथ वह भी क्लास में जा बैठी लेकिन उस दिन पाठ उसने जरा भी नहीं सुना। कान में गूंज आती रही - 'त्वयि में हृदयं दधासि'।

रामदुलारे का मन उदासी से भर गया। उस घर में रहना बुरा लगने लगा, न जाने कब उस अभिमानिनी से भेंट जो हो जाए। उसके दिल में एक बात आयी, घर को उसी तरह छोड़कर कालेज के पास, अपने सहपाठी के यहां, एक लाज में जा रहा। वहां पहुंचकर उसका मन बहुत शान्त हुआ।....

वह अपने लिए जाने क्या समझती है? यह पता नहीं कि मेरे सामने उसका बड़प्पन एक तिनके के बराबर भी नहीं है। कुछ ऐसी सुन्दर भी तो नहीं है, जाने किस चीज पर उन्हें इतना नाज है!

फिर आराम से पलंगपर लेटकर बोला- ''उंह, होगा जी! हमें इससे क्या? अभी यहां रह ही रहे हैं, ठीक समझेंगे तो किसी दिन अपना सामान भी वहां से उठवा लेंगे। अपने अकेले में वे अभिमान किये बैठी रहें, यहां किसे देखने की फुरसत है।

इसके चौथे दिन रामधार कुसुमा के घर पहुंचा। पहले थोड़ी देर बैठा बुआ से गपशप करता रहा, फिर रामदुलारे से मिलने के लिए कहकर बाहर उठ आया। लेकिन दो मिनट बाद ही लौट आकर बोला - ''वह तो यहां से चला गया। नीचे का दुकानदार कह रहा है कि वे कहीं दूसरी जगह रहने चले गये हैं।''

कुसुमा भीतर लेटी-लेटी एक किताब पढ़ रही थी, रामाधार की बात सुनकर सन्न रह गयी। मन में बोली -कहीं मेरी ही वजह से तो नहीं चले गये?

तबसे वह स्कूल आते-जाते रोज उस ताले को देख रही है कि किसी दिन शायद खुल जाये और ताले को उसी तरह बन्द देखकर कहती है कि -कहीं वे मेरी वजह से तो नहीं चले गये?..... और ताला उसी तरह पड़ा रहता है।

इसके बाद बहुत दिनों तक कोई खास घटना नहीं हुई। यहां तक कि रामदुलारे एम0ए0 प्रीवियस की परीक्षा देकर अपने घर चल दिया और दोनों की फिर एक बार भी और भेंट न हो पायी।

रामदुलारे के पिता साधारण जमींदार थे। कुटुम्ब खूब बड़ा था और आस-पास की बस्ती में उनकी धाक थी। घर के सब आदमी प्रायः पढ़े लिख थे; पर ग्रेजुएट सबसे पहला और शायद सबसे आखिरी भी-रामदुलारे ही था। वह अपने बाप का अकेला ही था। चाचा-ताऊ के कई-कई लड़के थे, उन सबकी शादियां भी हो चुकी थीं। अकेला रामदुलारे अभी क्ंवारा था। उसकी शादी के लिए बड़ी-बड़ी दूर से आदमी आते और आकर निराश होकर लौट जाते। यह नियम प्रति वर्ष का था। सो, उस बार भी लोग आ ही रहे थे और अपने मन की बात न पाकर पिता उन्हें टके सा जवाब देते जाते थे कि एक जगह उनकी नजर रुक गयी।

लड़की इस साल हाई स्कूल में बैठी थी। देखने-भालने में सुन्दर है-इच्छा हो, तो चाहे जब देख लें। घर का सब काम कर लेती है, दस्तकारी में खूब होशियार है और शील बहुत ज्यादा है। पिता की अकेली सन्तान है। लड़की के नाम से दस हजार बैंक में जमा है और गांव में थोड़ी जमींदारी भी है, मकान पक्का बना है। पिता पटना में, किसी आफिस में, डेढ़ सौ के नौकर हैं। शादी लड़के वाले की मर्जी के मुताबिक होगी।

अन्त में नतीजा यह हुआ कि आदमी पैगाम लेकर आया था, वह बहुत कुछ आशा लेकर लौटा।

और यह समाचार चचेरे भाई के मुंह से रामदुलारे ने सुन लिया, उसे सुनाया गया। कहा गया कि अगर तबीयत हो तो, वह लड़की देख आ सकता है, और शादी भी अगर उसकी मर्जी हो तभी होगी, पिता की रजामन्दी पूरी पूरी है।

सुनकर रामदुलारे ने कहा कि नहीं, वह लड़की देखने न जायेगा। अगर पिता ठीक समझते हैं, तो उस कोई एतराज नहीं है। ..........

और इसके कुछ दिन बाद लड़की के चाचा टीका लेकर आ गये। जमींदार के घर ढोलक बजी, बाहर बाजे बजे। बड़ी तड़क-भड़क से रामदुलारे को टीका चढ़ा, फिर आये हुए लोगों को चार-चार लड्डू बांटे गये। सब खुश थे, गांव के गरीब लोग कह रहे थे कि टीका में लड्डू बंटे हैं, शादी में तो जाने क्या-क्या ठाठ होगा, कोई ठिकाना है! .........

अकेला रामदुलारे ही उस रात को बहुत देर तक ऊपर छतपर लेटा जागता रहा कि अब जीवन के नाटक का दूसरा अंक आरम्भ हुआ! इसमें एक तो वह स्वयं है और दूसरा खिलाड़ी जाने कौन होगा, जाने कैसी उसकी शक्ल होगी, जाने कैसा उसका स्वभाव होगा? लेकिन कुछ भी हो, रामदुलारे को उसके साथ ही 'पार्ट' करना है, इतना ही नहीं, नाटक के अन्तिम दृश्य तक-यवनि का पतन तक-उसे उसी के साथ-साथ रहना है।

और वह जानता कुछ भी नहीं कि कौन वह है और कैसा उसका रंगरूप है, उसके गुण-दुर्गण, उसका नाम-धाम रामदुलारे को कुछ भी तो नहीं मालूम। सच तो यह है कि वह जानना भी नहीं चाहता। जानकर वह करेगा ही क्या? अब तो जो कुछ भाग्य में होगा, सामने आ ही जायेगा।

रामदुलारे को कोई कमी नहीं, ईश्वर ने उसे सभी कुछ दिया है- रूप, गुण, धन, कीर्ति, बल और कला। वह अगर चाहता, तो इससे कहीं बढ़कर-कहीं अच्छी संगिनी पा सकता था, लेकिन वह चुप रहा। वह डरता है। इस 'अच्छी' की परिभाषा वह नहीं कर पाता। रूप-गुण-धन, यह सब वह नहीं चाहता। वह चाहता है-हृदय! किस तरह का? तब जाने कौन कह उठा- 'उस अभिमानिनी का सा।' सच! वैसा ही हृदय रामदुलारे के मन भाया है। लेकिन उस 'नाज की पुतली' के साथ यह जीवन पथ कटे, ऐसा सौभाग्य कोई आपने आप कैसे बना ले सकता है?......

उसी पटना में वह रहती है, जिसके प्रति रामदुलारे का कोई आकर्षण नहीं है।

और उसी पटना में वह भी रहती है, जिसके आकर्षण से डरकर वह भागकर लाज में जाकर रहा था।

उसके पिता किसी आफिस में नौकर हैं।

और उसके भी।

वह हाई स्कूल में बैठी है।

और शायद वह भी।

कैसी विडम्बना है।

आसमान से एक तारा टूटा, रामदुलारे देखता रहा- दूर तक एक लकीर सी बनती चली गयी, फिर क्षण भर में वह बिलकुल मिट गयी।

वह एक गहरी सांस लेकर, करवट बदलकर पड़ा रहा।

उसी समय मन में एक बात उदित हुई-अगर दोनों एक ही हों? अगर उसी के यहां से टीका आया हो? हां जी, कौन जानता है? रामदुलारे ने नाराज होकर कहा' हां-हां तुम इतने भाग्यवान हो न। सो रहो चुपचाप।

और उसने बलपूर्वक अपनी आंखें बन्द कर लीं।

हाई स्कूल की परीक्षा के बाद कुसुमा के दिन बुरी तरह कटने लगे। जब तक महादेवी रही, उसके घर चली जाती थी या उसे बुला लेती थी, लेकिन जब वह अपने ननिहाल चली गयी, कुसुमा भली कि घर भला। वह कहीं नहीं जाती थी और स्कूल की किसी लड़की से उसका ज्यादा मेल-जोल था भी नहीं। कभी ऊपर और कभी नीचे लेटी-लेटी पुराने अखबार या ऐसी ही चीजें पढ़ती रहती, जब पढ़ने से तबीयत ऊब जाती, किताब रखकर कुछ सोचती रहती, सोचती रहती कि ..

कि अचानक एक दिन सुना कि उसकी शादी तय हो रही है। फिर मां ने धीरे-धीरे उसे सब सुना दिया कि घर-वर कैसा है। सुनकर कुसुमा कुछ नहीं बोली।

वह मुंह से कुछ नहीं बोली, यह ठीक है-न वैसी शर्मीली लड़की कभी इन विषय में मुंह से कुछ बोल ही सकती थी- लेकिन उसके हृदय में कोलाहल मच गया।

शादी सभी की होती है, यह सत्य है, लेकिन नारी के लिए एक नया जीवन है, बहुत बड़ा-शायद सबसे बड़ा- परिवर्तन है, सो हृदय में कोलाहल होना सहज ही था।

वर का जैसा वर्णन सुनने को मिला, उसमें बहुत सी बातों का उत्तर साफ था। फिर भी अनेक प्रश्न थे, वे सब एक-एक करके कुसुमा के सामने आ खड़े हुए, और वह चुप ही रह गयी, उन सबका कोई समाधान उसके पास नहीं था, न कोई उसे कुछ बतलाने वाला ही था कि एक दिन सुना कि चाचा टीका चढ़ाने जा रहे हैं तब कुसुमा को जाने कैसा लगने लगा।

दोपहरी में जब सब सो गये, वह भी ऊपर जाकर आंखें बन्द करके पड़ रही। नींद तो आयी नहीं देखा कि गांव के एक बहुत बड़े घर में बहुत से लोग बैठे हैं, और घर के बीचोबीच चौक पूरा गया है, चौक के सामने उसके चाचा बैठे हैं। उसने कभी अपने चचेरे भाई का टीका देखा था उसी तरह देखती रही कि भीतर से एक लड़का शरमाता हुआ आया, आकर चौकपर बैठ गया। उस लड़के की शक्ल कैसी है? ठीक तरह से देखो। अरे राम। यह तो हू-बू-हू रामदुलारे हैं। वही भैया के साथी-कहानी लिखने वाले। हमारे पड़ोसी।.....

घबड़ाकर कुसुमा ने आंखे खोल दीं। फिर धीरे-धीरे पंखा घुमाती-घुमाती बोली- वह सब नहीं हो सकता। उन्होंने अपनी कहानी में लिख दिया है, इससे क्या होता है? कहानी क्या कभी सच्ची लिखी जाती है? और फिर ........

सहसा उसकी आंख छतपर के उस काले निशान पर जा लगी, पलक मारते उसका इक्का बन गया, इक्के में एक आदमी बैठा है, उसके पास छड़ी रखी है। तब कुसुमा उठकर नीचे चली आयी।

शादी की तैयारियां होने लगीं। रामदुलारे को वह सब िबलकुल साधारण सा लग रहा था। उन सब बातों का उसके निकट कोई महत्व नहीं- कोई मूल्य नहीं। न उसे कुछ बुरा ही लग रहा था। सोचता, जैसे सबकी शादी होती है, उसी तरह उसकी भी हो जायेगी। फिर औरों की तरह वह भी गृहस्थ बनकर अपना लौकिक कर्तव्य पूरा करेगा। उसके बाद और जो बचे हैं, उनकी भी वही दशा होगी- फिर उसमें कौतूहल क्यों?

लेकिन मां-बाप के दिल में यह वेदान्त की सी बात कैसे आती? अकेला लड़का- इतने दिनों से अरमान लिए बैठे हैं, जाने कितनी साधका यह शादी होगी।

कुसुमा आखिर लड़की थी। उसका भावुक हृदय बहुत से दृश्य बनाता, लेकिन वे सब उसके किसी एक इशारे पर ही मिट जाते, उनकी धूमिल छाया-भर रह जाती। जाने क्यों वह उन सब बातों को सोचते डरती थी कि, किस तरह के उसके पति हैं, कैसा उनका मुखड़ा है? जाने कौन सी चीज बीच में अन्तराल बनकर आ खड़ी होती कि अब होगा क्या? और झूठमूठ वह कहती-सोचकर क्या करना है? जो कुछ होगा, सो सामने आ ही जायेगा।

कि अचानक एक दिन दुनिया और तरह की हो गयी। चाचा-चाची की छोटी लड़की शान्ता भी आ गयी। कुसुमा को मानो सहारा मिल गया।

शाम से ही अलग जाकर एक ही पलंगपर लेट रहीं। शान्ता लेटते ही बोली-''अच्छा जीजी, तुम्हें जीजा का नाम मालूम है?''

कुसुमा ने उसे हाथ से थोड़ा ढकेलकर कहा-''चुप। नहीं तो अभी पंखा मारूंगी।''

शान्ता बोली - ''बतलाऊं?''

कुसुमा का मन उत्सुकता से भर गया, फिर भी उसे हाथ से मारती-मारती कहती रही- ''चुप, चुप।''

और शान्ता ने मार खाते-खाते सुना ही दिया - ''जीजी, जीजा का नाम सुना - उनका नाम है -रामदुलारे।''

कुसुमा को मानो किसी ने आसमान से नीचे फेंक दिया। मन, बुद्धि, हृदय और शरीर घड़ी-भर के लिए सब स्तब्ध रह गये। जैसे उसकी सांस भी रुक गयी।

शान्ता को ताई ने आवाज दी। वह नीचे उतर गयी। कुसुमा को चेत हुआ। डूबती-उतरती-सी मन से पूछने लगी। 'क्या यह सच है? क्या सच है?'

वह सुख इतना अधिक था कि उसका भार कुसुमा के मनसे संभाल नहीं संभला, तब वह झूठ ही कहने लगी - शायद न हो, शायद इस नाम का कोई दूसरा आदमी हो, एक नाम के क्या कई आदमी नहीं होते?

मन ने थककर माना एक सांस ली।

कुसुमा बोली- 'और अगर वे ही हों?'

मन ने घबड़ाकर कहा - 'चुप-चुप।'

कुसुमा पर इसका असर नहीं हुआ। घर में मिठाई आयी हो, मां अपने बच्चे के सिवाय और किसी मां को भी खिलाना न चाहती हो, बालक आकर कहे- 'अम्मा, मिठाई आयी है?' और मां कहे- चुप, चुप। सो कुसुमा पर कोई प्रभाव न पड़ा, बोली-तब क्या कहानी की बात पूरी हो जायेगी? क्या सचमुच उन्हीं के साथ जीवन कटेगा? उनके साथ-वे जो भैया के साथी हैं, पड़ोस के मकान में रहते थे, कहानी लिखने वाले, उस दिन वह कागज इधर फेंक दिया था, उन्हीें के साथ अब रहना होगा। तब फिर सोचने को क्या रहा? हे भगवान्‌! यह तुमने क्या कर दिया? सपने की सी बातें हो रही हैं, सपना आंख खुलते ही टूट जाता है, और यह? यह तो जीवन भर का खेल है। यह हो क्या गया?

अगर कहें कि वह रात कुसुमा की आंखों में निकल गयी, तो झूठ नहीं होगा। कभी जमीन, तो कभी आसमान। ऐसे में भला नींद किसे आयेगी? वह जागती रही और जागती ही उठ बैठी, दिन निकल गया।

और दोपहर गाड़ी से ननिहाल के लोग आ गये। रामाधार ने आते ही बुआ के पैर छुए, फिर पीढ़ा खींचकर पास बैठ गया, बैठते ही बोला- ''बुआजी, मुझे इस शादी की खबर सुनकर इतनी खुशी हुई है कि कह नहीं सकता। मैं आपसे कभी खुलकर कह नहीं सका था, लेकिन यह बात मेरे मन में बहुत दिनों से थी कि किसी तरह कुसुमा की शादी रामदुलारे के साथ हो जाए, वही हो गया। अब तक मेरा वह साथी था, अब बहनोई हो जायेगा। बुआजी, यह सम्बन्ध बहुत ही सुन्दर रहा-बहुत ही सुन्दर रहा। सच कहता हूं, जिस दिन यह खबर मिली, खुशी के मारे मुझे नींद नहीं आयी। रामदुलारे जैसा योग्य लड़का मिल गया। कुसुमा बहुत ही भाग्यवती है। ''

कुसुमा उसके सामने नहीं थी, खम्भे की ओट में खड़ी थी। अब उसे वहां ठहरना भी कठिन हो गया। धीरे-धीरे पैरे रखती ऊपर चली गयी। नीचे से मां की आवाज सुनाई दे रही थी -''बेटा, सब भगवान की दया है। अब बस यही है कि तुम लोगों के पुण्य प्रताप से ब्याह और कुशल से हो जाये।''

शान्ता शीशे के सामने खड़ी बाल संवार रही थी। कुसुमा ने कांपते पुकारा -शान्ता।

शान्ता मुंह फिराकर बोली - ''क्या है जीजी।''

''कुछ नहीं।'' कहकर कुसुमा पलंग पर गिर पड़ी।

शादी के सिर्फ तीन दिन रह गये। सब लोग काम में लगे हुए थे, बारात के ठहरने के लिए एक कोठरी में सफाई की जा रही थी, रोशनी का इन्तजाम हो रहा था, घर में भट्टी सुलग रही थी, पकवान बन रहे थे, किसी को भी फुरसत नहीं थी।

अकेली कुसुमा हाथ पैरों में हल्दी लगाये ऊपर लेटी-लेटी सोच रही थी कि कि.......

उस समय पिता कहीं बाहर गये थे। रामाधार खड़ा-खड़ा दरवाजे के आगे की जमीन चौरस करवा रहा था कि सहसा कुसुमा के चाचा भीतर आये। मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं। घबड़ाये स्वर में बोले- ''भाभी कहां है?''

मां ने फौरन्‌ कोठरी से बाहर निकल कर पूछा - ''क्यों क्या है?''

मां की देही कांपने लगी, डरकर पूछा - ''क्यों, क्या हो गया-क्या हो गया?''

चाचा वहीं जमीन पर बैठ गये, फिर लड़खड़ाते स्वर में कहा- ''लड़का हैजे से चल बसा, तार आया है।''

मां पछाड़ खाकर गिर पड़ी। पल भर में, घर में कुहराम मच गया।

कुसुमा ने ऊपर से मां के रोने की आवाज सुनी। घबड़ाकर नीचे भागती आयी, देखा, सब हाय-हाय' कर रहे हैं उसकी समझ में कुछ नहीं आया। पड़ोस की औरतें छज्जे पर आ खड़ी हुई, पूछने लगीं - ''क्या हुआ?''

घर की कहारिन बोली- ''लड़का हैजे में चल बसा -तार आया है।''

पड़ोसिनें बोलीं -''राम-राम, बड़ा गजब हो गया।''

कुसुमा ने सब सुना। और सभी लोग विहल हो रहे थे, लेकिन वह खड़ी-खड़ी सिर्फ उन सबका मुंह देखती रही- न हिली, न डुली, न कुछ बोली।

(यू0एन0एन0)