चैत्र मास नया सम्वत् का पहला महीना है। भारत की शाश्वत परम्परा में इसका अत्यधिक महत्त्व है। हिमाचल प्रदेश के अन्य भू-भागों की भांति सोलन जनपद के लोकमानस में भी इस मास की महिमा विद्यमान है। इस मास में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन पुरोहित अपने यजमानों के घर भोर की प्रथम किरण के फूटते ही पहुंचने शुरू हो जाते हैं और यजमानों को नए सम्वत् के शुभारम्भ की सूचना देते हैं। यजमान पंडितों-पुरोहितों के मुख से पंचांग के द्वारा पूरे वर्ष की सम्भावित घटनाओं का ब्योरा सुनते हैं और प्रसन्नचित्त होकर इन्हें दान-दक्षिणा प्रदान करते हैं।
यह उक्त परम्परा नए सम्वत् के दिन पुरोहितों की सांस्कृतिक भूमिका से सम्बद्ध है लेकिन सोलन जनपद के लोगों में नए सम्वत् के पहले महीने का नाम मंगलमुखी, डोम, मांगते या तुरी आदि समुदाय के मुख से सुनना शुभ मानते हैं। ये मंगलमुखी राजाओं एवं राणाओं के शासनकाल में चैत्र महीना गाने की परम्परा का निर्वाह नियमित रूप से करते थे जो अब घटता जा रहा है। ये सब से पहले राजाओं-महाराजाओं के यहां फिर मंत्रियों, राजदरबारियों के यहां, तत्पश्चात् शिष्ट समाज के उच्च परिवारों में और उसके बाद घर-घर जाकर चैत्र महीने के गीतों को गाते थे। अब केवल घर-घर जाकर गाने की परम्परा रही है। चैत्र मास में गाए जाने वाले इन गीतों में अधिकांश ढोलरू के नाम से सम्बोधित किया जाता है। जैसे ही मंगलमुखी घर-द्वार पर जाकर महीने का नाम सुनाते, गाते, ढोल बजाते हैं वैसे ही ढोल के ऊपर नया वस्त्र चढ़ाने या दान देने की सांस्कृतिक परम्परा आज भी जीवित है।
प्रायः चैत्र मास प्रारम्भ होते ही संवत्सर से ही नए साल के गीतों का शुभारंभ होता है। मंगलमुखियों द्वारा गाए जाने वाले इन गीतों में ढोलरू गीतों की परम्परा में न केवल चैत्र मास के नामकरण का ढोलरू गीत के अतिरिक्त हमारे संस्कारों से जुड़े गीत भी शामिल हैं जिनमें हमारे सामाजिक-ऐतिहासिक गीतों से जुड़े कथानक, शुभ-अशुभ घटनाओं के गीत, त्याग तपस्या और बलिदान की रोमांचित कहानियों के गीत भी सुनने को मिलते हैं। इन गीतों में हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद, संयोग-वियोग के अतिरिक्त धार्मिक गीतों के लिये भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। चैत्र मास में नव वर्ष के आगमन पर गाए जाने वाले परम्परागत सांस्कृतिक गीत धीरे-धीरे हिमाचल के सांस्कृतिक मंच से लुप्त होने लगे हैं। अधिकांश लोक गीत ओझल हो चुके हैं, फिर भी जनसम्पर्क के आधार पर उपलब्ध गीतों का सूक्ष्म एवं सार गर्भित ब्योरा इस प्रकार है-
हिमाचल के सोलन जनपद के भीतर चैत्रमास के नामकरण के समय सामाजिक शिष्टाचार के नाते सर्वप्रथम जिस धार्मिक लोक गीत को सुनने का अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है उसके हिमाचल की लोक भाषा में कुछ अंश इस प्रकार हैं-
पहलां तो नाओं लैणा नारायणा रा
जिने सारी सरिस्टी रचाई
दुज्जा तो नाओं लैणा माया-बावा रा
जिने जन्मी दस्सेया संसार
तिज्जा तो नाओं लैणा, गुरू जी रा
जिने सारी विद्या पढ़ाई
आया ए चैत शुणो धर्मियों
शुणी लओ धर्मी परिवारो
तुसे तो जिओ लख-लख बरसों
आई रुत बसंती बहारो
रुतां तां फिरी-फिरी आईयां नी
माणु फिरेया न कोई।
चैत्र मास के उपरोक्त लोक गीत में न केवल नारायण, माता-पिता और गुरु की आराधना है अपितु नव वर्ष के नव मास के नामकरण के आगमन का शुभ संदेश भी है। चैत्र मास के अमुक ढोलरू गीत के साथ प्रारम्भ हो जाता है सोलन जनपद में छिंज गीतों में विरह मिलन की संवेदनशील अनुभूतियों का हृदय को छू लेने वाला गीतों का सिलसिला यथा चैत्र महीने का अंत होने वाला है और अभी तक कंत (प्रियतम) के घर लौटने के कोई भी संकेत नहीं।
विरह-मिलन के भावुक क्षणों के सामंजस्य की कहानी चैत्र मास में गाए जाने वाले गीतों में आज भी जीवित है। एक ओर प्रदेश में प्रवासी भाई से मिलने की कामना, काग द्वारा संदेश सम्प्रेषण तो दूसरी ओर भाई का बहिन से मिलने आना और बहिन द्वारा भाई के सत्कार में चैत्र मास के कई गीत प्राप्त होते हैं।
गीतों में बहिन की प्रसन्नता का पारावार नहीं। चैत्र मास में भाई के शुभागमन पर भाई के पैरों को दूध से धुलाने और चन्द्रमा सदृश थाली और तारों जैसी सुन्दर लगने वाली कटोरी में भाई को भोजन परोसने के साथ-साथ झीण्झण चावल और बकरे के मांस को खिलाने की इच्छुक है।
चैत्र मास से प्रारम्भ होने वाले गीतों की अमुक श्रृंखला में मंगलमुखियों द्वारा बारहमासा गीत भी सुनने को मिलते हैं। नायक से बिछोह का भय और नायक से मास-प्रतिमास परदेस न लौटने का आग्रह नायिका की हृदय-विदारक अनुभूति का परिचायक है। नायिका नायक को चैत्र मास में फूलों के खिलने, वैशाख में दाखों के पकने, ज्येष्ठ महीने में पंखे की ठण्डी हवा का आनन्द लेने, आषाढ़ मास में आमों के स्वाद की बात, श्रावण में झूले के मनभावन हुलारों, भादों में अंधेरी रातों का भय, आश्विन मास में न जाने का विनम्र निवेदन, कार्तिक में दिवाली मनाने का आत्म निवेदन, अगहन मास में रजाईयों को भरने, पौष में रजाईयों के ओढ़ने का आनन्द, माघ में लोहड़ी त्यौहार का उल्लास और फाल्गुन में होली का रसभीना आनन्द आदि नाना प्रकार के बहानों का संयोजन बड़ी चतुराई से चैत्र के कुछ बारह मासा गीत में मुखरित उपलब्ध होता है।
वर्षारम्भ में चैत्र मास के भीतर गाए जाने वाले गीत में नायिका द्वारा नायक से अत्यंत अनुनय विनय के साथ नव वर्ष के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भादों, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन महीनों की उपादेयता का रोचक चित्रण सुनने को मिलता है।
आशीष गीत में सर्व प्रथम अम्मा (मां) को आशीष दी जाती है, फिर पिता, ताया, चाचा, भाई-बहिन और परिवार के अन्य सदस्यों को मंगल कामनाएं गाई जाती हैं और जब तक परिवार के भीतर सभी सदस्यों का नाम नहीं लिया जाता तब तक इसी गाने के बोल बार-बार दोहराए जाते हैं। चैत्र मास के अंतिम दिन इन कन्याओं को पूजा जाता था, दान-दक्षिणा और चुनरियां भेंट की जाती थीं परन्तु राज परिवारों का अस्तित्व समाप्त होने के कारण आज यह गीत भी लुप्त हो चुका है।
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