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धर्म-संस्कृति
भगवती छिन्नमस्ता धाम चिन्तपूर्णी स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
अखिल ब्रह्माण्ड जिस अलौकिक तत्व के बल पर गतिमान है, वही तत्व शक्ति तत्व कहलाता है। जिस प्रकार चांदनी के बिना चांद और उष्णता के बिना आग का कोई अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार बिना शक्ति के शक्तिमान का अस्तित्व शून्य है। सृष्टि नियन्ता परब्रह्म में अन्तर्लिप्त वह शक्ति तत्व समय-समय पर भिन्न-भिन्न रूपों में व्यक्त होकर आराध्य जनों में मातृशक्ति के रूप में पूजित हुआ है जिन में शक्ति मां चिन्तपूर्णी का नाम भी ख्याति प्राप्त हैं माता चिन्तपूर्णी का पूज्य स्थल जिला ऊना में स्थित है। जिला मुख्यालय ऊना से इसकी दूरी 52 किलोमीटर और शिमला से 250 किलोमीटर है। समीपस्थ रेलवे स्टेशन नंगल से यह स्थान लगभग 60 किलोमीटर दूर है। चिन्तपूर्णी मां का प्रादुर्भाव चिन्तपूर्णी मां के स्थान का प्रादुर्भाव देवी भक्त माई दास के माध्यम से माना जाता है। माई दास के पिता दुर्गा माता के परम भक्त थे और वह भी पिता की भांति ही दुर्गा मां का अनन्य भक्त था। दूसरे दो भाई इसे पसन्द नहीं करते थे। पिता ने जीते-जी माई दास का विवाह करवा लिया था। और उस की पूजा भक्ति से प्रसन्न होकर वे उस के परिवार का पूरा ध्यान रखते थे। जब पिता स्वर्ग सिधर गये तो इसके दो भाईयों ने इसे अपने से अलग कर दिया। उस के परिवार पर अनेक विपत्तियां आईं परन्तु उसकी आस्था दुर्गा मां में अटूट बनी रही और उसका विश्वास था कि दुर्गा मां की कृपा से अन्ततः सब ठीक हो जाएगा।
एक दिन माई दास घर से ससुराल जा रहा था। दोपहर के समय वह चिन्तपूर्णी के पास के घने जंगल से गुजरा। वहां एक विशाल वट वृक्ष के नीचे वह आराम करने बैठा। ठण्डी हवा के भीने-भीने स्पर्श में उसे आराम करते-करते नींद आ गई। तब उसे वहां स्वप्न में एक दिव्य रूपा कन्या दर्शन देती है और उस के कानों में आवाज गूंजती हैः-

''माई दास तुम यहां रह कर मेरी सेवा करो, इसी में तुम्हारा भला है।''यकायक माई दास की नींद टूट जाती है। वह इध्र-उध्र देखता है, उसे कुछ नहीं दिखाई देता। कुछ सम्भला तो उसे लगा कि उसे तो स्वप्न हुआ था, वास्तविकता तो कुछ भी नहीं है। वह उठा और ससुराल की ओर चल पडा। पर, उसे भीतर से रह-रह कर यह आवाज़ आने लगी ''माईदास तुम यहां रहकर मेरी सेवा करो इसी में तुम्हारा भला है।'' माईदास ससुराल पहुंचा। वहां दिल को चैन कहां। वह कुछ उदास सा होने लगा। ससुराल से जल्दी ही वापस लौट चला। वापसी पर उसी वट वृक्ष के पास पहुचा। वहां से चलने लगा तो उसके आगे अन्ध्कार छा गया। वह परेशान हो आया। उसे लगा कि कहीं यह दुर्गा मां का चमत्कार तो नहीं है। वह वट वृक्ष के नीचे दुर्गा मां के ध्यान में बैठ गया। उसने मां को पुकारा-''हे मां ! मैं अल्प बुद्ध‍ि हूं '' मैं तेरे इस चमत्कार को नहीं समझ पा रहा हूं। माँ! तू दर्शन दे कर इस रहस्य को खोल दे। माई दास की सच्ची भक्ति पूर्ण पुकार होने पर मां प्रकट हुई। दुर्गा मां ने बताया कि मेरे भिन्न-भिन्न रूप है। मैं यहां छिन्न मस्ता के रूप से दीर्घ काल से वट वृक्ष के नीचे पिंडी रूप में रह रही हूं। अब तुम जैसे सच्चे भक्त को पाकर मैं प्रकट हो रही हूं। तुम यहां रह कर मेरी सेवा भक्ति करो। मैं यहां पर चिन्तनीय इच्छाएं पूर्ण करूंगी। इसलिये चिन्तपूर्णी नाम से विख्यात होऊंगी। माई दास ने विनीत भाव से कहा,''मां ! यहां निर्जन वन हैं यहां अकेले में रात्रिा में जन्तुओं का भय रहेगा और इस वन में कहीं भी पानी नहीं हैं। पानी बिना यहां कैसे रहा जा सकेगा। माता ! तुम कृपा करके बस्ती के समीप चलो वहीं मैं तुम्हारी विध्वित्‌ पूजा अर्चना करूंगा''। मां ने कहा कि मैं इसी पवित्रा स्थान पर रहूंगी तू भय मत कर। यहां तुम्हें हिंसक जन्तु तथा अन्य किसी प्रकार का भय नहीं होगा। तुम मूल मंत्रा ''ओं ऐं क्लीं ह्रीं चामुण्डायै विच्चे'' तथा नमस्कार मन्त्रा ''ओं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं भयनाशिनी हूं हूं फट स्वाहा'' का जाप करना। तुम यहां से नीचे अमुक स्थान पर जा कर अमुक पत्थर को हटाना। उस के नीचे से पानी निकलेगा जो तुम्हारी सारी आवश्यकताओं को पूरी करेगा।

चिन्तपूर्णी भगवती से अभय दान पा कर माई दास भक्त ने मां के बताये स्थान पर जा कर पत्थर को हटाया तो वहां जल का पर्याप्त स्रोत चल पड़ा। तब से भक्त माई दास ने चिन्तपूर्णी के प्रतीक वट वृक्ष के पास अध्ष्ठित पिण्डी की पूजा नियमित रूप से आरम्भ की। प्रादुर्भाव काल से माता की कृपा के वशीभूत वहां भक्तों का क्रम बढ़ता ही गया और अभी भी बढ़ रहा है। माई दास के दो पुत्रा हुए। कल्लू और बिल्लू। बिल्लू गृहस्थ जीवन में गया ही नहीं और वह योग समाधी में ब्रह्म लीन हो गया। कल्लू वंश अभी तक चला आ रहा है। इसके वंशज माँ चिन्तपूर्णी के पुजारी है, जो बहुत परिवारों में विभक्त होने के कारण अब बारी-बारी से पूजा कार्य करते हैं।

पौराणिक एंव ऐतिहासिक संदर्भ
माता चिन्तपूर्णी को पौराणिक संदर्भो में वर्णित भगवती छिन्नमस्ता माना जाता है। दश महा-शक्तियों में छिन्नमस्ता की कथा इस प्रकार बतायी जाती है कि एक बार भगवती भवानी अपनी दो सहचरियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गई थी। वहां उन्हें बहुत भूख लगी। उनकी सहचरी जया-विजया ने मां भवानी से भूख शान्त करवाने के लिये कहा। मां भवानी ने उन्हें टालने का प्रयत्न किया परन्तु वे नहीं मानी और दीन याचक वाणी में कहने लगी,''मां ! तुम तो बच्चों को भूख लगते ही शीघ्र भोजन का प्रबन्ध् करती हो आज तुम्हारी ममता कहां गयी''! इस पर करूणा-निधन शक्ति मां ने खड्ग से अपना ही सिर काट डाला।

सिर मां के हाथ में आया। कटे सिर के कबन्ध् से तीन रक्त धराएं प्रवाहित हुई। दो धराएं जया और विजया के मुख में जा गिरी और तीसरी मध्य धरा का माता बायें हाथ में पकडे. मुख द्वारा स्वयं पान करने लगी। तभी से भगवती

भवानी छिन्न मस्ता के नाम से जानी जाने लगी। तदुपरान्त अनेक स्थानों पर छिन्न मस्ता माता ने दर्शन देकर भक्तों को कृतार्थ किया और उन स्थानों पर पूज्य स्थान प्राप्त कर शक्ति धम स्थापित करवाये उन्हीं में एक चिन्तपूर्णी धम है। एक अन्य मान्यता के अनुसार इस स्थान पर विष्णु चक्र द्वारा कटे सती के शरीर के चरण पड़े थे।

माता का मन्दिर
प्राचीन त्रिागर्त के राज्य के त्रिाकोण शक्तिपीठ में ज्वाला जी और ब्रजेश्वरी कांगड़ा के साथ चिन्तपूर्णी का विशेष माहात्म्य है। चिन्तपूर्णी में माता पिण्डी रूप में विद्यमान है। मां की पिण्डी विविध् फूलों से सुसज्जित रखी होती है और उस पर चांदी के छत्रा शोभायमान रहते हैं। चिन्तपूर्णी माता का मन्दिर गुम्बदीय शैली में संगमरमर का बना है। जो कि मां के श्र(ालु भक्तों ने बनाया है। गुम्बद को स्वर्ण मण्डित किया गया है। स्वर्ण मण्डित चादर चढ़ाने के कार्य के बारे में वहां लगे विवरण अंकित पट से स्पष्ट है कि इसे जालंधर निवासी कुछ श्रद्धालुओं ने रमेश ज्यूलजर्+ लन्दन से 14 जनवरी 1988 को मकर संक्रान्ति के दिन सम्पन्न करवाया। गुम्बद पर कमल-दल का आधर सा बना कर उस पर स्वर्णिम कलश तथा छत्रा लगाए गये हैं। मुख्य गुम्बद के साथ ही अग्र भाग में मन्दिर प्रवेश द्वार के ऊपर की ओर छोटा गुम्बद बना है। इस गुम्बद पर हनुमान और भैरव की मूर्तियां संस्थापित हैं। मन्दिर के सोने और चांदी से मण्डित गर्भ गृह में माता का मूल प्रतीक तो पिंडी रूप में प्रतिष्ठित है। इसके अतिरिक्त मन्दिर परिसर में वट वृक्ष के टाले पर हनुमान, भैरव और गणपति की पत्थर की मूर्तियां रखी गयी हैं। मुख्य द्वार के पास ही इन देवों की हनुमान, भैरव और गणपति की अन्य मूर्तियां हैं। मन्दिर परिसर में पीतल धतु के बने माता के दो बाहन में एक बडा शेर और एक छोटा शेर बनाये गये हैं। इन दोनों के अतिरिक्त एक ओर छोटे अर्वाचीन शेर पर दुर्गा भगवती भी आरूढ है। यह शेर और माता की मूर्ति भी पीतल धातु की बनी है। यह पूरा मन्दिर परिसर आधुनिक ढंग से संगमरमर के चक्कों से सजाया गया हैः

चिन्तपूर्णी इस समय कांगड़ा और ऊना जि़ला की संयुक्त सीमा पर स्थित है। मन्दिर का परिसर ऊना में है और उस से नीचे चिन्तपूर्णी बस स्टैण्ड का क्षेत्रा कांगड़ा में है। पहले यह स्थिति भूतपूर्व रियासत अम्ब और डाडासिबा के बीच थी। दोनों ही राज्यों के राजा मन्दिर को अपने क्षेत्रा में मानते थे और इस पर प्रायः झगड़ा होता रहता था। एक बार समाधान के लिये दोनों राजाओं की ओर से एक-एक बकरा माता के दरबार में लाया गया। शर्त रखी गयी क‍ि दोनों बकरों को खुला छोड़ देने पर जिस राजा का बकरा पहले कांपेगा, उसी के क्षेत्रा में मन्दिर माना जाएगा। इस विध‍ि के अनुसार अम्ब राजा का बकरा पहले कांपा और शर्त के अनुसार माता की इच्छा मान कर मन्दिर अम्ब राज्य के क्षेत्रा में आ गया। भूतपूर्व अम्ब राज्य इस समय जिला ऊना की एक तहसील है। अतः अम्ब राज्य का माता का मन्दिर धम जिला ऊना को विशेष गौरव प्रदान करता है। माता की पूजा-पद्धति
भक्त माई दास एवं उनके पुत्रा कल्लु के वंशज इस समय बारी-बारी से माता की पूजा करते हैं। प्रातः साढ़े पांच बजे मन्दिर खोलने का समय है और रात्रि बन्द होने का समय 9 बजे है। प्रातः सायं यथा-समय पूजा-आरती होती है। प्रातः सायं पूजा आरती से पहले माता का स्नान उसी स्थान के कुण्ड के जल से किया जाता है जहां कि माई दास ने माता के आदेश पर पानी ढूंढा था। दिन के समय बारह बजे से साढ़े बारह बजे तक मन्दिर बन्द रहता है। मंदिर बन्द करने से पहले बारह बजे माता को खीर, दाल-चावल का भोग चढ़ाया जाता है। पूजा शंख-घेटा आदि ध्वनियों एवं बत्तियों के द्वारा सामान्य विधन के अनुसार पुजारी द्वारा धेती पहन कर की जाती है। पूजा-आरती में अन्य श्रद्धालू भी सम्मिलित होते हैं।

लोक मान्यता और मेले-त्यौहार
लोगों का विश्वास है कि माता चिन्तपूर्णी श्रद्धालुओं की हर समस्‍या का निवारण करती है। पुत्रा-वरदान के लिये माता को प्रमुख माना जाता है। पुत्रा-कामना से यहां बहुत लोग आते हैं। पुत्रा-प्राप्ति के पश्चात्‌ लोग पुत्रा का मुण्डन संस्कार यहीं आ कर करते हैं। अन्य कामनाओं के लिये भी लोग मां के चरणों में आते हैं। वे मनौती के प्रति वचनबद्धता हेतु मन्दिर परिसर के वट वृक्ष में प्रायः लाल डोरी का धगा बांध्ते हैं। सरकार द्वारा गठित न्यास मंदिर की सुचारू व्यवस्था देखता है।

(यू.एन.एन.)