Back Download Printable version of this Article
कविता
गज़ल स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        डा. केशव शर्मा
कैसे खोलें अब यहां पर हम ज़ुबां,
हो गये हैं सब गिले शिकवे अयां।

मकसद-ए-फ़रयाद हमको याद था,
रु-ब-रु होकर हुए हैं बेज़ुबां।

मैक़शों की बज़्म में सब हैं ख़ुदा,
शैखजी ताज्जुब है कि तुम हो यहां।

साक़ी अपना काम कर मत पूछ तू,
रिंद हैं हम इसलिये आए यहां।

क्यूं न मैं तुमको यहां सिज़दा करूं.
तुम भी हो, और मैं भी हूं, है आशियां।

खुल के भी मुझको नही रोने दिया,
ये सिला देना था मेरे पासबां।

अश्क़ों पे हंसते हैं मेरे वो ही लोग,
जिनकी ख़ातिर अश्क़ बरसाये यहां।

अब नज़र आता नहीं इन्सान तक,
आदमी ही आदमी मिलते यहां।

एक घर उजडा तो फिर क्या हो गया,
हमने देखे हैं बिखरते कारवां।

करता हूं वीरानगी से गुफ़्तगू,
है नही आबादियों में राज़दां।

ख़ामोशी-ए-मरघट ज़रा खामोश रह,
सोचने दे लौटकर जाउं कहां।

ऐ ख़ुदा मुझको फ़क़त आज़ाद कर,
अब सहा जाता नहीं दर्द-ए-निहां।

दर्द पर आता है ज्यों ज्यों कर शबाब,
रफ़्ता रफ़ता शौक़ होता है जवां।

(यू.एन.एन.)