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विशेष समाचार
360 दिन का साल भी होता है हिमाचल में स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
शिमला (यू.एन.एन.) हिमाचल के लाहुल- स्पिति, किन्नौर और लद्दाख में काल गणना के लिये तिब्बती पंचांग का अनुपालन किया जाता है जो चन्द्रमा के गतिक्रम पर आधारित है। प्रत्येक माह में तीस दिन और बारह मास के एक वर्ष में 360 दिन होते हैं। क्योंकि सूर्य समय से इसका समन्वय किया जाना होता है इसके लिये कुछ स्थाई प्रबंध किये गए हैं। यथा वर्ष भर के किसी-किसी महीने में कभी कुछ दिन घटा दिये जाते हैं और कभी बढ़ा दिये जाते हैं। इसी प्रकार कभी पूरा महीना भी साल में जोड़ा अथवा छोड़ भी दिया जा सकता है। इसके लिये दो पारिभाषिक शब्द हैं : छद् (विसर्जन) और ल्हग्‌ (जोड़ अथवा वृद्धि)। उदाहरण के लिये नियमानुसार आठ तारीख के पश्चात्‌ नौ आना चाहिये परन्तु छद् की स्थिति में आठ के पश्चात्‌ नौ के स्थान पर दस गिना जाएगा, क्योंकि नौ का छद् (विसर्जन) हो गया है। कुछ लोगों का मानना है कि ये छूटे हुए दिन अशुभ हैं। इसी प्रकार ल्हग्‌ की स्थिति में किसी तिथि को दो बार गिना जाता है।

महीनों के नाम नहीं होते हैं। पहला मास, दूसरा मास आदि क्रम से गिना जाता है। वैसे महीनों के शास्त्रीय नाम हैं, परन्तु वे कभी व्यवहार में प्रयुक्त नहीं होते हैं। वर्षों के नाम होते हैं, जो दो प्रकार के हैं- प्रथम बारह वर्ष का चक्र जो बारह पशुओं के नाम पर आधारित है और दूसरा साठ वर्ष का चक्र जो पांच धातुओं और बारह पशुओं के नामों को जोड़कर बनता है। दोनों का पूर्णतया व्यावहारिक प्रयोग होता है। पहला बारह वर्ष का चक्र प्रायः मनुष्य की आयु की गिनती के लिये प्रयोग होता है। दूसरा साठ वर्ष का चक्र दीर्घकाल की गणना के लिये प्रयुक्त होता है। यह कालगणना की विधि प्राचीन भारतीय और चीनी पद्धतियों पर आधारित है।

वर्षों और सदियों के निरन्तर जुड़ते समय की गणना के लिये साठ वर्ष के चक्रों को जोड़कर गिना जाता है। यथा वर्ष 2001-02, जिसको लौह-सर्प अथवा केवल सर्प वर्ष के नाम से जानते हैं, साठ वर्ष के सत्रहवें चक्र का सोलहवां वर्ष रहा है। इस काल गणना की विधि का आरम्भ ई. सन्‌ 1027 से हुआ था। महीने में तिथि की गणना एक, दो से होती है जो तीस तक चलती है। अमावस्या के दूसरे दिन जब चन्द्रमा का विकास आरम्भ हो जाता है, महीना आरम्भ होता है। महीने के पन्द्रह तारीख को पूर्णिमा ( द-गङ्) और तीस तारीख को अमावस्या (नम्‌-गङ् = पूर्ण आकाश) होता है।

नए वर्ष का आरम्भ फरवरी-मार्च के मास में होता है। वर्ष 2002 में जल अश्व वर्ष 13 फरवरी से शुरू हुआ था।

हिमालय के इस ऊंचाई वाले क्षेत्र में नए वर्ष का आगमन यहां के निवासियों के लिये बहुत महत्वपूर्ण और एक उत्सव का अवसर है। लोसर अथवा नए वर्ष के नाम पर यहां विशेष उत्सव मनाया जाता है। यह उत्सव पूरे एक सप्ताह तक चलता है। इस अवसर पर पुराने वर्ष की सभी बुराइयों और वैमनस्यों को समाप्त करने का प्रयत्न किया जाता है और नए साल में पूर्णतया नया जीवन आरम्भ करने की कोशिश की जाती है। इस समय खेत में भी फसल नहीं होती है अतः लोग काम से मुक्त होते हैं। इसलिये निश्चिंत होकर त्यौहार का पूरा आनन्द लेते हैं।

यहां लाहुल में प्रचलित परम्परा के साथ तिब्बत और लद्दाख की परम्परा भी उल्लेखनीय है। तिब्बत में नए साल के दिन से लोसर अथवा नव वर्ष का त्यौहार मनाया जाता है। इसे मोनलम (पूजा) अथवा मोनलम-छेदमो (महा पूजा) भी कहा जाता है। इस प्रकार यह एक बड़े धार्मिक उत्सव का रूप धारण कर लेता है।

लद्दाख में लोसर का त्यौहार नया वर्ष आरम्भ होने से लगभग दो मास पहले मनाया जाता है। इसका कारण क्या है इस विषय में यहां के इतिहास से सम्बंधित एक अपुष्ट परम्परा प्रचलित है। कहते हैं कि एक बार काफी समय पहले तिब्बत के साथ लद्दाख का युद्ध होने वाला था और इस युद्ध का समय लगभग नए वर्ष के आरम्भ में पड़ता था। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि कहीं इस युद्ध के कारण लोसर का उत्सव ही रद्द न करना पड़े, इसे वर्ष आरम्भ होने से पहले ही मनाने का निर्णय लिया गया और तब से यह परम्परा चली आ रही है।

लाहुल में वर्ष भर में मनाए जाने वाले सभी उत्सवों में नव वर्ष के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला त्यौहार सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण है। यहां यह त्यौहार अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय पर मनाया जाता है। ऐसा क्यों है! इसका कोई कारण ज्ञात नहीं है। मनाने की विधि मोटे तौर पर सभी जगह पर समान है हालांकि काफी विविधताएं भी हैं। ये असमानताएं इसके बावजूद भी हैं कि इनको मनाने की शुभ तिथि एक ही पंचांग, यथा तिब्बती पंचांग पर आधारित है।

यही नहीं इस त्यौहार का अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग नाम भी है। पट्टन घाटी में इसको खोगल अथवा फागली के नाम से जानते हैं। यह वर्ष के प्रथम दिवस से मनाया जाता है। हिमाचल के विभिन्न भागों में बसे खम्पा समुदाय के लोग भी इसी दिन से लोसर मनाते हैं। रांगलो-खोकसर, पुनन अथवा गाहर इलाके में इसे हल्डा (मशाल) कहते हैं और तोद घाटी में लोसर। इन इलाकों में यह त्यौहार नया वर्ष आरम्भ होने से लगभग एक माह पहले मनाया जाता है। पुनन में इसको तोद से एक-दो दिन के अन्तर से हमेशा बाद में मनाया जाता है। वर्ष 2002 में 13 फरवरी को नया वर्ष आरम्भ हुआ था और तोद में यह त्यौहार 26 जनवरी को मनाया गया तथा वर्ष 2001 में इसे 13 जनवरी को मनाया गया था।