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लेख
अपनी अस्वस्थता से भी लाभ उठाइये स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       सन्तराम
कल ही आप खूब तन्दरुस्त और हृष्ट-पुष्ट थे, खूब उछल कूद कर रहे थे, अस्वस्थता का आपको विचार तक न था। रोग ने एकाएक आकर आपके घुटनों की चूलें ढीली कर दी और आपको खाट पर लिटा दिया। अब आप अस्पताल के कमरे में दण्डवत्‌ लेटे हुए हैं, इच्छा न रहते भी आपको पीड़ा का साथी बनना पड़ा है।

आप झुंझलाते हुए भाग्य को गाली देते हैं; जीवन के दैनन्दिन कार्यव्म में इस असामयिक विन के लिए रोष प्रकट करते हैं। पर आपको ज्ञात नहीं कि आप अपनी अस्वस्थता से बहुत लाभ उठा सकते हैं। खाटपर लेटकर मजबूरन छुट्टी करने में , निर्दोष रूप से हमें अतीत कर्म कोलाहलमय संसार से छुटकारा मिलता है, हमारी मानसिक एवं आध्यात्मिक अनुभूतियां तीक्ष्ण होती हैं और हम अपने जीवन का अधिक स्पष्ट चित्र देख सकते हैं। किसी भी गम्भीर अस्वस्थता को ईश्वर का अभिशाप न मानकर लाभ उठाने और शक्ति उत्पन्न करने का ऐसा सुअवसर समझना चाहिए, जिसका मिलना स्वस्थता में सम्भव नहीं।

मैं उन पुराने रोगियों की बात नहीं कर रहा हूं जिनका रोग उनको सदा के लिए अशक्त बना देता है। और जो फिर भी, जीवन-संग्राम में पराजय स्वीकार न करके, वीरतापूर्वक अपने कार्य में बराबर निरत रहते हैं। ऐसे मनुष्य वस्तुतः साधारण कोटि के नहीं होते। पीड़ा पर विजय पाने वाले इन लोगों का सच्चा नमूना अमेरिकन इतिहासकार लन्सिस पार्कमैन है। अपने जीवन के अधिकांश काल में पार्कमैन को इतनी तीक्ष्ण पीड़ा रहती थी कि वह एक बार बैठकर पांच मिनट से अधिक समय तक काम नहीं कर सकता था। उसकी आंखें इतनी खराब थी कि वह कागज पर केवल थोड़े-से बड़े-बड़े अक्षर ही घसीट सकता था। पेट की भारी तकलीफ, भयंकर गठिया रोग, और मरणासन्न कर देनेवाली शिरपीड़ा से वह शिकंजे में कसा रहता था। शारीरिक दृष्टि से उसका प्रत्येक अंग खराब था, तो भी उसने इतिहास के 20 उत्कृष्ट ग्रन्थ लिखने का उपाय कर लिया।

परन्तु हमारा सम्बन्ध इस समय साधारण मानव से है, जिसे पहली बार रोग ने लताड़ा है। ये कभी-कभी रुग्ण होने वाले लोग रोग से ये लाभ उठाना कचित्‌ ही सीखते हैं। वे तो इसे दुर्भाग्य का आव्मण समझते हैं। इस पर भी सहस्त्रों मनुष्य ऐसे हैं जिन्होंने अस्वस्थता के दिनों में पहली बार अपने आपको वस्तुतः पाया है। डाक्टर एडवर्ड लिविग्स्टोब टᆭडौ को युवावस्था में ही पहाड़ पर भेज दिया गया था। वहां उसे आशा थी कि यक्ष्मा से उसकी मृत्यु हो जाएगी। परन्तु वह मरा नहीं। खाटपर लेटा-लेटा वह एक बहुत बड़ा अस्पताल बनाने के स्वप्न देखा करता था, जहां वह दूसरे रोगियों को स्वस्थ कर सकेगा। अपनी पीठ के बल लेटा हुआ वह अपने से कम बीमार लोगों की परीक्षा किया करता था। उसने इस अस्पताल के लिए धन इकट्ठा किया और परिश्रम किया। फलतः उसका स्वप्न एक बड़ी आरोग्यशाला के रूप में परिणत हो गया। वहां सहस्त्रों रोगी सहायता पाते थे। टᆭडौ के दुःखने एक अज्ञात डाक्टर को प्रसिद्ध चिकित्सक बना दिया। तभी तो कहा है 'दुख दारू सुख रोग भया। युजीन ओ नील एक बेमतलब धूमनेवाला मनुष्य था। 28 वर्ष की आयु तक उसके सामने जीवन की कोई कार्य पद्धति न थी। तब उस पर एक प्रचण्ड रोग का आव्मण हुआ। इससे उसे आवश्यक अवकाश मिल गया। इसमें उसने उन अनेक बरसों के संस्कारों का मूल्य-निर्धारण किया, जिनमें अनुभवों का एक-दूसरे के マपर ढेर लग गया था, और उसे एक क्षण भी उन पर विचार करने को नहीं मिला था। अस्पताल में ही उसने पहले-पहल वे नाटक लिखने आरम्भ किये, जिन्होंने अमेरिकन नाटकों में वंति उत्पन्न कर दी।

किसी बड़ी अनुभूति की तरह रोग भी वस्तुतः हमें बदल डालता है। आप पूछेंगे, कैसे? सुनिये, पहली बात तो यह है कि स्वस्थावस्था में जगत्‌ को आगे होकर मिलने का जो भीषण दबाव हम पर पड़ता है, वह कुछ काल के लिए हम पर से हट जाता है। वैशाख मास में तुषार बिन्दुओं के सहश उनर दायित्व दूर हो जाते हैं, हमे टᆭेन पर समय पर पहुंचने, बच्चों की देख-भाल करने, या घड़ी को चाभी देने की चिन्ता नहीं रहती। हम अन्तरदृष्टि और आत्म-विश्लेषण के प्रदेश में चले जाते हैं। हम अपने भूत और भविष्य के सम्बन्ध में कदाचित्‌ पहली बार, शांत भाव से विचार करते हैं। अपने विषय में हमने जो पहले मूल्य लगा रखे थे, वे भ्रमजनक दीखने लगते हैं, जिस कार्य-पद्धति का हमें स्वभाव हो गया है वह निर्बल, मूर्खतापूर्ण या दुर्दमनीय जान पड़ती है। ऐसा प्रतीत होता है कि रोग हमें संसार का वह दुर्लभ पदार्थ-दूसरा संयोग- देता है, जो न केवल स्वास्थ्य में ही, वरन्‌ स्वयं जीवन में काम देता है।

अस्वस्थता हममें से बहुत से मूर्खतापूर्ण व्यवहार को निकाल देती है, इससे हममें नम्रता आती है, यह हमारा सारा अभिमान और बड़प्पन निकालकर हमें अपनी वास्तविक अवस्था में ले आती है। इससे हम अपनी अन्तरात्माओं पर चोर बनी का प्रकाश डालकर उनकी वास्तविक अवस्था को देखने के योग्य हो जाते हैं और हमें पता लग जाता है कि कितनी बार हमने अपनी निर्बलताओं और विफलताओं को युक्तिसंगत सिद्ध करने का यत्न किया है। और कितनी बार हम परमावश्यक बातों पर टालमटोल करके चुपके से भाग गये हैं। अपने कायो में, विवाह में और सामाजिक मेलजोल में की हुई भूलें अस्वस्थता में स्पष्ट दीखने लगती हैं। अस्वस्थता का हितकर प्रभाव उस समय विशेष रूप से दिखाई देता है, जब हम तनिक भयभीत होते हैं। टाईफायड और न्यूमोनिया ने अनेक, चोरों, अनृतवादियों और पत्नी को पीटने वालों का सुधार कर दिया है। यदि रोग का कड़ा दौरा हमें मृत्यु द्वार के निकट ले जाता है-तो कदाचित्‌ यह और भी अच्छा है। क्योंकि जब मार्ग रुद्ध और द्वार संकीर्ण हो जाता है, कुछ लोगों को केवल तभी अपनी आत्मा, अपने परमेश्वर या अपने जीवन-कार्य का ज्ञान होता है। कबीर जी ने कहा भी है-

सुखके सिरपर सिल धरूं, जो प्रभुका नाम भुलाय।
बलिहारी इस दुःखके, जो पलपल नाम जपाय।

मेरे एक मित्र पर एक बार न्यूमोनिया रोग का घोर रूप से आव्मण हुआ। रोग-शएया पर लेटे हुए उन्हें एक दिन ऐसा भास हुआ, मानों कोई देवी उन्हें कह रही है कि मैं तुम्हें प्राण दान देती हूं, परन्तु अब तुम अपना जीवन देश सेवा में लगाना। स्वस्थ होने पर वे सचमुच देश-सेवा में लग गये।

फलोरेन्स नाइटिंगेल इतनी बीमार थी कि खाट से नहीं उठ सकती थी। वहां पड़े-पड़े ही उसने इंगलैंण्ड के अस्पतालों को दोबारा संगठित किया। चेचक का टीका निकालने वाले पासचर महाशय पक्षाघात से पीड़ित थे और उनको मूर्च्छा होने का निरन्तर डर लगा रहता था। फिर भी वे अथक भाव से रोग पर आव्मण करते रहे। उसी प्रकार के और भी असंख्य उदाहरण दिये जा सकते हैं। ये तो बड़े व्यक्तियों की बातें हुई, छोटे व्यक्तियों के उदाहरण भी इनसे कुछ कम अदभुत नहीं। एक नवयुवक को रुग्ण होने के कारण दो सप्ताह तक अस्पताल में रहना पड़ा। वहां उसे मालूम हुआ कि उसे रसायन-शास्त्र में शोध का कार्य करना था। तब तक उसे दवाइयां बेचने से ही अवकाश न मिलता था। एक स्त्री को सदा भय लगा रहता था कि मैं कहीं अधेड़ उम्र में न पहुंच जाउू। चालीस वर्ष की आयु में उस पर रक्त ज्वर का आव्मण हुआ। वह उससे मुक्त हो रही थी कि उसका वह भय बिल्कुल लुप्त हो गया। उसने निश्चय किया कि जैसे मैं पहले अपने को फालतू अनुभव किया करती थी, वैसे अब मैं बिल्कुल नहीं करूंगी। मेरी सन्तान के विवाह हो चुके हैं और वे अपना ख्याल आप रख सकती हैं। मैं एक स्त्रियों की श्रृंगार-सामग्री की दुकान खोलूंगी और यत्न करूंगी कि मेरी सन्तान इस काम को पसन्द करे। उसने ऐसा ही किया। कहना न होगा कि उसकी सन्तान भी इसे पसन्द करने लगी।

अस्पताल के रोगियों के साथ बातचीत करने से पता लगा है कि जो लोग पलंगपोश की रुचिर भूमि में प्रवास कर चुके हैं,'' वे कहते हैं कि हमने वहां अपने जीवन में पहली बार मित्रता के वास्तविक स्वरूप को समझा है; यह स्वरूप इस आधुनिक जगत्‌ के जटिल नमूने में बहुधा दुर्बोध ही बना रहता था। वे यह भी कहते हैं कि हमने अपनी जीवन-धारा की रहस्यमयी गहराई का भी पता लगा लिया है। उनमें से एक रोगी लिखता है कि खाटपर कुछ दिन पड़े रहने के बाद समय एक अकल्पित विलासिता अर्थात्‌ इन्द्रियसुखजनक वस्तु हो जाता है। सोच विचार के लिए समय, आनन्द लेने के लिए समय, नयी चीज बनाने के लिए समय और अन्ततः मानव-प्रकृति के सर्वोनम एवं गम्भीरतम अंश को व्यक्त करने के लिए समय मिलता है। रुग्णता जीवन का एक बड़ा विशेषाधिकार है। यह चुपके से कहती है कि मनुष्य का भाग्य अलौकिक शक्तियों के साथ आबद्ध है। रोग जीवन के बाहरी भागों को छील तथा काट कर हमारे पास इसका केवल सार भाग ही छोड़ जाता है।''

पीड़ा भी हमें आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि, आशा की सुन्दरता, मानव-समाज को समझने एवं क्षमा कर देने का भाव- सारांश यह कि शान्ति एवं धैर्य का गुण- प्रदान करती है। ये बातें घोड़े की तरह दौड़ने वाले मनुष्य को कचित्‌ ही प्राप्त होती हैं। कष्ट वह साफ करने वाली अग्नि है, जो हमारी बहुत-सी नीचता, तुच्छता और कथित स्वास्थ्य'' की अधीरता को जला देती है। महाकवि मिल्टन का कथन है- जो सबसे उनम रीति से कष्ट सहन कर सकता है, वही सर्वोनम रीति से काम कर सकता है। इसका प्रमाण उसका प्रसिद्ध ग्रन्थपेराडाइज+ लास्ट'' है। यह उसने अन्धा होने के बाद लिखा था।

रुग्णावस्था में आपको पता लगता है कि आपकी कल्पना शक्ति जितना काम अब कर सकती है, उतना पहले स्वस्थता की दशा में कभी नहीं कर सकती थी; अस्तित्व की छोटी-छोटी अनेक बातों के बन्धनों से छूट जाने के कारण, आप दिन में स्वप्न देखने, हवा में महल बनाने और मन्सूबे बांधने लगते हैं। आपकी शारीरिक शक्ति के पुनः लौट आने पर भी आपकी भावनायें मन्द नहीं पड़ती; वरन्‌ वे और भी व्यिात्मक हो जाती हैं, और आप निश्चित रूप से निर्णय कर लेते हैं कि तन्दुरुस्त हो जाने पर अमुक-अमुक बातों को कार्यरूप में परिणत करेंगे।

आपके मन की एकाग्र शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है। आपको देखकर आश्चर्य होता है कि आप कठिन से कठिन समस्या का समाधान भी कितनी सुगमतापूर्वक सोच सकते हैं। इसका कारण क्या है? यही कि आपकी आत्मरक्षा की स्वाभाविक प्रवृतियां दु्रतगति से काम करने लगती हैं और सभी अनावश्यक बातें निकाल दी जाती हैं। यह भी बड़ी दिलचस्पी की बात है कि जो कुछ भी आप देखते और सुनते हैं, उसके तन्व को आप बड़ी शीघ्रता से भांपने लगते हैं। खिड़की पर बैठी हुई गौरेया, मित्र के मुखमण्डल पर दौड़ती हुई भाव की रेखा स्मरणीय अनुभवों के रूप में बहुत ही भली प्रतीत होती है। रोग आपको प्रभावग्रहणशील बना देता है; इसीलिए आप चिड़चिड़े हो जाते हैं। हो सकता है कि आप थोड़ी-सी उनेजना पर भी रोने लगें। परन्तु इस ग्रहणशीलता का सदुपयोग करना चाहिए। एक विशेष मार्ग पर आत्म-विकास करने, खूब पुस्तकें पढ़ने, या मौलिक विचार उत्पन्न करने का यही अत्युनम समय है। उन लोगों की बात छोड़ दीजिये, जो अपने रोग को आलस्य के लिए बहाना बना लेते हैं। पुराने विश्वास के विपरीत, यह आवश्यक नहीं कि रुग्ण देह, मन और बुद्धि को भी रुग्ण बना दे। कोई भी व्यक्ति अपने रोग को, वह रोग चाहे किसी भी प्रकार का क्यों न हो, निष्कपट भाव से अपनी विफलता का बहाना नहीं बना सकता।

कलाकारों और प्रेमियों को प्रत्येक युग में इस बात का ज्ञान रहा है कि जिस व्यक्ति को दुःख दिया जाता है, उसमें वह दुःख एक अपूर्व सौन्दर्य उत्पन्न कर देता है। इस सौन्दर्य का चेहरे की बनावट या वस्त्रादि की सजावट के साथ कोई सम्बन्ध नहीं। यह तो भीतरी मनोहरता है जो उन लोगों की आत्मा और मुखाकृति को प्रकाशित कर देती है, जिन्होंने रुग्णता को एक युद्धाहवान के रूप में देखना सीखा है और जो आशा एवं उत्साह के साथ इसका सामना करना आवश्यक समझते हैं।

यदि आप कभी बीमार नहीं हुए हैं, यदि आपको कभी एक दिन के लिए भी खाट पर लेटे नहीं रहना पड़ा है- तो आप किसी वस्तु से वंचित रहे हैं। जब आपकी बारी आये, तो भयभीत मत हो जाइये। अपने को स्मरण कराइये कि पीड़ा और दुःख आपको कोई ऐसी बहुमूल्य बात सिखा सकते हैं, जो आप अन्यथा कभी नहीं सीख सकते। हो सकता है कि यह आपके जीवन की समूची गति को बदलकर अच्छा बना दें। यदि आप और आपके निकटवर्ती सज्जन रोग को भेष बदलती हुई भगवत्‌-कृपा समझकर इससे लाभ उठाने का बुद्धिपूर्वक निश्चय करें, तो आप पहले से अधिक प्रसन्न हो जायेंगे। आप अपनी अस्वस्थता से बड़ा भारी लाभ उठा सकते हैं।

(यू.एन.एन.)