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संगीत
भारतीय संगीत में आध्यात्मिक तत्व वर्तमान के परिपेक्ष में स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       डॉ0 जीतराम शर्मा
वैदिक काल में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद इन चार सहिंताओं में संगीत सम्बन्धि भिन्न-भिन्न विषय सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जो इस बात को प्रमाणित करता है कि इस काल में संगीत काफी विकसित हो चुका था। यद्यपि ऐसी धारण भी है कि संगीत का विकसित रूप मात्र सामवेद में ही परिलक्षित होता है। परन्तु यह भी सही है कि बाकि तीन वेदों में संगीत का एक सर्वांग व उत्तम रूप देखने को मिलता है।

वैदिक काल में बहुत बड़ी संख्या में मन्त्रों की रचना हुई है। जिनका संकलित रूप ÷संहिता' के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद, अग्नि, वायु, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि देवताओं व ऋषियों के मन्त्रों का संकलन है। इसमें दश मण्डलों का आस्तित्व माना गया है। इसमें और इन दश मडलों में 1020 सूक्त है। अष्टम मंडल ÷प्रगाथ' में 92 सूक्त है। जिनका स्वरूप गेय है। इन्हं स्वर छन्द लय में बद्ध कर गाने की परिपाटी प्रचार में थी। वैदिक साहित्य के अवलोकन से यह बात निश्चित कही जा सकती है कि उस समय दोनों पक्षों लौकिक और शास्त्रीय स्वरूप निर्धारित हो चुका था। ऋग्वेद के जहाँ उल्लिखित गाथा और लोक-संगीत के प्रकार जो विभिन्न सामाजिक अवसरों पर जनमनोरंजन के लिए प्रचलित थे। वहीं यज्ञादि अवसरों पर साम के रूप में प्रचलित शास्त्रीय संगीत का प्रचलन था। इसी काल में साम की पृष्ठभूमि पर निर्मित शास्त्रीय संगीत की प्रारंभिक अवस्था के विभिन्न तत्वों की प्रर्याप्त जानकारी मिलती है।

भारतीय समाज की सबसे सशक्त व उत्तम शक्ति धर्म है। धर्म आध्यात्म का प्रतीक है तथा भक्ति आध्यात्म के आचरण का एक माध्यम, आध्यात्म धर्म और भक्ति का सम्बन्ध मन के सात्विक भावों से होता है। यही भाव व्यक्ति को ईश्वर के प्रतिश्रद्धा से भरकर उसकी अर्चना की प्रेरणा देते है।

ऋग्वेद काल में गीत के लिए गीर, गातु, गाथा, गायत्र, गीति तथा साम शब्दों स्वरों में निबद्ध होने पर ऋग्वेद की ऋचायें संतोत्र कहलाती थी। इन स्तोत्रों का गायन जब प्रकारान्तर व विविध स्वरों के साथ किया जाता था तब यह ÷स्तोम' नाम से पुकारा जाता था। स्तोम्‌ वैदिक संगीत का महत्वपूर्ण अंग रहा है। यह एक विशिष्ट प्रणाली है। जिसमें आधुनिक संगीत की गान शैली की झलक मिलती है। गाथा जो एक विशिष्ट प्रकार का प्राचीन परम्परा पर आधारित गेय प्रबन्ध है का गायन धार्मिक और लौकिक समारोह के अवसर पर किया जाता था। साम के गायन का उल्लेख ऋग्वेद में बार-बार आता है। इससे यह सिद्ध होता है कि ऋग्वेद काल में साम गान बहुत प्रचार में था और इन्हीं सामों पर आधारित ऋचाओं का गान किया जाता था।इन सामों का गायन धार्मिक और लौकिक दोनों प्रसंगों पर किया जाता था। उस समय प्रातःकाल में मंगल वाद्य के रूप में वीणा आदि जिसे वाण कहते थे का प्रयोग होता था। दुंदुभि वैदिक युग का महत्वपूर्ण वाद्य माना जाता था। विभिन्न अनुष्ठानों और मंगल कार्यों में गायन वादन और नृत्य प्रचार में था।

भारतीय संस्कृति में प्राण-प्रतिष्ठा करने वाला सबसे मुख्य तत्व आध्यात्मक ही है। परम्परावादी भारतीय जीवन में प्रत्येक व्यापार तथा सफलताओं में यही भावना मिलेगी। यहाँ के लोगों का पारस्परिक प्रण्य-बन्धन युद्ध-शान्ति, श्रृंगार तथा सभी उच्च कोटी की ललित कलाओं में मुख्य आधार आध्यात्म तथा आत्मा व परमात्मा में अथाह आस्था है। प्रत्येक भारतीय व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक संगठन यहाँ तक कि राजनीतिक योजनाएं भी आध्यात्मिक भावना से सर्वदा अनुप्रेरत रहती है।

भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों में जीवन-मरण बोध, पाप-पुण्य, जन्म-पनर्जन्म, कर्म-विचार, मुक्ति का मार्ग, दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, सौन्दर्योपासना कलात्मक-लालित्य, संगीत स्थापत्य, चित्र-कला नृत्य तथा काव्य कला आदि को रखा जा सकता है। ये तत्व हमारी संस्कृति के अन्तर्गत आते है। यह परम्पराएं प्रथाएं संस्कृति के अन्तर्गत आती है। कलाएं सभ्यता के साथ विकसित होती है तथा आध्यात्म के धरातल पर एक हो जाती है। भारतीय धारणा के अनुसार उत्कर्ष की अन्तिम स्थिति में पहुंच कर कलाएं भी भक्ति भाव द्वारा मोक्ष में सम्माहित हो जाती है। विद्वानों के अनुसार वेद ग्रन्थ प्राचीनता व आध्यात्मिकता के प्रतीक है। वैदिक काल में भक्तिभाव सर्वोच्च स्थान को प्राप्त था। तत्पश्चात पौराणिक काल का आर्विभाव हुआ। इस काल में अनेक जातियों के आगमन के कारण भारतीय परम्परा और संस्कृति में महान्‌ परिवर्तन हुए। जिनमें आध्यात्मिकता और भक्तिभाव की परम्परा में जबरतस्त परिवर्तन हुए। वेदों में अग्नि, वरूण, सोम इत्यादि जिन देवताओं की प्रधानता थी उसका स्थान विष्णु एवं शिव ने ले लिया। पुराणों के पश्चात उपनिषदों, महाकाव्यों, हिन्दी संस्कृत साहित्य व ग्रन्थों में भी भक्तिभाव की यह धारा निरन्तर प्रवाहमान रही है। रामायण, महाभारत, गुरू ग्रन्थ साहिब जो आध्यात्म की अनमोल निधी है। इसमें आध्यात्म कभी मन्त्रोच्चारण में, कभी यज्ञों में, कभी कर्मकाण्डों में तथा कभी संगीत रूप उजागर होता है।

इतिहास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि जब-जब भारत पर विपत्तियाँ आई, धर्म की ग्लानि हुई, लोगों की धर्मिक भावनाएं डगमगाने लगी। तब-तब यहाँ के सन्तों, भक्तों, विद्वानों व धर्मात्माओं ने भक्तिभाव की डोर थाम कर ही इन परिस्थितियों का सामना किया तथा ईश्वर की सत्ता को बनाएं रखने में सहयोग दिया। जब हिन्दु धर्म में कुरीतियाँ आई तो बौद्ध व जैन धर्म का उत्थान हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप हिन्दु धर्मांनुयाइयों ने अपने धर्म में सुधार हेतु प्रयास किए जब मुस्लिम शास्कों के अत्याचार बड़े तो सिक्ख धर्म का उत्थान हुआ तथा सिक्ख गुरूओं ने हिन्दु धर्म की रक्षा के लिए कुर्बानियाँ दी। समय के साथ आध्यात्म और भक्ति के साधन भले ही बदल रहे हो। परन्तु आध्यात्म आज भी उसी शास्वत रूप में है जैसे वैदिक-काल में था। परम्परा में आध्यात्म आज भी शीर्ष पर ही है। आध्यात्म की महिमा का ही परिणाम हैं कि हमारे साहित्य के चार कालों (आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल), में भक्ति काल को स्वर्ण युग की संज्ञा प्राप्त है। इस युग में गुरू नानक, कबीर, मीरावाई, सूरदास, तुलसीदास आदि भक्त कवियों ने आध्यात्म का परचम सम्पूर्ण विश्व में लहराया। यदि यह कहा जाए कि मनुष्य ने विपत्ति में किसी चीज+ को नही त्यागा तो वह आध्यात्म ही है। इतिहास से वर्तमान तक यदि आध्यात्म आज भी विद्यमान है तो इसका श्रेय हमारी ललित कलाओं को ही जाता है। हमारे प्राचीन मन्दिर भी वास्तुकला की ही देन है। उन पर बनी चित्रकारी और मूर्तियाँ, चित्रकला और मूर्तिकला का उपहार है। जिनमें आध्यात्म को यह आकार प्राप्त हुआ है। हमारे महाकाव्य साहित्य और काव्यकला का सागर है। जिसमें आध्यात्म को शब्दालंकारों से सजा कर निहित किया गया है। संगीत कला आध्यात्म के संरक्षण का सर्वोंत्तम माध्यम है। इसमें भक्ति को स्वरों में पिरोकर सुन्दर आभूषणों की भाँति सजाया जाता है। हमारे वाग्यकारों सन्तों द्वारा रची गई बन्दिशें, गीत, भजन इत्यादि संगीत कला के द्वारा ही सुरक्षित है।

संगीत में मन को एकाग्र करने की एक विचित्र शक्ति है। परमात्मा के याद करने के लिए जिस एकाग्रता की आवश्यकता होती है। वह संगीत के माध्यम से ही प्राप्त होती है। संगीत में एक लयबद्धता होती है। जिससे स्वरों में गति बनी रहती है। इससे एक रस प्रवाह रहता है तथा हृदय की एकाग्रता बनी रहती है। भक्त के साधना काल में उसके हृदय की भावनाएं आस पास के कोलाहल में बांधित हो जाती है व ध्यान टूट जाता है। परन्तु संगीत द्वारा भावनाओं को अभिव्यक्ति ही नहीं मिलती। परन्तु अबाधित वातावरण भी मिलता है। एकाग्रता के इस गुण के कारण ही सभी ने संगीत को सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना है। यदि ईश्वर को याद करने के लिए स्वरों को आधार बनाया जाए तो ध्यान भंग होने की शंका नहीं रहती। हमारे भारतीय दार्शनिकों का दृष्टिकोण भी संगीत के प्रति आध्यात्म परक ही रहा है। केवल वासनाओं का उद्ददीपन कर कुत्सित प्रवृतियों की ओर प्रेरित करना भारतीयों का लक्ष्य कभी नही रहा। चंचल मनः प्रवितियों का निवारण कर चित्त की एकाग्रता से मानव-मंगल की सिद्धि करना, यही संगीत सम्बंधी भारतीय दृष्टि कोण रहा है॥

सूफ़ी इनायत खाँ साहब के अनुसार ÷÷संगीत के बारे में आश्चर्यजनक बात यह है कि यह व्यक्ति को विचारों से स्वतन्त्र होकर ध्यान लगाने में सहायता करता है। इसलिए संगीत साकार और निराकार के बीच की खाई के ऊपर एक सेतु सा प्रतीत होता है। यदि कोई वस्तु बौद्धिक, प्रभावशाली और साथ ही निराकार है तो वह है संगीत। संगीत हमारे अंतरतम आस्तित्व को स्पर्श करता है और इस तरह से नया जीवन उत्पन्न करता है। एक जीवन जो पूरे आस्तित्व को प्रशंसनीय बनाता है, पूर्णता तक ऊँचा उठाएं हुए, जिसमें मनुष्य के जीवन की पूर्ति निहित है।''

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संगीत एक ऐसा माध्यम है जो आध्यात्मिकता को मानव जीवन में बनाएं रखता है। आध्यात्म अगर जीवन में जरूरी है तो संगीत के बिना इसका आस्तित्व नज+र नहीं आता। इसलिए किसी ने ठीक ही कहा है-

प्रभु चिंतन करो प्रभु प्यारों दो

घड़ी मन प्रभु में लगा लो।

श्वास की हर घड़ी कीमती है

व्यर्थ जाने से इसको बचा लो।

अपने अन्दर की ज्योति जगा दो

प्रेम शान्ति की किरण फैला लो।

(यू.एन.एन.)