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लेख
हिन्दी साहित्य और रहस्यवाद स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       ब्रजमोहन गुप्त
आधुनिक हिन्दी काव्य जगत में जितनी विभिन्न व्याख्याओं और वाद-विवादों को 'रहस्यवाद' शब्द ने जन्म दिया है, उतनी विभिन्न व्याख्याओं और वाद-विवादों का आधार शायद ही कोई और शब्द बना हो। एक पक्ष के विचारक रहस्यवाद के अस्तित्व में विश्वास रखने के साथ ही उसे काव्य जगत की श्रेष्ठतम सम्पत्ति मानते हैं। दूसरे पक्ष के विचारक रहस्यवाद के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते और रहस्यवाद की रचनाओं को अनुभूति जन्य न मानकर ढोंग-जनित और कृत्रिम मानते हैं। वाद-विवाद दोनों विभिन्न पक्ष वालों को एक ही राह का राही बना देने में प्रायः सफल नहीं होता, किन्तु फिर भी वाद-विवाद से, अगर हठधर्मी उसमें नहीं है, इतना लाभ अवश्य होता है कि दोनों राहों की जटिलताओं की रूप रेखा कुछ-कुछ स्पष्ट हो जाती है।

कोई व्यक्ति रहस्यवाद पर विश्वास कर सके, उसके लिये कुछ बातें अत्यंत आवश्यक हैं। वह ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता हो, और आत्मा के अस्तित्व में भी विश्वास करता हो। वह मानता हो कि ईश्वर और आत्मा दोनों असीम और अनन्त हैं, मनुष्य की बुद्धि सीमित है, इसलिये वह असीम ईश्वर को पूरी तरह नहीं समझ सकती। मस्तिष्क से ऊपर अनुभूति का ऐसा तल है, जहां पर असीम आत्मा असीम ईश्वर का अनुभव कर सकती है। जो व्यक्ति इनमें से किसी एक बात के प्रति भी अविश्वासी है, वह पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ रहस्यवाद के अस्तित्व में अविश्वास प्रकट कर सकता है, उसे मैं समझा सकूं, ऐसी कोई युक्ति भी मेरे पास नहीं है। क्योंकि रहस्यवाद में विश्वास होने के लिये जो बातें आवश्यक बताई हैं, वे तर्कातीत हैं।

हिन्दी कविता में जिसे रहस्यवाद का नाम दिया जाता है, मध्यकालीन रहस्यवाद उससे बहुत भिन्न है। कबीर का रहस्यवाद समझाते समय प्रो. रामकुमार ने रहस्यवाद की व्याख्या इस प्रकार की है-

÷रहस्यवाद आत्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शांत और निश्छल सम्बंध जोड़ना चाहती है और यह सम्बंध यहां तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।'

रहस्यवाद की रूप रेखा को समझने के लिये एक बात ध्यान में रखनी आवश्यक है। हमारी अनुभूतियों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का साधन भाषा, सामाजिक वस्तु है। लौकिक चिंतन प्रणाली और अनुभूतियों के आधार पर ही भाषा का विकास हुआ है। जिस तल की अनुभूतियों का अभिव्यक्ति करण रहस्यवाद को जन्म देता है, वह साधारण लौकिक तल से नितान्त भिन्न है। अगर एक व्यक्ति को ऐसे टापू में ले जाकर छोड़ दिया जाए जहां अधिकांश ऐसी वस्तुएं हैं जो हमारे जगत में नहीं हैं, तो वहां से लौटकर वह व्यक्ति अपने वहां के अनुभवों को बिना प्रतीकों की सहायता के अभिव्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार रहस्यवादी कवि को भी प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है। उसकी अलौकिक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखने वाले शब्द प्रचलित लौकिक भाषा में नहीं होते।

ध्येय साधारणतया एक ही होने पर भी हम मध्य कालीन रहस्यवाद को दो शाखाओं में विभाजित कर सकते हैं। भक्ति काल की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीर का रहस्यवाद और उसी काल की प्रेम मार्गी निर्गुण शाखा के प्रतिनिधि कवि जायसीका रहस्यवाद, दोनों ही कवियों के रहस्यवाद का मूल ईश्वरानुभूति है, किन्तु कबीर यौगिक क्रियाओं के द्वारा अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी करके अपने अन्दर ही ईश्वरानुभूति प्राप्त करते हैं और जायसीकी दृष्टि ईश्वर के लिये घनीभूत तथा तीव्र प्रेम के कारण इतनी तीक्ष्ण हो जाती है कि वे सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में ईश्वर की सत्ताका अनुभव करने लगते हैं। संसार का सम्पूर्ण सुख-दुःख उन्हें चिरसुन्दर चिरन्तन तत्व के संयोग वियोग का सुखःदुःख प्रतीत होता है।

कबीर पहले यम नियम द्वारा मन तथा शरीर को पवित्र करते हैं। फिर आसन और प्राणायाम द्वारा शरीर तथा प्राणवायुको साधकर पूर्णतया अपने वश में करते हैं। फिर प्रत्याहार और धारणा द्वारा सब स्थूल तथा सूक्ष्म इंद्रियों को उनके कार्यों से अलग हटाकर चित्त के अनुकूल करते हैं और एकाग्र चित्त द्वारा सुषुम्ना नाड़ी के मूलाधार कमल में अवस्थित कुण्डलिनी को जागृत करके ऊपर उठाने का प्रयत्न करते हैं। और फिर जब ध्यान और समाधि की अवस्था में कुण्डलिनी जागृत होकर ब्रह्मरन्ध्र में पहुंच जाती है, तब वे ईश्वरानुभूति प्राप्त करते हैं और अमृतवर्षा, बिजली की चमक, सैकड़ों सूर्य के प्रकाश और अलौकिक स्वर्गीय संगीत आदि प्रतीकों द्वारा उसे अभिव्यक्त करते हैं। उस अनुभूति के अभिव्यक्तिकरण में ही उनकी रहस्यवादी रचनाओं की सृष्टि होती है।

जायसी अपने हृदय के प्रेम को तीव्र, व्यापक और घनीभूत बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसी साधना में एक समय आता है जब उनके लिये चराचर सृष्टि का सौन्दर्य उसी अमित चिरन्तन सौन्दर्य की प्रतिच्छाया हो उठता है और उनके हृदय की सम्पूर्ण रागात्मक प्रवृत्तियां उसी एक तत्व का आधार लेकर नाना रंगों सुगंधों के कलि-कुसुमों में प्रस्फुटित हो उठती हैं। वही अनुभूति उनके रहस्यवाद का मूल है।

भक्तिकालीन साधक कवियों के इस प्रकार के रहस्यवाद को शुक्ल जी ने अपने 'काव्य में रहस्यवाद' तथा पद्मावत की भूमिका स्वीकार किया है।

वर्तमान हिन्दी कविता में, इस मध्यकालीन रहस्यवाद जैसी कोई भी वस्तु नहीं है। रहस्यवाद की कुछ और परिभाषाएं मिलती हैं जो अधिक व्यापक हैं। श्रीमती महादेवी वर्मा 'सान्ध्य गीत' की भूमिका में लिखती हैं-

÷आज गीत में हम जिसे रहस्यवाद के रूप में ग्रहण कर रहे वह इन सबकी (मध्यकालीन रहस्यवाद के मूलतत्व) विशेषताओं से युक्त होने पर भी उन सबसे भिन्न है। उसने पराविद्या की अपार्थिवता ली, और इन सबको कबीर के सांकेतिक दाम्पत्य भाव सूत्र में बांधकर एक निराले स्नेह सम्बंध की सृष्टि कर डाली, जो मनुष्य के हृदय को पूर्ण अवलम्ब दे सका, उसे पार्थिव प्रेम से ऊपर उठा सका तथा मस्तिष्क को हृदय मय और हृदय को मस्तिष्कमय बना सका।

एक अधिक व्यापक दृष्टिकोण के अनुसार प्रसाद, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ÷निराला' और सुमित्रानन्दन पंत की कुछ कविताओं को रहस्यवाद की रचनाएं माना जा सकता है। जो व्यक्ति ÷रहस्यवाद' शब्द का प्रयोग केवल उसी अर्थ में करते हैं, जिस अर्थ में कबीर-जायसी के सम्बंध में उसका प्रयोग किया गया है, वे वर्तमान हिन्दी कविता में रहस्यवाद के अस्तित्व से इनकार करते हैं। निस्सन्देह मध्यकालीन रहस्यवाद के अर्थ में जो कवि इस पथ का पथिक होगा, वह सांसारिक बंधनों से बहुत ऊपर उठ चुका होगा, उसकी मानापमान तथा सुख-दुःख की भावनाओं का ईश्वरानुभूति में पर्यवसान हो चुका होगा।

रहस्यवाद किसी भी प्रकार का हो, उसकी सीमा तक पहुंचने के लिये सृष्टि के अनेकत्व में एकत्व की अनुभूति प्राप्त करने के लिये जीवन में जबरदस्त साधना की आवश्यकता होती है। जिन साधना पथों पर भक्ति कालीन रहस्यवादी कवि चले थे उनपर आज अग्रसर होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। आधुनिक कवि साधना जन्य अनुभूति की अपेक्षा अध्ययन द्वारा विकसित मस्तिष्क के चिंतन और कल्पना का सहारा अधिक लेकर चलता है।

कबीर और जायसी की जिन मानसिक स्थितियों का अभिव्यक्तिकरण उनकी रहस्यवादी रचनाओं को जन्म देता था, वे उनकी क्षणिक मानसिक स्थिति नहीं थी। उनका रहस्यवाद ऐसे अनुभवों का फल था, जिन्हें वे सदा के लिये आत्मसात कर चुके थे। वह रहस्यवाद का तल उनके दैनिक जीवन में विचरण का तल था।

अधिक व्यापक दृष्टिकोण लेकर जिस रहस्यवाद की चर्चा हिन्दी कविता में की गई है, वह कवि की ऐसी क्षणिक मानसिक स्थितियों का फल होता है, जो प्राकृतिक सौन्दर्य या अन्य कारणों से कभी-कभी कवि को प्राप्त हो जाती हैं।

इस बात में संदेह नहीं कि हिन्दी कविता में रहस्यवाद के नाम पर बेसिर पैर की भी बहुत सी रचनाएं की गईं। भ्रान्तिवश इसका सम्बंध भाव पक्ष के स्थान पर कविता के तुक तथा छन्द रहित स्वरूप से समझकर बहुत से कवि रचना के संगीत, सरसता और प्रवाह से भी हाथ धो बैठे। ऐसी रचनाओं का बाहुल्य होने पर रहस्यवाद के विरोध में आवाजें उठाई गईं। किन्तु ये सब बातें होते हुए भी यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि वास्तविक रहस्यमयी अनुभूतियों का अभिव्यक्तिकरण जिन रचनाओं में हुआ है, वे किसी भी साहित्य के लिये गौरव की वस्तु हो सकती है।