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संगीत
आध्यात्मिकता और भारतीय संगीत स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       भुवनेश्‍वर शर्मा
संगीत कला उतनी ही प्राचीन है जितनी कि मानव जाति। मनुष्य के जन्म संस्कार से लेकर मृत्यु संस्कार तक संगीत का प्रवाहमान रहता है। इस प्रकार धर्म, संस्कृति, आध्यात्मिकता एवं यज्ञ, कर्मकाण्ड में संगीत का परस्पर धनिष्ठ सम्बंध है। संगीत कला का सम्बंध आध्यात्मिकता के साथ परस्पर रहा है। भारतीय संगीत की उत्पत्ति का आधार वेद माने गये है। वेद के साथ आध्यात्मिकता का घनिष्ट सम्बंध भी स्थापित प्राचीन काल से रहा है। वैदिक युग से एक लम्बी यात्रा करते आज तक शुद्ध सरिता की भांति आध्यात्मिक तत्व एवं संगीत ज्ञान बहता चला आ रहा है। सभ्यता के साथ-साथ संगीत भी उन्नति करता है। वेदों को धर्म का मूल प्रवर्तक बताते हुए कहा गया - ''वेदोऽखिलो धर्म मूलं''। धर्म व संस्कृति का सम्बंध वैदिक सनातन धर्म को माना गया है।

आध्यात्मिकता का अर्थ एवं संगीत

अध्यात्म का अर्थ स्वयं के उसी सौंदर्य से परिचित हो जाना है जो सौंदर्य अपने केवल एक अंच्च में समक्ष कहीं पुरूष बनकर खिला है तो कहीं आकाच्च में पल-प्रतिपल बदलते रंगो में छिपा है। भाव यह है कि आत्मा परमात्मा के स्वरूप को जानना आध्यात्मिकता कहलाता है तथा साथ ही आवच्च्यक कर्तव्य अपने आपके अर्थात्‌ आत्मा के प्रति है। अपनी आध्यात्मिक उन्नति अपने आपको यथावत्‌ जानकर आत्मा-परमात्मा को जानना ही आध्यात्मिकता है। भारतीय संगीत में भी आध्यात्मिकता की अहम्‌ भूमिका है। वेदों का बीज मंत्र ओउम्‌ जो कि तीन अक्षर अ, उ, म से बना है। यह तीन अक्षर आध्यात्मिकता का आधार हैं। इन तीनो अक्षरों में ब्रह्मा, विष्णु, महेच्च का प्रार्दुभाव हुआ है।

समस्त कलाएं ओउम्‌ शब्द में निहित है। प्राचीन समय में ऋषि मुनि आदि, ईच्च्वर की आराधना आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न स्वर साधना द्वारा करते थे। ओउम्‌ स्वर का दीर्घ उच्चारण कर लम्बी ध्वनि द्वारा नाद स्थापित किया जाता था। इस उच्चारण को आध्यात्मिक ज्ञान की वृद्धि व संगीत उपासना का साधन माना जाता था। ब्रह्मा के मुख से चार वेद निकले है जो कि ऋग्वेद, यजुर्वेद अर्थववेद व सामवेद। प्राचीन समय में जब देव पूजन किया जाता था तो मंत्रों में आध्यात्मिक तत्व तथा गायन में साम स्वर स्थापित किये जाते थे। साम स्वर द्वारा ही ओंकार का उच्चारण कर स्वयं को जानना, ईच्च्वर को जानना अर्थात्‌ आत्मा परमात्मा के मेल में दिच्चा देखता तथा ''मैं कौन हूँ मैं अहंकार हंँ।'' इस भ्रम को मिटाना। वास्वत में नाद द्वारा ध्वनि का विकास किया जाता है तथा शरीर के अन्दर जो श्रद्धा है वह ईच्च्वर के प्रति समर्पित करना आध्यात्मिकता कहलाता है। शरीर को एक चित कर संगीत द्वारा आत्मा-परमात्मा के साथ सम्बंध जोड़कर ओंकार ध्वनि द्वारा सक्षम माना जाता था। ईच्च्वर भक्ति का सम्बंध पूजन-यजन से जोड़ा जाता है। पूजन-यजन के समय वैदिक मंत्रों में ऋचा गायन द्वारा देव स्तुति की जाती थी। देव-स्तुति को आंतरिक व बाह्‌य शक्ति द्वारा प्रयोग किया जाता था। स्तुति देव पूजन द्वारा मानव अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने में सफल माना जाता था। इसी दैविक ज्ञान से, आध्यात्मिक शक्ति की अहम्‌ भूमिका का स्थान माना जाता है भारतीय संस्कृति में ऋषित्ज+ो द्वारा आध्यात्मिक व योग की च्चिक्षा च्चिष्यों को दी जाती थी।

सनातन धर्म में वेदज्ञ ब्राहमण जिन्हें योग व आध्यात्मिक तत्व का पूर्ण ज्ञान होता था वह स्वभाविक कंठ स्वर, मधुर स्वभाव वेदगान के अनुकूल कार्य कुच्चल करते थे। वैदिक काल में संगीत आत्म विनोद व जनचित रजंनार्थ नहीं थे वरन्‌ सभी धार्मिक अनुष्ठान और सामाजिक संस्कारादि कार्यों के शुभ अवसरों पर गाने की परम्परा रही। संगीत की च्चिक्षा मौखिक क्रम, ध्यान साधना द्वारा समस्त भारत में प्रचलित रही। वेदोस्त ऋचायें संजीव होने के कारण ही सम्पन्न रही तथा सभी को समान रूप से फल प्राप्त होता रहा।

आध्यात्मिक तत्व से संगीत उत्पत्ति

संगीत की उत्पत्ति का आधार व निर्माता ब्रह्मा द्वारा हुई। ब्रह्मा ने आध्यात्मिक शक्ति द्वारा यह कला च्चिव भगवान को दी तथा च्चिव से सरस्वती को प्राप्त हुई। सरस्वती को ''वीणा पुस्तक धारणी'' कहकर और साहित्य की अधिष्ठात्री माना गया है। इसी आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा सरस्वती ने नारद को संगीत की च्चिक्षा प्रदान की। नारद ने स्वर्ग के गंधर्व किन्नर तथा अप्सराओं की संगीत च्चिक्षा दी। वहां से ही भरत, नारद और हनुमान आदि ऋषियों ने संगीत कला का प्रचार भू-लोक तक स्थापित किया। आध्यात्मिक आधार पर एक मत यह भी है कि नारद ने अनेक वर्षों तक योग-साधना की तब च्चिव ने उन्हें प्रसन्न होकर संगीत कला प्रदान की। आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा ही पार्वती की शयन मुद्रा को देखकर च्चिव ने उनके अंग-प्रत्यगों के आधार पर रूद्रवीणा बनाई और अपने पांच मुखों द्वारा पांच रागों की उत्पत्ति की। तत्‌पच्च्चात छठा राग पार्वती के मुख द्वारा उत्पन्न हुआ। च्चिव के पूर्व, पच्च्िचम, उत्तर, दक्षिण और आकाच्चोन्मुख होने से क्रमच्चः भैरव, हिडोल, मेघ, दीपक और श्री राग प्रकट हुए। पार्वती से कौच्चिक राग की उत्पत्ति हुई। च्चिव प्रदोष स्तोत्र में लिखा है कि जगत की जननी गौरी को स्वर्ण-सिहांसन पर बैठाकर प्रदोष के समय शूलपाणि च्चिव ने नृत्य करने की इच्छा प्रकट की। इस अवसर पर सब देवता उनके चारों ओर खडे होकर स्तुति गान करने लगे। सरस्वती ने वीणा, इन्द्र तथा ब्रह्मा ने करताल बजाना आरम्भ किया। लक्ष्मी जी गाने लगी। बिष्णु मृदंग बजाने लगे। गंधर्व, किन्नर देवता व अप्सराएँ आदि सब उपस्थित हुए। इस कथन से यह सिद्ध है कि ईच्च्वर शक्ति द्वारा संगीत का प्रार्दुभाव हुआ है तथा साथ ही आध्यात्मिक शक्ति को संगीत के साथ जोड़ा गया है।

आध्यात्मिक एवं नाद
प्राचीन समय में ध्वनि की उत्पत्ति व ÷ओउम्‌' स्वर से मानी गई है। नाद द्वारा ही आहत व अनाहत नाद स्पष्ट निकले हैं। अनाहत नाद, अनुभव प्रकिया द्वारा जाना जाता है। यानी जो बिना संघर्ष के स्वयं भू रूप होता है। जैसे दोनों कान जोर से बंद करने पर अनुभव करने पर सुना जाए तो सांय-सांय की आवाज सुनाई देती है। इसके बाद नादोपासना की विधि से गहरे ध्यान की अवस्था में पहुंचने पर सूक्ष्म नाद सुनाई पड़ने लगता है जो मेघ गर्जन या वंच्चीवर आदि के सदृच्च होता है। इसी नाद उपासना का प्रयोग प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि आदि कहते थे। जिसे ईच्च्वर प्रात्ति का साधन (अनाहत) माना जाता था। जो मुक्तिदायक होता था तथा आध्यात्मिक ज्ञान को उजाकर करता था। आहत नाद में संगीत का विच्चेष सम्बंध स्थापित है। जो कानों को सुनाई देता है और जो दो वस्तुओं के संघर्ष या रगड़ से पैदा होता है। इस नाद में संगीत को भवसागर पार लगाने वाला बताया गया है। आहत नाद का प्रयोग संगीत उपयोगी है। इसी नाद के माध्यम से सूरदास, मीरा इत्यादि ने प्रभु सन्निधा प्राप्त की। आध्यात्मिक तत्व की धारा में सूरदास, मीरबाई द्वारा ईच्च्वर प्राप्ति का साधन संगीत उपयोगी नाद से पूर्ण माना गया है। यह दोनों नाद ही आध्यात्मिक तत्व को संगीत से जोड़े रखते हैं।

यस्मिन्‌ सर्वाणि भूतान्यात्यैवा भूद्र विजानत।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वयनुपच्च्चतः॥

अर्थात्‌ जो सदैव समस्त जीवों को आध्यात्मिक शफुलिंग के रूप में भगवान के ही समान गुण वाला देखता है वही वस्तुओं का असली ज्ञाता ही जानता है। तो फिर उसके लिए मोह या चिंता कैसी है कहने का अभिप्राय यह है तो फिर उसके लिए मोह या चिन्ता कैसी है। कहने का अभिप्राय यह है कि भगवान के वास्तविक स्वरूप को संगीत के माध्यम से जाना जाता है। क्योंकि संगीत एक ऐसी भावना मानव के अंदर पैदा करती है जो कि प्रभु के ध्यान को एक चित करती है। इसमें मानव मोह की भावना को भूल जाता है।

धर्म और आध्यात्म एक साथ चलते हैं। ''धारयति सः धर्म'' जिसको हम धारण करते हैं वह धर्म कहलाता है धर्म के साथ ध्यान शब्द भी जुड़ा है। ध्यान का मतलब है चेतना ज्ञान, जागृति। संगीत में ध्यान का विच्चेष सम्पर्क है। स्वरों में ध्यान साधना का विच्चेष महत्व माना जाता है। ध्यान द्वारा स्वरों का गान किया जाता है। भगवान्‌ श्री कृष्ण ने भागवत्‌ में कहा है कि ईच्च्वर प्राप्ति योग साधना आध्यात्म द्वारा तथा दुसरा गान, भजन, कीर्तन के माध्यम द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

पुजात्‌ कोटिगुणं स्त्रोत्रं स्तोत्रं कोटि गुणों जपः।
जपात्कोटि गुणं गानं गानात्परतरं नाहिं॥

अर्थात्‌ पूजा से स्तोत्र करोड गुणा श्रेष्ठ है स्तोत्र से जप करोड़ गुण श्रेष्ठ है ओर जप से करोड़ गुणा श्रेष्ठ गान है। अतः गान से श्रेष्ठ उपासना का कोई साधन नहीं है।

आध्यात्मिक तत्व में लौकिक व शास्त्रीय संगीत

वैदिक संगीत में भारतीय संगीत का मूल स्त्रोत माना जाता है। संगीत एवं नाद निर्मित स्वरों पर आधारित है। प्राचीन ग्रन्थकारों के अनुसार स्वरों का संचलन वैदिक मंत्र से विच्चेष कर सामगान से किया जाता था। वैदिक काल में ही लौकिक व शास्त्रीय संगीत का सम्बंध आध्यात्मिक तत्व के साथ भी रहा है।

लौकिक संगीत : नारदीय च्चिक्षा में नारद ने सामगान के अतिरिक्त सभी अन्य गान प्रकार को लौकिक कहा है। वेदों में गाये जाने वाले गेय वस्तु के अतिरिक्त लोक में भी गाया जाता है। नारद ने वैदिक तथा लौकिक शब्द का कई बार प्रयोग किया है, एवं लौकिक का विवेचन गांधर्व के साथ बताया है। वैदिक गान का उद्ेच्च्य आध्यात्मिक गान भी माना गया है। उनका उदेच्च्य देव परितोष और मोक्ष प्राप्ति तथा लौकिक गान में, संगीत का प्रयोग व्यक्ति के विभिन्न सामाजिक अवसरों पर, सबके मंनोरजन के लिए तथा स्वेच्छा से गाये जाने वाला संगीत भी कहलाता था। लौकिक संगीत मंें लोक रामायण के माध्यम से तथा आध्यात्मिक स्वरूप के साथ जोड़कर लोक संगीत का विवरण प्र्रस्तुत किया जाता है। आधुनिक समय में भी श्रीमद् भागवत्‌ पुराण में कथा व लोक संगीत के माध्यम द्वारा ईच्च्वर भक्ति संकीर्तन किया जाता है। इस संकीर्तन के माध्यम से आध्यात्मिक शक्ति उजागर की जाती है और लोक रीति में प्रभु तत्व को इसी के माध्यम से समझाया जाता है।

शास्त्रीय संगीत : शास्त्रीय संगीत ÷साम' का रूप माना गया है। आधुनिक संगीत के सभी लक्षण इसमें घटित दिखाई देते है। जिनमें आलापादि नियम निबद्ध है तथा शास्त्रीय संगीत धार्मिकता का विच्चेष पुट है तथा वह पवित्र समझा जाता है इस पक्ष में आध्यात्मिक तत्व अधिक है। क्योंकि ऋचाओं में विच्चेष रूप से देवताओं की स्तुतियां है जो कि साम के पवित्र और धार्मिक होने के प्रमाण है तथा वैदिक सामगान ऋचाओं पर किया जाता था। ध्यान द्वारा देव स्तुति तथा आत्मा को परमात्मा के साथ संयोग कराना, सामगान द्वारा साधक प्राप्त करता था। एक स्वर द्वारा ÷ओउम्‌' का दीर्घ उच्चारण करना, आध्यात्मिकता की दृष्टि से ईच्च्वरीय शक्ति को प्राप्त करना तथा साथ ही विभिन्न ज्ञान मार्ग की कुजीं हासिल करना आध्यात्मिक तत्व संगीत के सहारे ही माना गया है। मंतगादि संगीतचार्यों द्वारा शास्त्रीय संगीत को, जो ब्रह्मा ने आध्यात्मिक शक्ति द्वारा उत्पन्न किया गया है वह संगीत अलौकिक उत्पत्ति के संकेत करता है और यह मार्गी संगीत कहलाया है।

द्रहिणेत यदान्विट प्रयुक्त भरतेन च।
महादेवस्य पुरतस्त मार्गीख्य विमुक्तदम्‌॥
अर्थात्‌ - ब्रह्मा ने जिस संगीत को शोधकर निकाला, भरत ने महादेव के सामने जिसका प्रयोग किया तथा जो मुक्तिदायक है वह मार्गी संगीत कहलाता है इससे यह भी अभिप्राय है कि यह संगीत आध्यात्मिक शक्ति द्वारा मोक्ष तथा मार्ग प्राप्ति का सफल साधन माना गया है।

आध्यात्मिक ज्ञान की यात्रा द्वारा ही हमारे संगीत में सम्बंध प्राचीन समय से लेकर आज तक विद्यमान है। आध्यात्मिकता की झलक आधुनिक समय से हमारे यज्ञ, कर्मकाण्ड, अनुष्ठानों व कथाओं में भी दिखाई देती है। जब हम पूजन, आराधना, कर्मकाण्ड के माध्यम से गायन-वादन तथा मंत्रों उच्चारण करते हैं तो वह उस परमात्मा के साथ सम्बंध स्थापित करने के लिए किया जाता है। वैदिक यज्ञ में अगर सामगान नहीं होता था तो वह यज्ञ वस्तुतः निच्च्फल माना जाता था। यह संकेत आध्यात्मिक तत्व के माने जाते हैं। आधुनिक समय में भी कर्मकाण्ड पद्धति में इस प्रथा का विचरण चला हुआ है। कर्मकाण्ड के मंत्रों मे जो शक्ति है उसी के द्वारा विभिन्न फल की प्राप्ति की जाती है। संगीत व आध्यात्मिकता का सम्बंध परस्पर आज भी माना जाता है। जहाँ संगीत व आध्यात्म है वहां देवी-देवता वास करते हैं। आज भी हमारे शास्त्रीय संगीत में बहुत सी बंदिच्चें हैं जिनमें ईच्च्वर का गुणगान स्वरो के माध्यम से किया जाता है जैसे भैरव राग में च्चिव का ध्यान स्वरों द्वारा किया जाता है। बहुत से श्रृगारिक रागों में भी जैसे काफी, भैरवी, सारंग आदि रागों में कृष्ण भगवान्‌ की लीलाओं का वर्णन, होरी वर्णन आदि किया जाता है। जो कि हमारे हिन्दू धर्म में आध्यात्मिकता का प्रतीक माने जाते हैं।

आध्यात्मिक तत्व एवं संगीत च्चिक्षा के उद्ेच्च्य

प्राचीन काल से वर्तमान काल तक संगीत आध्यात्मिक तत्व को पिरोए रखा। संगीत में लाभकारी आयाम भी आए लेकिन हम उद्ेच्च्य की बात को लें तो कोई भी कार्य बिना योजना के सफल नहीं होता है। प्राचीन काल से आधुनिक काल तक संगीत के पीछे कुछ न कुछ उद्ेच्च्य अवच्च्य मिलते हैं।

प्राचीन काल :
1. पवित्रता एवम्‌ आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा एकाग्रता की प्राप्ति।
2. स्वार्थ सिद्धि का न होना।
3. मोक्ष प्राप्ति का सफल साधन।
4. धार्मिक उदे्‌च्च्यों की प्राप्ति।
5. समाज मे एकता की भावना जागृत करना।
6. बौद्धिक मानसिक एवं शारीरिक भाव निर्मित करना।
मध्यकाल :
1. घरानेदारी एवं सघर्षिता का भाव निर्मित करना।
2. मार्ग देच्ची संगीत को बढ़ावा देना।
3. स्वार्थ सिद्धि का होना।
आधुनिक काल :
1. नागरिकता व एकता की भावना।
2. सांगीतिक परम्परा बनाए रखने का उदेच्च्य।
3. अनुच्चासन बनाए रखना।
4. आध्यात्मिकता की भावना।
5. धर्म निरपेक्षता एवं ध्यान के प्रति करना।
6. मनोरंजन का होना।

सूर, कबीर, तुलसी और मीरा

16 वी0 शताब्दी संगीत और भक्ति-काव्य के समन्वय की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण रही। क्योंकि इसी शताब्दी में सूर सागर के रचायिता एवं गीत-काव्य प्रकांड विद्वान महात्मा सूरदास, ÷राम चरित मानस' के यच्चस्वी लेखक गोस्वामी तुलसीदास, हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रतीक संत कबीर दास एवं सुप्रसिद्ध कवयित्री और भजन-गायिका मीरावाई द्वारा भक्ति पूर्ण काव्य के प्रचार से संगीत कला भगवत्‌ प्राप्ति का साधन बनकर उच्चत्तम च्चिखर पर पहुंची। इन संगीत विभूतियों ने संगीत के साथ आध्यात्मिकता का दिग्‌ दर्च्चन स्थापित किया। भारतीय संगीत में इन विभूतियों में भक्ति रस द्वारा आध्यात्मिकता के साथ घनिष्ठ सम्बंध रहा है। आधुनिक समय में आध्यात्मिकता का दिग्‌दर्च्चन हमारे ख्याल गायन, धु्रपद, धमार आदि में होता है। ख्याल गायन में स्वर द्वारा ही ओउम्‌ का उच्चारण आरम्भ में किया जाता है। अन्य गायन में ''ऊँ नारायण अनंत हरि'' का आलाप शुरू में स्थापित किया जाता है। धमार गायन में होरी विवरण द्वारा ईच्च्वर भक्ति रस स्थापित किया जाता है। भागवत्‌ पुराण मे भजन, कीर्तन के माध्यम द्वारा आध्यात्मिक संगीत स्थापित किया गया है।

आधुनिक समय में आध्यात्मिक तत्व की महत्वपूर्ण भूमिका है आध्यात्मिकता में संगीत द्वारा ही मन को एकाग्रचित किया जाता है। क्योंकि स्वर समाधि की अवस्था में ही संगीत की वास्तविक छवि का अनुभव होता है। साधना में ही तत्‌ कालीन होकर भावनाएं केन्द्रित होती हैं। आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा ही अनुच्चासन पालन की प्ररेणा मिलती है। आध्यात्मिकता के द्वारा ही राष्ट्रीय जागृति का विकास होता है तथा साथ ही संस्कृति का विकास होता है। क्योंकि भारतीय संस्कृति की परम्पराओं से अवगत करना तथा संस्कृति की मूल धरोहर को बचाना आध्यात्मिक तत्व द्वारा माना गया है। आध्यात्मिक संगीत द्वारा ही शारीरिक विकास तथा मानसिक दुर्बलता दूर होती है आध्यात्म द्वारा ही संगीत का सम्बन्ध ईच्च्वरीय शक्ति परमात्मा से जोड़ा गया है। संगीत व आध्यात्म द्वारा ही विच्च्वबन्धुता क भावना का विकास तथा मनोविज्ञान का विकास होता है।

संक्षेप में हम यह कह सकते है कि भारतीय संगीत में आध्यात्मिक तत्व प्राचीन समय में आधुनिक समय तक विद्यमान है। संगीत का वास्तविक सम्बंध व आधार आध्यात्मिक तत्व को ही माना गया है। स्वर साधना, ध्यान, भक्ति आदि कार्य आध्यात्मिक व संगीत के प्रमुख केन्द्र बिन्दु माने गए है।



(यू.एन.एन.)