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संगीत
योग और भारतीय संगीत स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक        रश्मि ठाकुर
भारतीय संगीत विच्च्व का प्राचीनतम संगीत है। संगीत की उत्पत्ति सृष्टि के साथ हुई। सृष्टि की उदय बेला का प्रथम चरण हो या मृत्यु का अंतिम पग हो, सुनहरे पल हो या दुःख भरे क्षण, संगीत का अस्तित्व हर पल, हर क्षण बना रहता है।

संगीत वह सुन्दर सुरभि सरस पद्य है जो बिना स्वर्ग के प्राणदायक, शीतल ओसकण से खिलता ही नहीं। हमारे ऋषियों और आचार्यों का यह विच्च्वास है कि शंकर के डमरू से वर्ण और स्वर दोनों उत्पन्न हुए।

ब्रह्मा भी संगीत के प्रेरक के रूप में स्मरण किये गये हैं। सतचित आनन्द स्वरूप ब्रह्मा ने अपनी त्रिगुणात्मिकता प्रकृति के द्वारा इस संसार की रचना की। ब्रह्म आनन्द स्वरूप है। अतः उस आनन्द तत्व से संगीत की उत्पत्ति हुई। उस ब्रह्म ने अपने को तीन रूपों में प्रकट किया। ब्रह्मा, विष्णु ओर महेच्च। ब्रह्मा के चार मुख है। उन्होंने चार मुखों से चार वेदों की उत्पत्ति की जिनके नाम हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद। सामवेद के समस्त मन्त्र गेय है। अतः सामवेद से ही संगीत की उत्पत्ति मानी जाती है। सामवेदीय पद उदात, अनुदात और स्वरित इन तीन स्वरों में गाये जाते थे। इन तीन स्वरों के अन्तर्गत सा रे ग म प ध नि इन सातों स्वरों का समावेच्च है। जैसे कि आचार्य पाणिनी ने कहा है -

उदाते निषाद गान्धारावनुदात ऋषभधैवतो।
स्वरित प्रभवा हृयते द्याड़जमध्यमपंचमा॥

शब्द और नाद की सृष्टि से उपजे इस ब्रह्मांड में जो तत्व विच्चेष सम्पूर्ण जड़-चेतन विच्च्व को समान भाव से एक सूत्र में बांधता है, वह संगीत है। संगीत ईच्च्वरीय वाणी है अतः ब्रह्म स्वरूप ही है।

''च्चब्द ब्रह्माणि निष्ठातः परब्रह्‌मधिगच्छति''।

अर्थात्‌ - शब्द ब्रह्‌म में पारंगत व्यक्ति परब्रह्‌म को सहज प्राप्त करता है।

प्राचीन काल से ही नादब्रह्‌म की उपासना के माध्यम से संगीत साधना को अपनाया जा रहा है। यह संगीत साधना दिव्य है क्योंकि इससे ही ÷सत्यम्‌ च्चिवम्‌ सुन्दरम्‌' की अभिव्यक्ति होती है।

वैदिक काल में संगीत धर्म व आध्यात्म से जुड़ हुआ था। भगवान च्चिव के हाथ में डमरू, विष्णु के हाथ में शंख, मां सरस्वती के हाथ में वीणा, कृष्ण की मुरली, गणेच्च का मृदंग आदि इसके सबल प्रमाण है और यह परम्परा आज तक विद्यमान है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल में भी मंदिरों में ईच्च्वर की उपासना करने के लिए कीर्तन का आयोजन होता है। गिरिजाघरों में सामगान, गुरुद्वारे में शब्द कीर्तन आदि ईच्च्वरोपासना का द्योतक है। अभिप्राय यह है कि सुख एवम्‌ शान्ति की कामना के लिए हम मंदिरों में जाते हैं।

भगवान च्चिव ने क्रोधित होकर जब ताण्डव नृत्य किया तो उन्हें शांत करने के लिए मां पार्वती ने लास्य नृत्य किया अर्थात्‌ संगीत में वो परमच्चक्ति है जो क्रोध को भी शांत करती है। अगर हम भारतीय संगीत के इतिहास काल में वर्तमान काल तक अपनी दृष्टि डालें तो हमें पता चलता है कि आध्यात्म किसी न किसी रूप में संगीत से जुड़ा है। चाहे विषय सामगान का हो या देवालय संगीत का। वेदों में विभिन्न स्वरों पर मंत्रोच्चारण का उल्लेख मिलता है। वेदों के अतिरिक्त उपनिषदों, ब्राह्मण गं्रथों आदि में भी संगीत के द्वारा ईच्च्वरोपासना का वर्णन मिलता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जब हम संगीत में आध्यात्मिकता की बात करते हैं तो उसमें कुछ कठिनाईयों सामने आती है। पारंपरिक पद्धति से संगीत सीखकर आत्मसता करने के लिए और आवाज विकसित करने के लिए, कम से कम दस पन्द्रह बरस या उससे भी अधिक समय लगता है।

आज के यंत्रयुग और वैच्च्िवकीकरण के समय में हमारी जीवन शैली और विचार प्रणाली बदल गई है। परिणामस्वरूप, मन, भावना तथा शरीर इनमें विद्यमान संतुलन बिगड़ गया है। अति गतिच्चीलता, यांत्रिकीकरण, व्यावहारिकता तथा बहुत बड़े पैमाने पर, वैच्च्िवक स्तर पर हो रहा सांगीतिक लेन-देन ये पहलू आज नये सिरे से सामने आ रहे हैं। संगीत सीखना, सीखाना और उसकी प्रस्तुति इनका सन्तुलन भी बिगड़ गया है।

आज के इन नए प्रच्च्नों के उत्तर पाने के लिए पारंपरिक संगीत च्चिक्षा पद्धति पर्याप्त नहीं हो रही है। इसके लिए च्चिक्षा पद्धति में अतिरिक्त साधना की सहायता आवच्च्यक बनी है। और इस प्रच्च्न का सही तथा सुन्दर उत्तर है ÷योग साधना' क्योंकि प्राचीन काल में संगीत साधक, योग साधक भी होते थे।

योग साधना आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत हो गई है, फिर भी जीवन के सभी पहलू-चाहे विज्ञान हो, कला हो सभी में योगसाधना लाभदायी है। अर्थात्‌ संगीत में भी यह साधना लाभदायी है।

उपनिषद् में योग के विषय में कहा गया है कि-जो व्यक्ति न तो मजबूत हो, न ही अनुच्चासित हो और जिसका अपने ऊपर नियन्त्रण न हो वह व्यक्ति स्वयं को नीरस महसुस करता है जिसके कारण न तो वह कुछ सीख सकता है और उसकी स्मरण शक्ति भी कमजोर हो जाती है। वह अपने मस्तिष्क और स्मरण शक्ति को केवल योग के अभ्यास और ध्यान द्वारा ही बढ़ा सकता है। महर्षि पतंजलि ने समस्त शास्त्रों का सारसंग्रह करके योग के विषय में कुछ इस प्रकार से बताया है-

योगच्च्िचत्तवृतिनिरोधः।

अर्थात्‌ चित्त की वृतियों का निरोध योग कहलाता है। हठयोग के अनुसार भी योग शब्द समाधि का सूचक है किन्तु वहां जीवत्मा और परमात्मा के संयोग को योग कहा गया है। लिङ्गपुराण में योग के लक्षण के बारे में वर्णन किया गया है-

सर्वार्थविषयप्रात्तिरात्मनो योग उच्चयते॥

अर्थात्‌ आत्मा को समस्त विषयों की प्राप्ति होना योग कहा जाता है। समस्त विषयों को प्राप्त करने का सामर्थ्य योग की एक विभूति है। यह योग का लक्षण नहीं है। वृत्ति निरोध के बिना या सामर्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता। अग्निपुराण में ऐसा उल्लेख है-

आत्ममानप्रत्यक्ष विच्चिष्टा या मनोगतिः।
तस्या ब्रह्माणि संयोगो योग इत्यभिधीयते॥

अर्थात्‌ योग मन की एक विच्चिष्ट अवस्था है। जब मन में आत्मा और स्वयम्‌ मन को प्रत्यक्ष करने की योग्यता आ जाती है। तब उसका ब्रह्मा के साथ संयोग हो जाता है। संयोग का अर्थ है ब्रह्म की समरूपता उसमें आ जाती है यह समरूपता की स्थिति ही योग है।

योग के विषय में हठयोग की मान्यता का विच्चेष महत्व है -

सलिलै सैन्धवं यद्वत्‌ साम्यं मजति योगतः।
तथात्ममन सारेच्च्ैक्यं समाधिरभिधीयते॥

अर्थात्‌ जिस प्रकार नमक जल में मिलकर जल की समानता को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार जब मन वृत्ति शून्य होकर आत्मा के साथ ऐक्य को प्राप्त कर लेता है तो मन की उस अवस्था का नाम समाधि है।

इस प्रकार जीवात्मा का परमात्मा से, प्राण वायु का अपान वायु से, च्चिव का शक्ति से, सूर्य और चन्द्र का मिलन आदि योग है। योग इतना व्यापक विषय है कि सभी आध्यात्मिक एवं धार्मिक ग्रंथों में उसका किसी न किसी रूप में वर्णन हुआ है वेदों में भी योग के विषय में विवेचन किया गया है।

योग के समान संगीत का प्राथमिक विकास भी आध्यात्मिक विकास के लिए ही हुआ है। संगीत और योग दोनों के मूल तत्व और परिणाम सर्वकालिक है। संगीत मतलब ब्रह्म धुन एवं मेल, तो योग मतलब अंदरूनी धुन एवं मेल। हमारे शरीर में वैच्च्िवक ऊर्जा, चक्रों के द्वारा पहुंचती है। ये चक्र हमारे प्राण शरीर में होते हैं। वैच्च्िवक ऊर्जा नाड़ियों के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में आवच्च्यकता के अनुसार पहुंचायी जाती है। चक्र सात है सभी चक्रों का अपना महत्व होता है फिर भी संगीत साधना की दृष्टि से उनमें से तीन अधिक महत्वपूर्ण है

अनाहत चक्र : अंदरूनी मेल (समन्वय) लयबद्धता, समय का ख्याल, चलन में होने वाली मृदुता, स्फूर्ति, भावनाओं का सन्तुलन आदि विकास के लिए ''अनाहत चक्र'' का महत्व होता है। सांगीतिक दृष्टि से शरीर में पहला नाद इसी चक्र से उत्पन्न होता है। (अनाहत नाद) और बाद में कंठ से (अथवा वाद्य द्वारा हाथों से) प्रकट होता है।

विच्चुद्ध चक्र :भावना तथा विचार प्रकट करना, अंदरूनी एवं बाह्‌य जगत में सामंजस्य, आवाज, सृजनच्चीलता, आत्मविच्च्वास आदि पहलू इस चक्र की ऊर्जा पर निर्भर होते हैं संगीत की प्रस्तुति और सृजनच्चीलता, विच्चुद्ध चक्र के विकास पर निर्भर रहती है- गायन में भी और वादन में भी।

आज्ञा चक्र :इस चक्र का भी विच्चेष महत्व होता है। सम्पूर्ण मस्तिष्क के कार्य पर इसी चक्र का अधिकार चलता है। श्रवण, ज्ञान, प्रज्ञा, प्रतिभा, कल्पना शक्ति, विचार शक्ति, तर्क, विच्च्लेषण शक्ति, स्मृति शारीरिक एवम्‌ मानसिक संयम, वैच्च्िवक ऊर्जा के साथ होने वाला तालमेल आदि बहुत महत्वपूर्ण बातों पर आज्ञाचक्र का अधिकार होता है।

संगीत की क्षमता को बढ़ाने के लिए -ऊँ कार, आसन, बंध, क्रिया, मुद्रा और प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए जिससे हमारी अनुभूति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होने लगती है। ऊँ के उच्चारण से मस्तिष्क में आत्म उन्नति की ओर ले जाने वाले केन्द्र होते हैं वे विकसित होते हैं। अतिसूक्ष्म स्पंदन के कारण स्मृति केन्द्र, बोलने के एवं श्रवण करने के केन्द्र विकसित होते हैं। ऊँ के उच्चारण से चेहरा तथा मस्तिष्क में होने वाले त्मेवदंजवते शुद्ध होकर आवाज+ में मिठास बढ़ती है।

आसन : आसन का भी संगीत साधना में विच्चेष महत्व है। संगीत के लिए मुख्य आसनों में पर्वतासन, परिवर्तित चक्रासन, सर्वांगसन है।

पर्वतासन :यह आसन पद्मासन में किया जाता है मगर सांगीतिक लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से यह सीधी, आसान बैठक स्थिति में किया जा सकता है। इससे फेफड़ों में होने वाले ऊपरी वायुकोष और मृतपोली को उत्तेजन मिलता है और वे कार्यान्वित होते हैं और उसके कारण श्वास की क्षमता बढ़ती है। गायन तथा वादन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से श्वास की क्षमता पर निर्भर होता है।

परिवर्तित आसन :इस आसन द्वारा भी फेफड़ों की क्षमता बढ़कर श्वास की क्षमता बढ़ती है। जो कि संगीत साधकों के लिए जरूरी है।

सर्वांगसन :सर्वांगसन में सिर नीचे और पैर ऊपर की ओर होता है। इससे मस्तिष्क की ओर रूधिर (ठसववकद्ध की आपूर्ति अतिरिक्त मात्रा में होती है। सांगीतिक क्षमता को बढ़ाने के लिए इसका उपयोग होता है। श्रवण, स्मृति और कल्पना शक्ति संगीत के लिए आवच्च्यक अंग विकसित होते हैं।

बंध : बंध से तात्पर्य है कि शरीर की ऐसी स्थिति जिसमें महत्पपूर्ण चक्रों के स्थान पर वायु और रूधिर की गति पर नियन्त्रण किया जाता है।

क्रिया : क्रिया शरीर की शुद्धि करती है। उसके कारण शरीर, भावना और मन में होने वाली अच्चुद्धियां विषद्रव्य और रूकावटें दूर होती है।

कपाल भाती : संगीत साधक की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्वपूर्ण क्रिया है। इससे उदर, फेफड़ें मुख और सिर आदि भागों के त्मेवदंजवते एक साथ शुद्ध होते है। इससे आवाज की गहराई, गांभीर्य माधुर्य और मिठास एकदम बढ़ती है और श्रवण क्षमता भी बढ़ती है।

प्राणायाम : प्राणायाम श्वसन का प्रकार है, ऐसा ही महसूस होता है। परन्तु श्वसन प्रकार में केवल श्वास को महत्व दिया जाता है, जबकि प्राणायाम में ÷एहसास' को महत्व दिया जाता है। प्राणायाम से भावना और मन पर नियन्त्रण बनता है और दोनों में सन्तुलन आ जाता है। संगीत में लय एवं ताल के साथ श्वास का सम्बंध होने से संगीत साधकों के लिए प्राणायाम उपयुक्त होता है। प्राणायाम में दो-तीन प्राणायाम जैसे : भस्त्रिका प्राणायाम, उज्जैयी प्राणायाम तथा भ्रामरी प्राणायाम करने से संगीत साधकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगें तथा इनसे श्वसन क्षमता का सभी प्रकार से विकास होगा।

सारांच्च में कहना होगा कि सभी संगीत साधक अपनी नित्य हर रोज की साधना में योग साधना का सहारा ले ले तो यह साधकों के लिए अत्यधिक लाभकारी सिद्ध होगी। जागृत क्षमता का विकास करने के लिए और सुप्त अवस्था में होने वाली क्षमता को जागृत करके, संगीत को कार्यान्वित करने के लिए योग साधना बहुत ही सुन्दर उपाय है। प्रत्येक संगीत साधक को आत्मउन्नति के लिए इससे विच्चेष फायदा मिलता है। संगीत और योग ये दोनों आत्म उन्नति का ध्येय भी है और साथ ही साथ आध्यात्म का मार्ग भी है। यदि हम संगीत और योग दोनों को जोड़ दे ंतो हम उस परमात्मा, नादब्रह्म, तथा मोक्ष की प्राप्ति की सीढ़ी पर पहुंच सकते हैं जो कि मानव जीवन का लक्ष्य है।

(यू.एन.एन.)