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लेख
क्या राम ने भी अपनी मर्यादा को छोड़ा था? स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       नागेश्वर प्रसाद
संस्ञत-साहित्य में मनुष्य की कोमल भावनाओं का जैसा विस्तृत और सर्वांगपूर्ण वर्णन है, उतना संसार की कदाचित्‌ ही किसी भाषा में हो। यों तो संस्ञत साहित्य- कानन में एक से एक बढ़कर केसरी विचरते हैं, परन्तु उनमें भी कालिदास और भवभूति का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

देववाणी के गगन मण्डल में ये ऐसे दो चन्द्र हैं जिनकी शीतल और सुखद अमृतरूपी किरणों से संस्ञत ही नहीं, बल्कि अन्य भाषा-भाषी सह्रदयों के ह्रदय भी अनवद्य रूप से उमड़ते चले आ रहे हैं। दोनों की ही ञतियों ने नाटकों का सुन्दर कलेवर धारण किया है और इसी रूप में वे कला के उच्चतम शिखर पर विराजमान हैं। दोनों की ही अनुपम सृष्टियों में वह सादृश्य है जो उन नाटकों के सरसरी तौर पर पढ़नेवालों की दृष्टि से भी नहीं बच सकता।

एक ओर कालिदास की गर्भवती शकुन्तला को यदि हम अपने पति से श्रापवश परित्यक्त हुई पाते हैं तो दूसरी ओर पवित्रता की उस मूर्ति को जो केवल जन-अपवाद के कारण राम द्वारा छोड़ी जाकर वन में विलाप करती हुई दिखाई देती है। दोनों नाटकों के नायकों के ह्रदयों में तपोवन में अपने पुत्रों को देखकर स्वाभाविक प्रेम की धारा बहने लगती है और अन्त में राम और दुष्यन्त दोनों ही अपनी अपनी प्रियाओं को पाकर आनन्दित होते हैं।

इतनी समानता होते हुए भी दोनों ञतियों में भेद है। यद्यपि दोनों नाटकों की विचार धाराएं एक ही मानसरोवर से निकल कर एक ही स्थान में जाकर मिल जाती हैं, दोनों धाराओं में एक ही प्रकार स्वच्छ अमृतमय जल बहता है, दोनों के ही किनारों पर सुन्दर सुन्दर वृक्ष, लता, पुष्प इत्यादि अपने अनुपम रंग बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित होकर वायु में आनन्द ले रहे हैं और दोनों के ही किनारे नाना प्रकार के पक्षी चहक रहे हैं, तो भी यदि एक स्वाभाविक जल का प्रवाह है तो दूसरे में रास्ते की बाधाओं को हटाकर जल के लिये मार्ग बनाया गया है। एक को यदि हम सुन्दर सरिता से उपमा दे सकते हैं तो दूसरी ञति को एक मनोरम नहर की उपाधि से विभूषित करना पड़ेगा। एक को अपना मार्ग बनाने के लिये यदि कोई कष्ट नहीं करना पड़ा है, जहां पथ मिला वहीं बहना आरम्भ कर दिया है तो दूसरी का मार्ग निश्चित करने, रास्ते की बाधाओं को हटाने और जल को स्वच्छ रखने के लिये घोर परिश्रम किया गया है।

'शकुन्तला' में दुष्यंत से अपनी प्रिया का भूला जाना स्वाभाविक है। क्योंकि प्रथम तो दुष्यंत राम की तरह सदाचार के उत्ञष्ट उदाहरण नहीं- जिस समय वे शकुन्तला को देखकर अपने आपे से बाहर हो रहे थे, उस समय भी उनको यह भय था कि मेरी प्रेम कहानी मेरी भार्या पर प्रकट न हो जाए। दूसरे शकुन्तला और दुष्यन्त का बिल्कुल 'इकन्त सम्बंध' था और ऐसे कारज के विषय 'निरे न बनिये अंध' से कवि ने भली भांति प्रतिपादित कर दिया है कि ऐसे सम्बंधों में कुछ खराबी हो जाने की आशंका है। तीसरे दुष्यंत श्राप के वशीभूत हैं। जब उनको अपने सम्बंध के बारे में स्मरण ही नहीं तब वे किस प्रकार 'अन्य भार्या' को अंगीकार कर अपने आपको और अपने कुल को कलंकित कर सकते थे।

चौथे उन्होंने शकुन्तला को अपना पक्ष प्रमाणित करने के लिये काफी अवसर दिया, और पांचवें जब वह अपना पक्ष प्रमाणित करने में असमर्थ रही तब पुरोहित जी की राय को कि वह बालक उत्पन्न होने के समय तक उन्हीं के गृह पर रहे, उदारता पूर्वक मान लिया। ये साक्ष्य इतने स्पष्ट और निर्विवाद हैं कि इनके सहारे कोई भी न्यायाधीश दुष्यन्त को शकुन्तला के प्रति किसी प्रकार के अपराध से मुक्त कर सकता है।

परन्तु राम का सीता परित्याग इतना स्वाभाविक और न्याय संगत कहां? हो सकता है कि राम का ऐसा चरित्र चित्रण करने में कवि ने उनको मनुष्य की परिधि से हटाकर और भी उच्च श्रेणी पर बिठलाने की चेष्टा की हो।

हो सकता है कि कवि के श्रीराम को 'प्रजा के मन भावन' करने की इतनी प्रबल इच्छा हो कि एक निरपराध अबला जिसकी पवित्रता के बारे में उनको तनिक भी संदेह नहीं, एक प्रजा के नाते से भी उसका कुछ भी विचार न करके गर्भावस्था में ही घोर निर्जन वन में छोड़ दी जाए। पर कवि के ये प्रयत्न कहां तक सफल हुए हैं, श्रीरामचन्द्र जी का सीता परित्याग कहां तक न्याय संगत हुआ है, इसका निश्चय पाठकगण कवि की चेष्टा से कर सकते हैं।

सीता-परित्याग को न्याय संगत बनाने के लिये नाटक के प्रथम अंक में तो स्पष्ट रूप से बतला दिया गया है कि प्रजा के हेतु सीता जी को त्यागने में राम को कोई भी दुख नहीं होगा। फिर थोड़ा सा आगे चलकर श्रीरामचन्द्र जी कहते हैं-

'हे यज्ञ भूमि से उत्पन्न हुई देवी। क्षमा करना, यह तो जन्म भर का कलंक तुम्हारे सिर हो चुका, तुम्हारी पवित्रता के विषय में मुझे रनीभर भी संशय न था, परन्तु-।'

अब सीता-परित्याग का असली दृश्य देखिये-

सीताजी अपना सिर श्रीराम की उस बाहु पर, 'जाहि लख्यौ सपनेहु नहीं अपने बस में कबहूं पर नारी' रक्खे हुए सो रही हैं। उसी समय दुर्मुख आता है और राम के कान में सीताजी के कलंक के बारे में कहता है। उस वार्ता को सुनकर श्रीराम मूर्च्छित हो जाते हैं, परन्तु थोड़ी देर के पश्चात्‌ होश आने पर यह कहते हुए दिखलाई देते हैं-जब वन को गए तब उनको यह भले प्रकार विदित था कि वे वन को क्यों जा रहे हैं। परन्तु सीताजी को अपने परित्याग की उस समय तक खबर नहीं होती जब तक लक्ष्मण जी उनको नहीं बतलाते और सो भी घोर वन में। कितना छल और कितना अन्याय। श्रीराम के वनवास के चित्रों को देखकर सीताजी के ह्रदय में अरण्य प्रेम फिर उमड़ आता है और उनकी इच्छा होती है कि मैं फिर वन के दर्शन करूं और भगवती भागीरथी में जी भर के गोते लगाउ। गर्भवती की इच्छा पूर्ण कर देने के लिये राम को उनकी माताओं का आदेश है। इसलिये वे उनको रथ पर बिठाकर वन का दृश्य दिखलाने का वचन देते हैं।

इसी बीच में सीताजी को नींद आ जाती है और दुर्मुख अपने दुर्वचन राम के कान में कहता है। इस बात को सुनकर राम उनको त्यागने का निश्चय करते हैं और दुर्मुख द्वारा इस निश्चय को लक्ष्मण तक पहुंचाते हैं और स्वयं अपनी बाहु को सीता जी के सिर के नीचे से हटाकर चले जाते हैं। उधर सीता जी स्वप्न में यह कहकर 'हाय प्राणनाथ, आप कहां हैं' चिल्लाती है, फिर झट उठकर कहती हैं 'हाय, हाय बुरे स्वप्न से छली जाकर दुख से मैं आर्यपुत्र को पुकार रही हूं। हाय धिक्कार। फिर दुर्मुख आता है और कहता है कि लक्ष्मण जी आपके लिये रथ लाए हैं। सीता रथ पर बैठ जाती हैं और कहती हैं, अच्छा मैं चलती हूं पर चलने से गर्भभार कंपेगा, इसलिये रथ को धीरे-धीरे चलाना।

कैसा ह्रदय विदारक दृश्य है!' हमारी समझ में पुरवासियों ने अपनी मर्यादा चाहे छोड़ी हो या नहीं पर राम ने जल्दी में वह कार्य कर डाला, जिससे इतना ही नहीं कि उनके सुख पर बहुत काल तक वज्राघात हुआ वरन वासन्ती के शब्दों में एक ऐसा अजस भी पल्ले पड़ा जिसकी समानता करनेवाला और कलंक नहीं। पर कालिदास के दुष्यंत इस दोषारोपण से साफ बरी हो जाते हैं। इन दोनों नाटकों में यह बड़ा भारी भेद है।

(यू.एन.एन.)