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लेख
क्या हिन्दू विदेशी हैं? स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       नागेश्वर प्रसाद
पश्चिमी विद्वान संसार भर के इतिहास में सृष्टि निर्माण से लेकर वर्तमान काल की घटनाओं तक नवीन छानबीन द्वारा ऐसी क्रान्ति ला रहे हैं कि इतिहास का कायापलट-सा हो रहा है। उनके द्वारा अनेक नवीन उपसिद्धांत स्थापित किये गए हैं और एक नई विचार धारा बढ़ाई गई है। अपने भगीरथ परिश्रम के द्वारा उन्होंने जो परिणाम निकाले हैं, वे ऐसे हैं कि उन्हें देखकर ऐसा सोचा जा सकता है कि आज से लगभग एक सदी पूर्व दुनिया के लोगों में ऐतिहासिक जांच-पड़ताल की बुद्धि का अभाव था- कम से कम आज की सी जांच प्रणाली तो उन्हें ज्ञात थी ही नहीं। संसार की विभिन्न जातियों का एक तुलनात्मक इतिहास तैयार किया गया है और इस आधार पर पहले के कितने ही मत गलत सिद्ध किये गए हैं। यद्यपि वे नवीन मत भी बहुत अंश में भ्रामक हैं, परन्तु उनके भ्रामक होते हुए भी खूब काफी समय और श्रम लगाकर वे इतने अधिक पुष्ट कर दिये गए हैं कि संसार को उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। क्योंकि उनका मुकाबला करने के लिये उससे भी ज्यादा समय और श्रम चाहिये। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रभुत्व काल में प्राचीन भारतीय इतिहास की जांच पड़ताल उस ढंग से होने लगी जो वैज्ञानिक पद्धति कही जाती है। उन विद्वानों ने भारतीय तथा समकालीन अन्य देशीय इतिहासों का गहरा अध्ययन कर भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास तैयार किया। गहन अंधकार से टटोलकर निकाली हुई, यही सामग्री भारतीयों को बताई जाती है। भारतीय विद्वान भी नई रोशनी की चकाचौंध में उन मतों के आगे सिर झुका देते हैं, क्योंकि गलत होते हुए भी उनका खण्डन करने की क्षमता अपने अन्दर वे नहीं पाते। फिर भी, पाश्चात्यों की खोजी हुई अनेक बातें गलत सिद्ध कर दी गई हैं, जिनके अकाट्य प्रमाण सबको स्वीकार करने पड़े हैं।'

उन्हीं पाश्चात्य विद्वानों एवं पुरातत्त्वेत्ताओं द्वारा यह मत स्थिर किया गया है कि भारत, ईरान तथा यूरोप की गोरी कही जाने वाली जातियां किसी जमाने में एक ही स्थान में एक परिवार के रूप में रहती थीं। वह परिवार धीरे-धीरे अपने स्थान से आगे-पीछे हटते हुए एशिया और यूरोप के अनेक हिस्सों में फैल गया। भारत में उनके आने से पहले उनसे न्यूनतर सभ्य जाति रहा करती थी, जिसे आज अनार्य कहा जाता है। इस मत का आधार तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- धर्म, भाषा और आकृति।

समस्त तथाकथित आर्य जातियों में धर्म की समानता दिखाने वालों ने दिखाया है कि किस तरह भारतीय, ईरानी, केरात और लैटिन लोगों की पूजा-पद्धति एक थी, वे एक ही प्रकार के देवताओं की उपासना किया करते थे। वेद में वर्णित देवताओं के नाम उनके देवताओं के नामों से मिलते हैं। इस विषय पर अधिक प्रकाश बोग्जकुई की खुदाई से मिलता है, जिसमें एक हेटाइट राजा और मित्तनी राजा का संधि पत्र मिला है। ''उस संधि पत्र में जिन देवों के नाम मिलते हैं, वे मित्र, वरुण, इन्द्र, नासत्य (अश्विनी) हो सकते हैं। वे भारतीय देवों के नाम हैं।' इसी तरह सुप्रसिद्ध भाषातत्त्वविद् सर जार्ज ग्रियर्सन ने पूर्व एवं पश्चिम की दर्जनों भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन कर यह सिद्ध कर दिखाया है कि ईरान तथा यूरोप की प्रायः सभी भाषाएं संस्कृत की सहेली हैं। किन्तु कतिपय विद्वान इस मत से भिन्न अपना विचार रखते हैं। कितनों ही ने इस एकता के सिद्धांत का जोरदार खण्डन किया है। एक ओर ग्रियर्सन ने दिखाया है कि द्राविड़ (अनार्य) भाषा संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है, तो दूसरी ओर प्रो. रैपसन नामक प्रसिद्ध इतिहासिज्ञ लिखते हैं कि संस्कृत भाषा का प्राचीनतम रूप ईरानियों की भाषा से भेद रखता है। वेदों की भाषा यूरोपीय भाषाओं से भी नहीं मिलती है किन्तु उसमें द्राविड़ों की भाषाओं से बहुत कुछ समानता है।' (प्राचीन भारत का इतिहास- रैपसन कृत पृ. 49)।

किन्तु आज तो धर्म अथवा भाषा की एकता के आधार पर मूल जाति की एकता स्थापित करने की पद्धति पुरानी पड़ गई है। विद्वानों की ऐसी राय है कि भाषा अथवा धर्म के सम्बंध में एकजातीयता सिद्ध करना सर्वदा सत्य नहीं हो सकता। वैदिक इंडिया नामक पुस्तक के लेखक ने इस पर अच्छा प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं कि एक जाति जो किसी भाषा को बोलती है, आवश्यक रूप से उसी मूल जाति का अंग नहीं हो सकती, जिसने उस भाषा को पैदा किया है।' इसका कारण उन्होंने बताया है कि व्यापार, राजनीतिक संयोग, पराधीनता अथवा आक्रमण के द्वारा भी भाषा का लेनदेन होता है। अन्तर्विवाह इस कमी को पूरा कर देता है। अतएव उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि यह कहना बिल्कुल अवैज्ञानिक है कि अमुक जाति आर्य भाषा बोलती है, इसलिये आर्य वंश की है।' गाल जाति के लोगों ने लैटिन भाषा को अपना लिया था, पर वे लोग रोमन वंश के नहीं हो गए थे।

परन्तु अब तो आकृति परीक्षा ने इस आर्य अनार्य विभाजन के सिद्धांत पर मानो मुहर जड़ दी है। इसकी इतनी बड़ाई होती है, मानो इसमें कुछ त्रुटि है ही नहीं। ऐसा लगता है कि मूल जाति निर्णय करने का एक प्रत्यक्ष प्रमाण उनके हाथ लग गया। फिर भी हर्ष का विषय है कि बहुतेरे विद्वान प्रारम्भ से ही इस बात की घोषणा करते आ रहे हैं कि आकृति के अनुसार मूल जाति का निर्णय करना एक महाभ्रम है। एक फ्रेंच विद्वान ने विभिन्न जातियों के अस्तित्व का जोरदार खंडन किया है। वह लिखते हैं कि आर्य जाति की जो सच्ची पहचान रखी गई है, उसके अनुसार आज तक एक भी सच्चा आर्य नहीं देखने में आया- किसी का सिर मिलता है तो नाक नहीं, रंग मिलता है तो कद नहीं। इसी तरह किसी भी मूल जाति का एक भी सच्चा आदमी नहीं खोज निकाला जा सकता। फिर किस आधार पर यह पद्धति कायम की गई?' डार्विन तथा उनके अनुयायियों को जीवोत्पत्ति की एक नवीन कल्पना स्थिर कर पशुओं और पौधों के श्रेणी विभाजन में जो सफलता मिली उसके अतिरेक में यह भूल गए कि मनुष्य में उस तरह का विभाजन नहीं हो सकता। डार्विन पद्धति के विशाल कार्य को देखकर वे उसका अपूर्ण तथा व्यावहारिक पहलू देखने से रह गए। जो-जो सिद्धांत पशुओं एवं पौधों पर लागू हो सकते थे, उन्हें मनुष्यों पर भी निर्दयतापूर्वक लागू कर दिया।' किन्तु चूंकि उन पदार्थों की तरह मानव समाज में आकृति प्रकृति का भेद देखने में आता है, अतएव यह नहीं कहा जा सकता है कि उस आधार पर उनके बीच भी मौलिक श्रेणी विभाजन सम्भव है। क्योंकि ऐसा करने का कोई कारण नहीं देखने में आता।

इसी प्रकार भारतीयों में भी भिन्न कपाल तथा खोपड़ी के लोग पाए जाते हैं और वह भी एक ही परिवार तथा कुटुम्ब में। तथाकथित आदि निवासियों के सम्बंध में भी यही बात कही जा सकती है। आसाम की जनसंख्या में चार किस्म के लोग पाए जाते हैं- चौड़ा कपाल और लम्बी नाक, छोटा कपाल और लम्बी नाक, छोटा कपाल और छोटी नाक एवं चौड़ा कपाल और छोटी नाक।' स्पष्ट है कि इस आधार पर उनमें विजातीय मूल छांटने की चेष्टा व्यर्थ है, क्योंकि वह आधार ही नहीं ठहरता। रंग में भी वे भूरे हैं यद्यपि उनका भूरापन भी कहीं हलका और कहीं गाढ़ा है। उनमें पीलेपन का भी मिश्रण है, पर कई लोग तो बिल्कुल गोरे हैं। द्याक (नागा जाति की एक शाखा) का भूरापन लाल मिश्रित है और कहीं-कहीं पीला भी।

शारीरिक बनावट जिन चीजों पर निर्भर करती है, वह लेखक के मत से वातवारण है। उस शब्द की व्याख्या करते हुए वह कहते हैं कि जलवायु, भूमि की रचना, सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन, सांसारिक सुख वातावरण तैयार करने में सहायक होते हैं।' फिर सूरत की भिन्नता के अनेक कारण हैं- पहला स्थान तो जलवायु का है, जिसमें भोजन और रहन-सहन भी शामिल हैं। जब हम किसी ऊंचे पहाड़ पर चढ़ते हैं, तो हम ऊपर के मनुष्य, पशु अथवा पौधों को कम मजबूत तथा कम गठीला पाते हैं। कभी-कभी तो उनके खास-खास अंग कमजोर हो जाते हैं।' इस प्रकार भूमि की रचना, मिट्टी में खनिज पदार्थों का मिश्रण आदि शारीरिक बनावट पर असर डालते हैं।' भारत में लाए गए विलायती कुत्ते अपनी भयंकरता और शक्ति ही नहीं कुछ अंश में खोते, बल्कि उनका नीचे का जबड़ा भी कुछ बदल जाता है, ऐसा देखा जाता है।

रंग के आधार पर मानव विभाजन की व्यर्थ चेष्टा की जाती है। किसी भी देश में, खासकर भारत में तो रंग की विभाजक रेखा खींची नहीं जा सकती। न तो सभी जंगली लोग काले वर्ण के होते हैं और न सभी शहरी गोरे। वात्स के कथानानुसार तो शरीर का रंग गर्मी, हवा की नमी, पोषण, जंगल, भौगोलिक स्थिति आदि पर निर्भर करता है।' बोंगों के निग्रो लोगों का रंग कुछ लाली लिये होता है, क्योंकि वहां की भूमि में लोहे का अंश अधिक हैं।' मि. सिम्पसन अपनी विश्व भ्रमण का वर्णन' नामक पुस्तक में लिखते हैं कि भिन्न-भिन्न देशों में यहूदी लोगों का रंग गोरा से लेकर काला तक होता है। इसी प्रकार खोपड़ी की विभिन्न बनावट के बारे में यह नहीं भूलना चाहिये कि भोजन के प्रभाव से उसकी शकल भी बदल सकती है। डार्विन ने भी यह माना है कि बहुत सी प्रवासी जातियों की खोपड़ी प्रत्यक्ष बदल गई है। इसी तरह एक ही श्रेणी के पुरुष से स्त्री की खोपड़ी नहीं मिलती।' हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि नाक का रूप बहुत कुछ चेहरे की बनावट पर निर्भर करता है।' मि. नैशफीड उत्तर-पश्चिमी भारत में जाति प्रथा' में बिल्कुल साफ तौर से लिखते हैं कि भारतीय जनसमाज को आर्य और अनार्य में विभाजित करने की प्रणाली नई है। पर भारतीय जनता में निश्चयपूर्वक एक नस्ल है। अधिकांश ब्राह्मण दूसरी जाति के लोगों से अधिक गोरे अथवा सुन्दर नहीं पाए जाते और न एक भंगी से वे भिन्न नस्ल के हैं।'

वस्तुतः आर्यन' शब्द के विषय में महान भ्रम फैला हुआ है और इस शब्द की आज की प्रचलित परिभाषा हमारे प्राचीन ग्रन्थों एवं अनुश्रुतियों से बिल्कुल मेल नहीं खाती। सारी गलतफहमियों की यह जड़ है। आर्य शब्द (संस्कृत भाषा में) श्रेष्ठता का बोध करता है। भारतीय ग्रंथों के अनुसार आर्य उसे कहना चाहिये जो वर्णाश्रम का पालन करता हुआ वैदिक धर्म में विश्वास रखता है। ऋग्वेद के अनुसार धर्मात्मा और कर्तव्यपरायण व्यक्ति आर्य और उससे विपरीत व्यक्ति अनार्य कहा जाता है। निरुक्त ने उस ऋचा में आर्य का अर्थ किया है आर्य ईश्वर पुत्रः और अनार्य का दस्यते कर्माणि। सायणाचार्य ने भी अनार्य का दस्यु चोरं वृतं वा' ऐसा अर्थ किया है। सबने कर्म के ऊपर ही आर्य अनार्य का भेद रखा है, नस्ल की बात किसी ने कहीं नहीं लिखी। मनु महाराज तो यहां तक कहते हैं कि आर्य जाति से बाहर जितने हैं, वे सभी म्लेच्छ माने जाने योग्य हैं, चाहे वे आर्य भाषा बोलें अथवा दूसरी।' एकजातीयता का समर्थन भी करते हैं। मनु-स्मृति में लिखा है कि पुण्ड्र, आंध्र, द्राविड़, काम्बोज, यवन, शक, पारद इत्यादि वैदिक कर्मो की अवहेलना करने के कारण दस्यु (अनार्य) बना डाले गए। ऐतरेय के अनुसार भी विश्वामित्र के पचास पुत्र अनार्य बना डाले गए, जिनके नाम पर पुण्ड्र, आन्ध्र, सवर, पुलिन्द आदि जातियां बनीं। सम्भव है कि ये बातें सत्य नहीं हों, पर यह तो निश्चय ही प्रतीत होता है कि प्राचीन काल के, अपनी सभ्यता संस्कृति के अभिमानी ब्राह्मण, जो अपने को आर्य कहने का गौरव रखते थे, दूसरी न्यूनतर जातियों को अपने में हर्गिज नहीं गिना सकते, अगर सचमुच ऐसा नहीं होता। यूरोपीय विद्वानों ने एक भ्रम फैला दिया है, जिसे भारतीय ऐतिहासिक भी आंख मूंदकर मानते चले आ रहे हैं। इस भ्रम का सूत्रपात उस समय हुआ, जब उन्हें वेदों के अन्दर आर्य और दस्यु- ये दो शब्द मिले। भाषा की समता के आधार पर भारत, ईरान और यूरोप में एक ही नस्ल होने की कल्पना उन्होंने पहले ही कर ली थी, अतएव उन्होंने सुविधापूर्वक सभ्य भारतीयों को आर्य और असभ्यावस्था में पड़े हुओं को दस्यु नाम देकर अनार्य कह डाला। वर्ण शब्द की भी एक गलत व्याख्या कर डाली। वर्ण का अर्थ रंग लगाकर उन्होंने यह सुझाया कि भारतवासी पहले दो वर्णां (रंगों)- आर्य और अनार्य में विभक्त थे, पर पीछे चार भाग हो गए। फिर भी यह कहां सिद्ध होता है कि दोनों वर्णवाले दो नस्ल के थे! वर्ण शब्द धातु से बना है और उसका अर्थ चुनाव है। वर्ण वस्तुतः पेशे का चुनाव है। गुरुकुल, हरद्वार के आचार्य स्वर्गीय रामदेव जी ने आर्य और दस्यु' नामक पुस्तक में दरसाया है कि विदेशी विद्वानों को वेद की ऋचाओं में आर्य और दस्यु के विषय में कैसा भ्रम हुआ है। उन मंत्रों का अर्थ, जिनमें वे नाम आए हैं, संक्षेप में यह है- आर्य और दस्यु का भेद जानो। हे इन्द्र! दस्युओं पर अपना अस्त्र फेंकों। उन्हें कुचल डालो, आदि।' पर क्या इससे यह सिद्ध होता है कि उनमें मौलिक भेद होना ज+रूरी है?

आर्य-अनार्य मत मानने वाले विद्वानों को अनेकों बार अपनी मत पुष्टि में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। प्रो. म्योर लिखते हैं- मैंने ऋग्वेद में दस्युओं एवं असुरों के नामों की जांच की, पर उनमें से एक भी नाम ऐसा नहीं मिला, जो अनार्य भाषा का शब्द हो। प्रो. मैक्समूलर लिखते हैं कि दस्यु का अर्थ केवल शत्रु है। क्योंकि जब दस्युओं का नाश करने के कारण इन्द्र की स्तुति की जाती है, तो उस जगह दस्यु से ऐसा सिद्ध नहीं होता कि उनका बर्बर वंश हो। आर्य ब्राह्मण वशिष्ठ को विश्वामित्र ने झगड़ा होने पर यातुधान' कह दिया था। और भी कुछ दूसरे नाम कहे गए थे, जो अनार्यों के लिये खासकर प्रयुक्त होते हैं। अगर अनार्य दूसरी जाति के होते, तो ऐसा नहीं कहा जा सकता।

इस तरह यह सिद्धांत कि भारतवर्ष के आदि निवासी सन्थाल, द्राविड़, मुण्डा, कोल कहलाने वाले लोग हैं और आर्य पीछे पश्चिमी राह से आए, गलत एवं हानिकार है। प्रथमतः अत्यधिक अनुसंधान के पश्चात भी यह अभी तक निश्चित नहीं किया जा सका कि आर्यों का आदि निवास कहां हो सकता है। उत्तरी ध्रुव प्रदेश से लेकर भारत और जर्मनी तक के अनेकों नाम लिये जाते हैं, पर कोई नाम ऐसा नहीं है, जो विवाद से खाली हो। दूसरी बात यह भी है कि यह मानने के लिये भी कोई पक्का सबूत नहीं है कि आर्य लोग पश्चिम से भारत में पधारे। पार्जीटर महोदय, जिन्होंने प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक अनुश्रुतियों को सुलझाने में सबसे ज्+यादा परिश्रम किया है, उपर्युक्त मत का तीव्र विरोध करते हैं। उत्तर पश्चिम की ओर से भारतीयों के प्रवेश करने के विरुद्ध उनके द्वारा दिये गए प्रमाणों में से कुछ इस प्रकार हैं- 1. पश्चिमी भारत कभी पवित्र नहीं माना गया है, जैसा कि आर्यों के पहले-पहल उसी भूमि में पदार्पन करने के कारण माना जाना चाहिये था। 2. भारतीय ग्रन्थों में इसका कहीं संकेत भी नहीं मिलता। 3. भारत की मुख्य वंशावलियों का प्रारम्भ ऐसा लिखा मिलता है, जिससे यह नहीं सिद्ध होता कि उनका सम्बंध कहीं बाहर से हो, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि वे यहीं पैदा हुए हों। 4. सम्भवतः आर्य लोग मध्य हिमालय की ओर से भारत में पहुंचे थे, क्योंकि वह भाग सदैव पवित्र माना गया है। 5. अगर ऐसी बात होती कि वेदों की रचना के पूर्व ही वे भारत में प्रवेश कर सरस्वती नदी तक बढ़ आए होते, तो इसका कारण समझ में नहीं आता है कि वेदों में नदियों के नाम पूर्व से पश्चिम आए हैं, न कि पश्चिम से पूर्व। गंगा का नाम सबसे पहले आया है, जहां वे उस समय पहुंचे भी नहीं होंगे। किन्तु चूंकि पार्जीटर भी उसी पाश्चात्यों की श्रेणी के थे और आर्यों का बाहर से आना अस्वीकार करने को वे किसी तरह तैयार नहीं थे, इसलिये पश्चिमी द्वार से नहीं सही, तो हिमालय की ओर से ही उनका आना मान लिया। उनके उपर्युक्त प्रमाणों से तो यह साफ सिद्ध होता है कि आर्य बाहर से आए ही नहीं। अपनी सारी कृतियों में उन्होंने यह कहीं नहीं दिखाया कि किस आधार पर वह उनका बाहर से आना सिद्ध करते हैं, चाहे किसी राह से आए हों। फ्रेंच विद्वान जे. फाइनों ने बहुत दुरुस्त कहा है कि क्या इतने गहरे मतभेदों और तीव्र विरोधों के बावजूद भी हम आर्य नस्ल अर्थात्‌ आर्य पद्धति का नाम ले सकते हैं और किसी चीज को अनार्य कहकर आर्य नामक किसी काल्पनिक पदार्थ से जिसकी सत्ता कभी नहीं रही, भिन्न मान सकते हैं?' उन्होंने अनेकों यूरोपीय विद्वानों की राय लिखकर यह दिखाया है कि किस तरह वे दूसरे का विरोध करते हैं, पर कुछ तय नहीं कर पाते।

भारतीयों ने अपने को मानव जाति के प्रारम्भिक विकास काल से ही आर्य कहना जारी किया था, चाहे उन्होंने बाहर से इस देश में प्रवेश किया हो अथवा यहीं उत्पन्न हुए हों, इसका खास महत्त्व नहीं है, क्योंकि इतना स्पष्ट है कि उनसे पहले यह देश बिल्कुल वीरान था और उन्होंने ही इसे बसाया। अतः आज के हिन्दू किसी तरह विदेशी सिद्ध नहीं किये जा सकते।

हिन्दू बौद्धों को, जो उनकी ही नस्ल के थे, म्लेच्छ कहते थे। फिर भी वह सच्ची बात कबूल करने से रह जाते हैं। एक अंग्रेज होकर उनका तो इसमें लाभ ही था कि भारतवर्ष का खूब काफी विभाजन भिन्न-भिन्न पहलुओं से हो। दुख है कि भारतीय विद्वानों ने भी इसे मान लिया है। पंडित जयचन्द्र ने (भारतीय इतिहास की रूप रेखा जिल्द 1) उक्त कथन के विरोध का बीड़ा तो उठाया, पर चूंकि वह भी उसी विचारधारा में बहने वाले थे, इसलिये दैत्यादिकों को उन्होंने भी अनार्य मान लिया और यह कहकर मामला समाप्त कर दिया कि कदाचित्‌ ऐल (आर्य) की अपेक्षा मानव (अनार्य) पर ब्राह्मणों का आदि में अधिक प्रभाव रहा हो। किन्तु मुझे इसमें भी सन्देह है।' मत्स्य पुराणानुसार मनु ने मालावार की ओर जाकर तपस्या की थी, और उन लोगों की समझ में मनु तो अनार्य देश में प्रवेश नहीं कर पाए थे, अतः मनु को भी अनार्य सिद्ध कर दिया गया।'

(यू.एन.एन.)