शिमला के निकट बना ऐतिहासिक तारादेवी मन्दिर देश के ऐसे स्थलों में शामिल है जिसे भारत के देवी स्थानों में अत्यन्त महत्व प्राप्त है। वस्तुतः भगवती तारा क्योंथल राज्य के सेन वंशीय राजाओं की कुलदेवी हैं। क्योंथल रियासत की स्थापना राजा गिरिसेन ने की थी। इसलिए संक्षेप में सेन राजवंश का इतिहास जानना भी आवश्यक है। मध्यकालीन भारत में छोटे-छोटे राज्य हुआ करते थे। उत्तरी भारत में अनेक राजपूत रियासतें थीं जिनमें दिल्ली में तोमर, अजमेर में चौहान, कन्नौज में राठौर, बुन्देलखण्ड में चन्देल, मालवा में परमार, गुजरात में चालुक्य, मेवाड़ में सिसोदिया, बिहार में पाल तथा बंगाल में सेन राजवंश प्रमुख थे।
महमूद गज़नवी के बाद शहबद्दीन मुहम्मद गौरी ने भारत पर बार-बार आक्रमण किए। वह कट्टर मुसलमान था और भारत में मूर्तिपूजा का नाश करना तथा मुस्लिम राज्य की स्थापना करना अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझता था। वह राजाओं की शक्ति को नष्ट-भ्रष्ट करना चाहता था। उसके एक सेनानायक मुहम्मद-बिन-बख़तियार खिलजी ने जब बंगाल की राजधानी नदिया पर आक्रमण किया तो वहां के तत्कालीन सेन राजवंशीय राजा लक्ष्मणसेन को लाचार होकर अपना राज्य छोड़ना पड़ा और वे राजपरिवार सहित ढाका की ओर विक्रमपुर चले गए। कहा जाता है कि उन्हें उनेक राजज्योतिषी ने पहले ही यह बता दिया था कि वे किसी भी प्रकार से तुर्क आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर पाएंगें। कालान्तर में उनके प्रपौत्र राजा रूपसेन को भी विक्रमपुर छोड़ना पड़ा और वे पंजाब प्रान्त के रोपड़ में आकर बस गए। मुसलमान आक्रमणकारियों से वहां भी उन्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश होना पड़ा। अंत में उनके तीनों पुत्र पर्वतीय क्षेत्रों की ओर चल पड़े, जिनमें से वीरसेन ने सुकेत, गिरिसेन ने क्योंथल तथा हमीरसेन ने किश्तवाड़ की ओर प्रस्थान किया।
राजा गिरिसेन ने जुनगा को अपने राज्य की राजधानी बनाया। कुलदेवी होने के नाते वे भगवती तारा को भी (मूर्ति रूप में) अपने साथ ही लाए थे। सेनवंश के सभी राजाओं तथा राजपरिवार पर भगवती तारा की असीम कृपा रही है। संकट की घड़ी में भगवती तारा ने हर प्रकार से उनकी सहायता की है।
एक बार अपने राज्यकाल में तत्कालीन क्योंथल रियासत (जुनगा) के राजा भूपेन्द्र सेन जुग्गर के घने जंगल में शिकार खेलने पहुंचे। उन्हें वहां पहुंचे कुछ ही समय हुआ था कि सहसा उन्हें उस स्थान पर भगवती तारा की विद्यमानता का आभास हुआ। भगवती ने आवाज+ देकर कहा- ''हे राजन्! तुम्हारी वंश परम्परा बंगाल से चली आ रही है। मैं दश महाविद्याओं में से एक महाविद्या हूँ।'' इस आवाज़ को सुनकर राजा आश्यर्चचकित हो गए और हने लगे- ''हे माता! यदि यह आवाज़ वास्तव में आपकी ही है, तो साक्षात् रूप में प्रकट होकर दर्शन देकर कृतार्थ करो।'' राजा के इस प्रकार कहने पर माता ने साक्षात् दर्शन दिए और कहा- ''राजन्! तुम मेरे स्थान का निर्माण करो। मैं सदैव तुम्हारे साथ रहकर तुम्हारे वंश तथा राज्य की रक्षा करूंगी।'' ऐसा कहकर उसी क्षण भगवती अदृश्य हो गईं।
भगवती के इस प्रत्यक्ष चमत्कार से प्रभावान्वित होकर राजा भूपेन्द्र सेन ने भगवती के आदेशानुसार वहां एक मन्दिर का निर्माण करवाया तथा उस मन्दिर में भगवती तारा की मूर्ति को प्रतिष्ठापित करवाया। साथ ही एक बड़ा भूक्षेत्र भी मन्दिर के नाम दान कर दिया। यहां भगवती तारा प्रत्यक्ष रूप में स्वयं प्रकट हुई थीं। इस कारण यह प्रमुख स्थान माना जाता है। पूर्व काल में इस मन्दिर में विधिवत् पूजा हुआ करती थी। इस कार्य के लिए एक पुजारी को यहां नियुक्त किया गया था। उसके बाद उसके वंशज पूजा-अर्चना का कार्य किया करते थे। परन्तु किसी कारणवश एक ऐसा समय आया कि धीरे-धीरे उक्त परिवार का प्रायः अन्त हो गया और यहां की सारी व्यवस्था में व्यवधान पड़ गया। मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गया।
परन्तु श्रद्धालुओं के लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि कुछ समय पूर्व ही श्री तारादेवी मन्दिर न्यास ने स्थानीय लोगों के प्रशंसनीय योगदान से इस स्थान पर एक नए मन्दिर का निर्माण करवाया है। मन्दिर की वास्तुशैली भी आकषर्क है। जुग्गर मन्दिर शिलगांव चक के अन्तर्गत आता है। इसलिए वहां के निवासी ही मुख्यरूप से वर्षों से इस मन्दिर की देख-रेख तथा कार्यभार के उत्तरदायित्व को निभाते चले आ रहे हैं। छठे महीने अर्थात् वर्ष में दो बार ये सभी लोग मिलजुल कर इस मन्दिर में विशेष पूजा-अर्चना तथा कड़ाही-प्रसाद की व्यवस्था करते हैं। ये सभी लोग इस बात को भी मानते हैं कि भगवती कृपा सदैव इन पर बनी रहती है।
कालान्तर में जुग्गर मन्दिर के सामने वाले शिखर पर चलूणिया नामक स्थान पर भी भगवती की इच्छानुसार ही ऐसा हुआ हो। कहा जाता है कि एक बार भगवती ने राजा को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि हे राजन्! मैं अन्यत्र अपना स्थान ग्रहण करना चाहती हूं। इसलिए तुम प्रातः काल उठकर महल के मुख्यद्वार के आगे चींटियों की एक कतार समाप्त होगी उसी स्थान पर तुम मेरे लिए मन्दिर का निर्माण करवाना। यही मन्दिर मेरा प्रिय आवास होगा। प्रातः काल होते ही राजा अपने कुछ अन्य कारिन्दों को साथ लेकर चींटियों की उसी कतार के साथ-साथ चलते रहे और अन्त में तारब के सर्वोच्च शिखर के उस स्थान पर पहुंचे जहां कतार समाप्त हुई। राजा ने उसी स्थान पर मन्दिर का निर्माण करवाया तथा इस मन्दिर में भगवती तारा के काष्ठविग्रह को प्रतिष्ठापित करवाया। यही मन्दिर श्री तारादेवी मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है।
एक समय महात्मा ताराधिनाथ नामक एक सिद्ध योगी घूमते-घुमाते तारब के जंगल में पहुंच गए। उन्होंने सांसारिक बन्धनों का त्योग कर दिया था। अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या तथा योगशक्ति के बल पर उन्होंने अलौकिक शक्तियों से सामंजस्य स्थापित कर लिया था। वे भगवती तारा के अनन्य उपासक थे। वे इस जंगल के उच्च शिखर पर अपने आगे धूनी लगाकर अपने आसन पर ध्यानमुद्रा में बैठे रहा करते थे। जब वर्षा होती थी तो एक बूँद भी उनकी धूनी तथा उनके आसन पर नहीं गिरती थी। वह स्थान को वर्षा से अप्रभावित रहा करता था। जो लोग भी वहां जाते थे, वे इस चमत्कार को देखकर अचम्भित होते थे।
उस समय क्योंथल रियासत के शासक राजा बलवीर सेन थे। राजा बलवीर सेन का जन्म 1852 ई. में हुआ। वे अपने पिता राजा मोहेन्द्र सेन की मृत्यु के पश्चात् 1882 ई. में क्योंथल रियासत के राजा बने। उन्होंने लगभग 19 वर्ष तक राज्य किया। अपने शासनकाल में वे अपनी प्रजा की सुख समृद्धि के लिए कार्य करते रहे। वे बड़े अनुशासन प्रिय थे। उनका धर्म अटूट विश्वास था। उनका कहना था कि धर्म की वृद्धि वास्तव में तभी हो सकती है जब मनुष्य अपने धर्म का सच्चे हृदय से पालन करे।
महात्मा ताराधिनाथ के ऐसे अद्भुत चमत्कार के विषय में जब राजा बलवीर सेन ने सुना तो उनसे मिलने के लिए वे अपनी राजधानी जुनगा तारब पहुंच गए। महात्मा ताराधिनाथ ने राज से तारब की ऊंची पहाड़ी पर मन्दिर में अपनी कुलदेवी भगवती तारा की अठारह भुजाओं वाली एक भव्य मूर्ति का निर्माण करवाकर प्रतिष्ठापित करने को कहा। साथ ही यह भी कहा कि ऐसा करना राजवंश के हित में होगा। महात्मा के इस कथन को राजा बड़ी गम्भीरता से लिया। उन्होंने केवल अपने राजवंश के हितार्थ ही नहीं अपितु अपनी सम्पूर्ण प्रजा तथा समस्त मानवजाति के कल्याण हेतु यह कार्य प्रारम्भ कर दिया।
राजधानी जुनगा में ज्योतिष, कर्मकाण्ड तथा तन्त्रशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान पण्डित भवानीदत्त की अध्यक्षता में भगवती तारा की मूर्ति का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया गया। गुसाऊं नामक एक सिद्धहस्त शिल्पकार को मूर्ति के निर्माण कार्य में लगाया गया। उस शिल्पकार ने पण्डित भवानीदत्त के दिशानिर्देश के अनुसार अष्टधातु से अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी स्वरूपिणी भगवती तारा की भव्य मूर्ति बना कर तैयार कर दी। जब भगवती तारा का युक्तिसंगत मूर्तीकरण पूर्ण हुआ तो शास्त्रविहित सभी प्रकार की धार्मिक औपचारिकताओं का निर्वहन करते हुए मूर्ति को शंकरगज (शंकर नामक हाथी) की पीठ पर बिठा कर जनगा से तारादेवी मन्दिर तक समारोह पूर्वक लाया गया। मार्ग में अनेक स्थानों पर यथाविहित छागबलि भी प्रदान की गइ। भगवती की मूर्ति को महात्मा ताराधिनाथ के आचार्यत्व में वाममार्गीय तन्त्रशास्त्र विधि के अनुसार मन्दिर में प्रतिष्ठापित किया गया।
गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, अर्य, आभूषण, अलंकारादि विविध प्रकार की पूजा सामग्री व नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थों से युक्त नैवेद्यों तथा छागबलि प्रदान कर देवी की पूजा-प्रतिष्ठा की गई। इस अवसर पर महिषबलि भी दी गई। उस काल में देवी पूजा में तन्त्रोक्त प्रयोगों का बहुत महत्व समझा जाता था। महाकाल संहिता, ताराभक्ति सुधार्णव, रुद्रयामल, श्री विद्यार्णवतन्त्र, नीलतन्त्र तथा मेरुतन्त्र आदि ग्रन्थों में इसका विशद वर्णन है। श्री दुर्गासप्तशती के वैकृतिक रहस्य में भी इसका उल्लेख मिलता है।
अनेक वर्षों तक यहां महिषबलि का प्रचलन रहा। महिषासुरमर्दिनी भगवती को प्रसन्न करने के लिए ऐसा किया जाता था। राज बलवीर सेन के देहान्त के पश्चात् उनके पुत्र राजा विजय सेन ने अपने शासनकाल में (1901 ई. से 1916 ई. तक) श्री तारादेवी मंदिर की कार्यप्रणाली तथा परम्परा को पूर्ववत बनाए रखा। परन्तु उनके पुत्र राजा हेमेन्द्रसेन ने राज्यारूढ़ होते ही इस प्रथा को एक लिखित आदेश द्वारा तत्काल प्रभाव के बन्द करवाया। वामाचार तन्त्रशास्त्रानुसार उपासना के विधान के बदल कर दक्षिणमार्ग को अपनाया गया। तब से इस मन्दिर में दक्षिणमार्ग के अनुरूप ही पूजा-अर्चना की जाती है।
राजा हेमेन्द्रसेन का जन्म 1905 ई. में हुआ। अपने पिता राजा विजयसेन की मृत्यु के पश्चात् 1916 ई. में वे क्योंथल रियासत की राजगद्दी पर बैठे उन्होंने अपने 24 वर्ष तक के राज्यकाल में प्रजा की भलाई के लिए अनेक प्रशंसनीय कार्य किए। वे बड़े उदार तथा दयालु प्रकृति के राजा थे। 35 वर्ष की कम आयु में ही 1940 ई. में उनका देहान्त हो गया। वे क्योंथल रियासत के अंतिम शासक राज हितेन्द्रसेन के पिता तथा जुनगा के वर्तमान राजा वीरविक्रम सेन के दादा थे।
राज हितेन्द्र सेन का जन्म 13 सितम्बर, 1925 ई. में हुआ। वे 1940 ई. में क्योंथल रियासत के राजा बने। उनके राज्यकाल में 1948 ई. में अनेक पहाड़ी रियासतों के साथ क्योंथल रियासत का भी हिमाचल प्रदेश में विलय हुआ। अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में वे कुछ अस्वस्थ रहने लगे तथा 13 दिसम्बर, 2002 ई. को वे स्वर्गगमन कर गए। वे बड़े व्यवहार कुशल तथा लोकहितैषी राजा थे। उनकी देवी-देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा थी। उन्होंने अपने राज्यकाल में श्री तारादेवी मन्दिर का जीणोद्धार करवाया। मन्दिर फर्श तथा दीवारों को पक्का करवा कर उन्होंने मन्दिर का वास्तुकला को सुन्दर तथा आकर्षक बनवाया। उन्होंने मन्दिर के समीप ही पाकशाल तथा श्रद्धालुओं की सुविधा को ध्यान में रखते हुए कुछ कमरों का निर्माण करवाया। वर्ष 1987 में श्री तारादेवी मन्दिर न्यास के अस्तित्व में आने के पश्चात् वे 12-3-1987 से 15-8-1993 तक न्यास के प्रथम अध्यक्ष भी रहे।
श्री तारादेवी मन्दिर हिमाचल प्रदेश का एक ऐसा सिद्ध शक्तिपीठ है जहां भगवती तारा ने अपनी इच्छा से तारब की ऊंची तथा सुरम्य पहाड़ी पर बने अपने प्रिय तथा पवित्र आवास में प्रवेश किया। यहां देवी कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके सामने बाएं भाग में कटे सिर वाला महादैत्य महिषासुर है तथा उनके सामने दक्षिण भाग में उनका वाहन सिंह (शेर) है भगवती की अठारह भुजाएं खंग, वज्र, चक्र, त्रिशूल, परशु, पाश, दण्ड आदि आयुधों से विभूषित हैं।
यहां इस बात का उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि भगवती ने पूर्वकाल में परगना खुशाला के गनपैरी ग्राम में भी एक मन्दिर में स्थान ग्रहण किया था इस मन्दिर का प्रबन्धन यहां के स्थानीय लोगों द्वारा किया जाता है। मन्दिर की देख-रेख व पूजा-अर्चना परम्परानुसार इसी ग्राम के ब्राह्मण परिवार द्वारा की जाती है। श्रद्धालु यहां भी भगवती के दर्शन करने आते हैं। निकटवर्ती क्षेत्र के निवासी कशड़ी (घी से भरा एक विशेष पात्र) सर्वप्रथम भगवती को अर्पण करने के उद्देश्य से इस मन्दिर में पहुंचते हैं। 'गनपैरी की देवी' के नाम से प्रसिद्ध इन्हें भगवती तारा की अनुजा (छोटी बहन) माना जाता है। नवरात्र पर्व पर इन्हें भगवती तारा के सान्निध्य में श्री तारादेवी मन्दिर में रखा जाता है।
श्रद्धालुओं के लिए श्री तारादेवी मन्दिर एक तीर्थ रूप है : भगवती की छत्र-छाया में जितना भूक्षेत्र बसास है, यह स्वयं भगवती तारा के ही सुरक्षण में है। कभी भी इस क्षेत्र में अकाल, अनावृष्टि, महाभ्य तथा महामारी जैसी स्थिति पैदा नहीं हुई। सभी लोग भगवती तारा को अपना इष्ट मानते हैं। इस क्षेत्र के निवासियों को जब भी किसी रोग, शोक, भय, दुःख तथा कष्ट का अनुभव होता है अथवा किसी प्रकार के विषम संकट में फंस जाने की स्थिति आ जाती है, तो वे भगवती तारा की शरण में आकर प्रार्थना करते हैं। देवी की कृपा से उनका कोई भी अमंगल नहीं होता।
भगवती तारा की शरण में अनेक ऐसे लोग भी आते हैं, जो मानते है कि उनके परिवार या परिजन को किसी छाया, भूत-प्रेत, डाकिनी, शाकिनी या पिशाचादि ने भयाक्रान्त कर रखा है अथवा किसी ऊपरी लाग ने कारक बन कर उनके दुधारू पशुओं को ग्रसित कर रखा है। कहना न होगा कि भगवती तारा की कृपा से उनके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा वे शीघ्र ही भयमुक्त हो जाते हैं। भगवती शरण में आए हुए सभी दीन-दुःखियों की पीड़ा को दूर करने तथा उनकी रक्षा करने में सदैव संलग्न रहती है।
जुनगा के सेनवंशीय राज परिवार में एक बार ऐसा समय भी आया जब तत्कालीन क्योंथल रियासत के राजा स्वर्गगमन कर गए। उस समय राजकुमार बाल्यवस्था में थे। ऐसी परिस्थिति में राज्य की बागडोर रानी को सम्भालनी पड़ी। इस बीच सिरमौर रियासत के राजा ने अपने राज्य का विस्तार करने के इरादे से अनुकूल समय जानकर क्योंथल राज्य पर आक्रमण कर दिया। इस कठिन तथा अप्रत्याशित परिस्थित में रानी ने सर्वप्रथम अपनी कुलदेवी भगवती तारा की शरण में जाना उचित समझा। उन्होंने भगवती से मार्गदर्शन और सहायता की प्रार्थना की। भगवती का आशीर्वाद प्राप्त करके पूरी तरह से आश्वस्त होकर रानी ने अपनी सेना का स्वयं नेतृत्व किया तथा भगवती तारा की ध्वजा को सबसे आगे रखकर बड़ी वीरता से रणभूमि में युद्ध लड़ कर विजय प्राप्त की।
ऐसा माना जाता है कि भगवती अदृश्य रूप में स्वय रणभूमि में उपस्थित रहीं। इस सन्दर्भ में इस आश्चर्यजनक अविश्वसनीय किन्तु सत्य चमत्कार का उल्लेख करना भी चित्ताकर्षक है जिसके कारण रानी के वीर सैनिकों का मनोबल ऊंचा रहा। कहा जाता है कि यदा-कदा रानी के सैनिकों को अल्पाहार में लट्ठे की चादर पर बथुआ भून कर खिलाया जाता था इसी चादर को आगे तान कर युद्ध के समय ढाल के रूप में प्रयोग में लाया जाता था। विपक्षी सैनिकों की बन्दूकों से निकलने वाली गोलियां इस आवरण को नहीं भेद सकती थीं जबकि रानी के बन्दूकधारी सैनिकों की गोलियां इस आवरण में से निकलकर शत्रु के सैनिकों पर सीधा प्रहार करती थीं।
एक समय इस पर्वतीय क्षेत्र में भयंकर महामारी फैली। अनेक लोग असमय ही काल के गाल में समाने लगे। इस जानलेवा महामारी की रोकथाम के अनेक उपाए किए जाने लगे। निकटवर्ती क्षेत्र के निवासी इस त्रासदी से भयाक्रान्त होकर भगवती तारा महाभय का नाश करने वाली, महासंकट को शान्त करने वाली तथा अपने भक्तों के मनोरथ को पूर्ण करने वाली हैं। भगवती तारा शीघ्र फलप्रदा हैं। भगवती की कृपा से इस समूचे क्षेत्र पर उक्त जानलेवा महामारी का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा।
श्री तारादेवी मन्दिर में 7 अगस्त, 1970 को एक बहुत ही निन्दनीय घटना घटित हुई। अर्धरात्रि के समय कुछ लुटेरों ने मन्दिर के द्वार को तोड़कर गर्भगृह में प्रवेश किया। भगवती तारा की मूर्ति को उठाकर वे भागने लगे। वे कुछ ही दूरी तक मूर्ति को ले जा सके थे कि उनका दम घुटने लगा। उनकी आंखों के आगे अन्धेरा छा गया। उन्हें आगे जाने का रास्ता नहीं सूझा। भगवती की अद्भुत शक्ति ने लुटेरों के इस नीचतापूर्ण दुष्कृत्य को विफल कर दिया। विवश होकर उन लुटेरों ने भगवती की मूर्ति को एक बड़ी झाड़ी के बीच फैंक कर छोड़ दिया और वे स्वयं रात्रि के अंधेरे का लाभ उठाकर भाग निकले।
इस अप्रत्याशित घटना ने सभी को दुःखाकुल कर दिया। भगवती तारा के जो आयुध खण्डित हुए थे उन्हें पुनः बनवाया गया। मूर्ति को मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठाापित करने की शास्त्रोक्त प्रक्रिया पर चर्चा करने हेतु क्योंथल (जुनगा) के राजा हितेन्द्र सेन की गरिमामय उपस्थिति में एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें जि+ला शिमला तथा सोलन के प्रायः सभी लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों ने भाग लिया। बघाट (सोलन) नरेश दुर्गासिंह पंवार को इस सम्मेलन में विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया। चर्चा के अन्त में इसस महासम्मेलन में उपस्थित सभी विद्वानों ने सर्वसम्मति से जिस प्रतिष्ठाापन विधि का अनुमोदन किया, उसी के अनुसार ही लक्षचण्डी महायज्ञादि करवाकर हिन्दूधर्म शास्त्र विहित दक्षिणमार्गीय विधि-विधान से आचार्य श्रीकान्त के निरीक्षण में राजपुरोहित शास्त्री जीतराम शर्मा के आचार्यत्व में तथा राजपण्डित कृपाराम शास्त्री के मुख में मन्त्रोच्चारण द्वारा भगवती तारा की मूर्ति को श्री तारादेवी मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठापित किया गया।
क्योंथल राजवंश की अपनी कुलदेवी भगवती तारा के प्रति अटूट श्रद्धा है। वे समय-समय पर अपने कल्याणार्थ तथा सर्वजनहितार्थ श्री तारादेवी मन्दिर में अनुष्ठान करवाते रहते हैं।
श्री तारादेवी मन्दिर में आने वाले श्रद्धालुओं में से अनेक ऐसे भी हैं, जो भगवती का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अथवा मांगी गई मन्नत पूरी होने पर दूर-दूर से नंगे पावं पैदल चलकर यहां पहुंचते हैं।
वस्तुतः भगवती सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी हैं। वे अपने भक्तों की रक्षा तथा कल्याण के लिए ही प्रकट रूप में इस मन्दिर में निवास करती हैं।
(यू.एन.एन.)
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