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धर्म-संस्कृति
शिमला संकटमोचन मन्दिर के निर्माता नीम करोरी बाबा स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        चक्रधर उप्रेती
प्रत्येक दिन लेकिन हर मंगलवार को विशेष रूप से, कालका शिमला राष्ट्रीय उश राज्य मार्ग पर तारादेवी के मोड़ पर माथे पर तिलक लगे लोगों की भीड़ अक्सर नज़र आती है, श्रद्धालु लोगों का कारवां मुख्य सड़क से नीचे जाती सड़क पर दृष्टिगोचर होता है और वहीं से नज़र आता है संकटमोचन मन्दिर का विशाल गुम्बद।

तपस्वीयों से अटल खड़े उन्नत वृक्षों के मध्य तेजी से उठते नन्हें, जवान, बूढ़ों के कदम उन्हें पहुंचा देते हैं भव्य मन्दिर के प्रांगण में जहां सुरमई माहौल में उनका अभिनन्दन मंद-मंद हिलते डुलते देवदार के पत्तों की सरसराहट से होता है और वहां पहुंचते ही मानव संजीवनी बूटी की सी सुगन्ध पा कष्टों से दूर महसूस करता है अपने को।

कौन था वो जिसने इतने, रम्य, मोहक स्थान पर मन्दिर का निर्माण करवाया और श‍िमला शहर की झोली में एक अनूठा आध्यात्मिक संस्थान डाल गया? ये थे नीब करौरी बाबा जिनकी अलौकिकता को शब्दों में व्यक्त करना लेखनी की शक्ति से बाहर है। फर्रूखावाद स्टेशन पर (नीब करौरी गांव के समीप) अंग्रेज कन्डक्टर द्वारा प्रथम श्रेणी के रेल डिब्बे से बिना टिकट बाहर कर देने पर रेल का न चलना, फिर लोगों के आग्रह से एक नहीं अनेक टिकट दिखाना और प्रार्थना करने पर पुनः गाड़ी में बैठने पर गाड़ी का चलना जैसे चमत्कारों से भरपूर हजारों किस्से आम आदमी द्वारा नहीं वरन विदेशों के उनके विद्वत भक्तों (जैसे हारवर्ड विश्व विद्यालय बोस्टन के डा. रिचार्ड एलपर्ट जो बाद में रामदास के नाम से प्रसिद्ध हुए) द्वारा लिखित पुस्तकों में वर्णित हैं। स्व. जवाहरलाल नेहरू से लेकर भारत के अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति उनके भक्त थे।

उनके अन्नय भक्त 'राजीदा' के अनुसार 'बाबा' सदा अपनी महानता छिपाये रहे और सदा आडम्बर रहित सामान्य पुरुष के रूप में जन समुदाय के बीच लोक कल्याण कार्य करते रहे। महाराज की लीलाएं व्यक्तियों के निजी अनुभव हैं उन्होंने प्रर्दशन के रूप में अपनी शक्तियों का यथासम्भव उपयोग नहीं किया। हि.प्र. के राज्यपाल स्व. राजा भद्री ने बड़े यत्न से बाबा की अनेक लीलाओं को संकलन किया था। बाबा ने उसके प्रकाशन की अनुमती नहीं दी। प्रसिद्ध विचारक स्व. के.एम. मुन्‍शी भी उनकी लीलाओं से प्रभावित हो उनकी अनुमति बिना, लेख प्रकाश‍ित कर बैठे जिस के लिए उन्हें भी बाबा के आगे खेद प्रकट करना पड़ा। बाबा सबके मन में उठने वाले विचारों को जानते थे व सम्बन्धियों के नाम लेकर वार्ता करने लगते। उन्होंने भाषण या प्रवचन नहीं दिए, बाबा अपने भगवद् स्वरूप को छिपाते रहे। बाबा में हर भक्त को अपने इष्ट देव के दर्शन होते थे। कोई उनमें श‍िव, कोई राम को देखता। बाबा अपने को किसी भी रूप में व्यक्त कर सकते थे। उनका जीवन अवतारवाद की सार्थकता को पुष्ट करता था।''

सन्‌ 52 के शुरू के दशक में मैंने सोलन में प्रथम बार चौड़ा वक्षस्थल, भरा बदन, मोहक नेत्र सी डील डौल काया को अपने घर में देखा, जो एक धोती में ही पूरा बदन लपटे हुए थे, और फिर अगले वर्ष पड़ोस में उनका आना हुआ था और मेरी स्व. ताई जी जो मुझे खाना खिला रही थी उन्हें उसी समय संदेश मिला कि :-

'बाबा जी आए हैं दर्शन को चले आओ'

पलट कर उन्होंने कहा :

'ऐसे बाबा आते रहते हैं मैं पहले चूल्हा चौका कर लूं फिर आऊंगी' और जब वो मुझे (मैं छोटा बच्‍चा था) अपना काम निपटाने के बाद दर्शनों के लिए ले गई तो पैर छूते ही बाबा जी ने वही वाक्य सुना दिए :-

'तू तो कह रही थी कि ऐसे बाबा आते रहते हैं फिर क्यों आई।' मैं हतप्रद हो गया उनकी बात सुन कर थोड़ी देर में बड़ी बहन स्कूल से आई और उसने प्रणाम किया तो बोले :

'तेरी दो किताबे यहां नहीं मिल रही हैं, जिससे तू परेशान है न। तूने अपने पिता को चिट भी दे है बाहर से मंगवाने के लिए तुझे मिल जायेंगी।'

वास्तव में कुछ दिन पहले मेरी बड़ी बहन ने पूज्य पिता जी को चिट दी थी ये पुस्तके सोलन में उपलब्ध नहीं थी। शिमला में मिलती थी उन दिनो। उसी दिन की एक घटना अभी तक भी मेरे मानस पटल पर अंकित है। सांय को बाबा जी को एक दम क्या सूझा कि तुरन्त मेरे ताया जी को आवाज लगाई और कहा :

'भई मेरे लिए प्राइवेट गाड़ी का प्रबन्ध करो मुझे अभी जाना है' उन दिनों प्राइवेट गाड़ी करने में लगभग 70/- रु. लगते थे। उस समय के हिसाब से यह राशि ज्यादा थी। मुझे गोद में उठाये वो बाजार की तरफ उधार लेने चल पड़े। साथ ही मुंह ही मुंह में बुदबुदा रहे थे कि 'आज एक रूपया भी जेब में नहीं है और बाबा जी का हुक्म हो गया कि गाड़ी करो।' लेकिन न जाने इतने में कहां से एक व्यक्ति तपाक से ताया जी के सामने आया और अभिवादन करके बोला :

'पंडित जी माफ करना एक साल से आपके पैसे देने थे, और आज मौका मिला और जेब से कुल 70/- रु. ही निकाले देर से पैसे चुकाने पर मांफी मांग चलता बना। मैं अपने ताया जी कि गोद में चिपके इस घटना चक्र से हतप्रद हो गया।

इस महान काया ने इसी तरह के हनुमान मन्दिर नैनीताल में उत्तर प्रदेश के अन्य प्रमुख शहरों में और नैनीताल के समीप 'कैंची' नामक स्थान पर जहां बाद में ये समाधिस्थ भी हुए, स्थापित किए। कैंची आश्रम काठ गोदाम से अल्मोड़ा के जाने के रास्ते में है और आज ये बाबा जी के भक्तों के लिए प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बन गया है। इनके भक्तों में भारतीयों के अलावा विदेशी भी बहुत संख्या में प्रतिवर्ष एकत्रित होते हैं। कैंची आश्रम में जब भीड़ बढ़ जाती थी, दर्शनार्थी बाबा जी के कमरे को घेर लेते तो ये बैठे बैठे अलोप हो जाते थे और फिर अचानक लोगों को मन्दिर के प्रांगण की ऊंची पहाड़ी की चोटी पर बैठे नजर आते थे, ऐसा अनुभव अनेक लोगों को होता था।

उनके भक्तों में सरकार के बड़े-बड़े पदों पर आसीन अधिकारी भी थे और कई बार तो ऐसा भी हुआ कि सरकारी कार्य या गैर सरकारी कार्य में अड़चन जैसे तबादला तरक्की न होने पर श्रद्धालु अपना दुखड़ा ले बाबा जी के आश्रम कैंची (नैनीताल के पास) पहुंचा नहीं कि उसी विभाग से सम्बन्धित अधिकारी जिसका हैडक्वाटर इलाहवाद जैसे दूररस्थ स्थान पर होता था वो अधिकारी वहां पहले ही से उपस्थित होता और आनन फानन में कार्य उसी पावन स्थली में निपट जाते थे।

(यू.एन.एन.)