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लेख
ट्रेजेडी हमें क्यों प्रिय लगती है? स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
मनुष्य का यह मर्त्य जीवन सुख और दुःख के उपादानों से गठित हुआ है, जिससे उसकी जीवन यात्रा में सुख-दुःख का क्रम प्रायः न्यूनाधिक रूप में चलता ही रहता है। न तो किसी के जीवन में एकान्त सुख ही होता है और न एकान्त दुःख ही। ''कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा नीचैर्गच्छति उपरिच दशा चक्रने मिक्रमेण।'' रथ के पहिये की धुरी की तरह जीवन में सुख और दुःख का क्रम बंधा रहता है।

मानव जीवन में इस प्रकार सुख के साथ दुःख का जो सम्मिश्रण दीख पड़ता है, इसका कारण क्या है? यदि हमारा सम्पूर्ण जीवन आनन्दमय होता, वह कविता के समान मधुर अथवा ताजमहल के समान नित नूतन मनोरम प्रतीत होता, तो भले ही हम उस जीवन को उपभोग्य समझते; किन्तु उस जीवन में ऐसी कोई बात नहीं रह जाती, जिस पर हम गौरव बोध करते। मनुष्य के जीवन में पग-पग पर उसे कठिनाइयों एवं दुःख-विपत्तियों का सामना करना पड़ता है; बन्धनों का अन्त नहीं दिखाई पड़ता; विपत्तियों के कण्टका कीर्ण मार्ग से होकर जीवन के चरम लक्ष्य की ओर बढ़ना होता है; अन्धकार पूर्ण गम्भीर दुर्गम अरण से होकर जय-यात्रा करनी होती है। मनुष्य की यह जय-यात्रा न मालूम कब से, कितने युग-युगान्तरों से अविराम गति से चल रही है। इस जय-यात्रा में मनुष्य ने जिन विपत्तियों को वरण करते हुए अपने हाथ में कुठार लेकर अपने पथ का निर्माण किया है, उसके अश्रुसिक्त इतिहास की छाप वह अतीत के वर्षों पर अंकित छोड़ गया है। मानव जीवन के इस अश्रुपूर्ण इतिहास में, उसकी विपदसंकुल जय यात्रा में ही हमें उसका वह भीषण मधुर रूप दीख पड़ता है, जो उसके बाह्य जीवन के कर्म कोलाहल में अन्तर्हित रहता है। मनुष्य की गभीरतम वेदनाओं की अभिव्यक्ति जब दुःख शोक, पीड़ा एवं निराशा के रूप में होती है, तो इनमें ही हमें उसके जीवन का मधुरतम संगीत सुनाई पड़ता है। जैसा कि शेली की एक कविता में है। हमारी भावनाओं के साथ जो विषादमय विचार जड़ित होते हैं, उनमें ही हमें जीवन का मधुरतम संगीत सुनाई पड़ता है। प्राणों के अतल-तल से विनिःसृत होने के कारण इस संगीत की स्वर-लहरी सहज ही हमारे प्राणों को स्पर्श करती है, हमारे मर्म पर करुण आघात पहुंचाती है। जीवन के इस मुकुर में ही हमें मनुष्य की वह मानवता प्रतिविम्बित होती दीख पड़ती है, जो मानव-प्रकृति की सर्वोत्तम विभूति कही जा सकती है। एक मनुष्य को जब हम जीवनव्यापी विपदाओं एवं दुर्दैव की ताड़नाओं से पराजित होते देखते हैं, उस समय दुःख एवं पराजय की म्लान-गम्भीर पट-भूमिपर उसका आन्तरिक सौन्दर्य, उसकी अवर्णनीय महिमा प्रोज्जवल रूप में प्रस्फूटित हो उठती है। उसके इस देव दुलर्भ रूप को देखने के लिए देवतागण भी तरसते हैं। एक पुण्यात्मा मनुष्य का दुर्भाग्य के साथ संग्राम करने का दृश्य ऐसा है, जिसे देवतागण भी सानन्द देख सकते हैं। ट्रेजडी, अर्थात्‌ शोकान्त नाटक तथा गल्प-उपन्यास जो हमें इतने अच्छे लगते हैं, इसका कारण यही है।

प्रत्येक मनुष्य जन्म के साथ ही अपना एक व्यक्तित्व लेकर अपनी जीवन-यात्रा आरम्भ करता है। उसका यह व्यक्तित्व यन्त्रवत्‌ जड़ न होकर सजीव एवं सक्रिय होता है। इस व्यक्तित्व की एक दुर्निवार प्रेरणा होती है, जो उसे जीवन में आगे की ओर बढ़ने के लिए, अनन्त की ओर अभियान करने के लिए उत्प्रेरित करती रहती है। यह प्रेरणा उसे जीवन में अग्रसर होने, ऊंचे उठने एवं सृष्टि करने के साधन प्रदान करती है। जिस रूप में मनुष्य ने जन्म ग्रहण किया है, उसी रूप में तो उसे अपनी जीवनलीला समाप्त नहीं करनी है। वह तो साधना द्वारा अपने लिए जीवन का नूतन रूप में निर्माण करना चाहता है। दुःख, विपत्ति एवं अशान्ति के निर्माण करना चाहता है। दुःख, विपत्ति एवं अशान्ति के बीच वह साधना की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है। वह शान्ति नहीं चाहता, सृष्टि चाहता है, जीवन चाहता है। अचल एवं निष्क्रिय जीवन नहीं; प्रगतिशील एवं सक्रिय जीवन। जिस जीवन में उद्दाम गति वेग की प्रचण्ड प्रेरणा शान्त होकर बैठने नहीं देती। वह तरंग-विक्षुब्ध अज्ञात सागर में डुबकी लगाने, उत्तुि पर्वतशीखर पर आरोहण करने, श्वासदसंकुल गंभीर अरण्य में विचरण करने तथा ऊर्ध्वाकाश वायु की गति का सन्धान लेने के लिए पीछे से अंकुश लगाती है। प्रेरणा की यह विह्निशिखा जब तक मनुष्य के अन्तर में प्रज्वलित होती रहती है, तब तक वह शान्त होकर बैठ नहीं सकता। वह तो जीवन को और भी समुन्नत एवं व्यापक बनाना चाहता है; क्षुद्र संकीर्णता की परिधि से उसे असीम की ओर ले जाना चाहता है। प्राणहीन शान्ति उसे काम्य नहीं, उसे काम्य है जीवनव्यापी संग्राम एवं दुःख एवं विपत्तियों से संघर्ष। इस संघर्ष में निन्दा एवं निर्भर्त्सना, व्यंग और उपहास की वह परवाह नहीं करता। पराजय की घोर तमिस्त्रा के बीच भी उसे विद्युत का प्रकाश दीख पड़ता है।

जो शान्ति नहीं चाहता, जिसे सृष्टि करने में आत्मगौरव बोध होता है, उसे तो दुःख सिन्धु का सन्तरण करना ही पड़ेगा। वह विपत्तियों से क्यों कर भाग सकता है। जीवन में दुःख कष्ट, विन-बाधायें आती हैं और इनके बीच ही उसकी अपार्थिव महिमा फूट पड़ती है। भोग विलास एवं सुखैश्वर्य के क्रोड़ में पालित मनुष्य अपने ऐश्वर्य की धाक दूसरों पर जमा सकता है, वह अपने प्रभुत्व में आत्म-तृप्ति बोध कर सकता है; किन्तु ऐश्वर्य एवं प्रभुता की यह आत्म-तृप्ति उसके उन अलौकिक देवोपम गुणों की महिमा प्रकट नहीं कर सकती, जिनके उज्जवल आलोक में उसके समस्त ऐश्वर्य एवं भाग सुख तुच्छ प्रतीत होते हैं। कपिलवस्तु के ऐश्वर्यशाली राज कुमार गौतम जिस समय रत्नखचित राजसिंहासन, विशाल साम्राज्य के समस्त सुख-भोग तथा पिता-माता एवं पत्नी-पुत्र का समस्त स्नेह-बन्धन, मोह-ममता विच्छिन्न करके विगलित वसन भूषण-विहीन सर्वत्यागी सन्यासी के रूप में सिद्धार्थ बनकर संसार के सामने प्रकट होते हैं, उस समय उनका यह रूप कितना करुण-सुन्दर प्रतीत होता है। इस रूप की अनिर्वचनीय महिमा क्या और किसी पार्थिव ऐश्वर्य भोग में देखी जा सकती है? बैरिस्टर गांधी की अपेक्षा कोपीन धारी गांधी, आनन्द भवन के जवाहर लाल की अपेक्षा कैदी जवाहर लाल की वह मूर्ति, जो जेल की कोठरी सीखचों से प्रकट होती है, हमें इतनी प्रिय क्यों लगती है? इसलिए कि निपीड़ित देशवासियों की अपरिसीम वेदना की अनुभूति इस वेश में इनके करुण-कोमल नेत्रों में छलछलाने लगती है। इस करुण-कोमल मूर्ति की जो अमर महिमा है, वह हमारे मन-प्राण को विमुग्ध किये डालती है। दुःख की घन घटा एवं विपत्तियों की कराल छाया के मध्य में ही हमें मनुष्य के अपरूप मनुष्यत्व की विद्युत झांकी दीख पड़ती है। मनुष्य का मुनष्यत्व जब अपनी महिमा के साथ एकात्मबोध अनुभव करने लगता है और उसकी यह एकात्मानुभूति उसे वैयक्तिक जीवन में सब प्रकार के त्याग करने के योग्य बना देती है। इस चैतन्य भाव के जाग्रत होने पर मनुष्य कष्ट-सहन एवं त्याग में ही परमानन्द लाभ करता है। वह स्वेच्छा से अपनी बड़ी से बड़ी आवश्यकताओं का परित्याग कर देता है, यहां तक कि मृत्यु को वरण करने के लिए भी तैयार हो जाता है। मनुष्य में इस दिव्य चरित्र के विकसित होने पर ही उसे अपने अतिमानवत्व का ज्ञान होता है, अब उसकी विश्वात्मा को, उसके आध्यात्मिक स्वरूप को व्यक्तिगत सुखों का त्याग करने में, आत्मोत्सर्ग में सुखानुभव प्राप्त होता है।

सुखान्त नाटक या उपन्यास की अपेक्षा दुःखान्त नाटक या उपन्यास जो हमें अच्छे लगते हैं, इसका कारण यह है कि दुःख मानव-हृदय के मर्मन्तुद व्रण को अनावृत रूप में हमारे सामने प्रकट कर देता है। इस दुःख के साथ जो एक अनिर्वचनीय सौन्दर्य होता है, वह धैर्य, साहस एवं शौर्य द्वारा महत्‌ बन जाता है। कारण, संकटापन्न अवस्था में पड़कर ही मनुष्य के अन्तर का ज्योतिर्मय प्रकाश अपने दिव्य रूप में प्रकट होता है और उस प्रकाश में ही हम मनुष्य की प्रकृत महिमा की उपलब्धि करते हैं।

जिन नाटकों या उपन्यासों में पुण्यात्मा अथवा निरीह निरपराध मनुष्यों को पहले तो दुःखी, दुर्भाग्य-पीड़ित एवं विपन्न दिखलाया जाता है और फिर अन्त में वे सब दुःखों एवं विपदाओं पर विजय प्राप्त करके विजयी वीर की भांति सुख का भोग करते हैं, उनकी अपेक्षा हमें वे नाटक या उपन्यास अधिक प्रिय लगते हैं, जिनके पात्रों का जीवन अन्त तक अपने दुर्भाग्य के साथ, निष्ठुर नियति के क्रूर विधान के साथ अहर्निश संग्राम करने में ही व्यतीत होता है। इसका कारण यह है कि यदि धर्मात्मा एवं निरपराध व्यक्तियों को जीवन में सदा सुखी एवं सफल ही दिखलाया जायेगा, तो इस प्रकार के नाटक अथवा उपन्यास का जो लक्ष्य है अपने श्रोताओं एवं पाठकों के मन में पर दुःख कातरता एवं भीति-भाव उत्पन्न करना, वह लक्ष्य सिद्ध नहीं हो सकता। किसी सत्पुरुष को उसके जीवन में जब हम दुःखों के साथ संग्राम करते पाते हैं, उस समय यदि पहले से ही हमारे मन में यह धारणा जम जाये कि इस व्यक्ति का दुःख शीघ्र ही सुख में परिणत होगा और इसके सौभाग्य के दिन फिरेंगे, तो उसके चरित्र का प्रभाव हमारे मन पर सविशेष नहीं पड़ सकता। इसके विपरीत जब हम साधु एवं सत्पुरुषों को आजीवन असीम दुःख झेलते हुए, विपदाओं का पहाड़ अपने सिर पर उठाये हुए, दुःख-सिन्धु में अपनी जीवन-तरिणी को देखते हुए, दुर्दैव के निष्ठुर चक्र द्वारा निष्पेषित होने पर भी प्राणपण से मुक्ति के लिए चेष्टा करते हुए देखते हैं,उस समय उनकी इस दुर्गति एवं दुर्दशा को देखकर हमारे मन में केवल पर दुःख कातरता एवं भय का भाव ही उदित नहीं होता; बल्कि इसके साथ-साथ उनके महत्‌ चरित्र के प्रति हमारे मन में आदर एवं श्रद्धा का भाव भी उत्पन्न होता है और यह भाव किसी क्षणिक आनन्द एवं सन्तोष के भाव की अपेक्षा अधिक स्थायी होता है। यही कारण है कि जो नाटक या उपन्यास आदि से अन्त तक दुःखान्त होते हैं, इस संसार में क्या हम कभी-कभी साधु एवं सत्पुरुषों को भी आजीवन कष्ट सहन करते हुए नहीं देखते हैं? क्या उनका सारा जीवन केवल सुख-शय्या में ही व्यतीत होता है?

अंगरेज उपन्यास-लेखक टामस हार्डी के शोकान्त उपन्यास जो हमें इतने अच्छे लगते हैं, इसका कारण यही है कि उसके पात्र-पात्रियों का जीवन क्रूर भाग्य देवता के साथ जीवन व्यापी संग्राम करने में व्यतीत होता है। हार्डी के उपन्यासों में निर्मम नियति के साथ मनुष्य के द्वन्द्व का सकरुण मधुर चित्र फूट पड़ा है। अदृष्ट के अभिशाप से अभिशप्त मनुष्य नियति के दुर्भेद्य लौह-जाल से अपने को मुक्त करने की चेष्टा करता है; किन्तु उस जाल की जटिलता और भी दुरूह होती जाती है और उसकी मुक्ति सुदूरपराहत हो जाती है। मनुष्य अपने जीवन के अन्त तक अपने भाग्य देवता को प्रसन्न करने की चेष्टा करता है, वह भाग्य देवताओं के साथ संग्राम करता है, अपने अतुल पराक्रम द्वारा, शौर्यवीर्य द्वारा अपने दुर्भाग्य पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा करता है; किन्तु हाय! उसकी सारी चेष्टायें व्यर्थ होती हैं। वाम विधाता के कोप को व्यर्थ करने की शक्ति उसमें कहां? वह कोप तो भूमि-कम्प के समान सर्वग्रासी बनकर उसकी समस्त आकांक्षाओं को अपनी उदरदरी में समा लेने के लिए तुल पड़ा है। अपने दुर्भाग्य के इस कठिन क्रूर कारागार में बन्दी बनकर मनुष्य को अपने परित्राण का कोई उपाय नहीं दीख पड़ता। कितनी आशा-आकांक्षाओं, हौसलों और अरमानों को लेकर उसने जीवन आरम्भ किया था। अपने लिए सोने की दुनिया गढ़ रखी थी। स्वप्न जाल बुन रखा था। गृह की सुशीतल छाया में सुख के दिन बीत रहे थे। जननी का वात्सल्य, भगिनी का प्रेम, स्वजन का प्यार, पत्नी का मनुहार, सब कुछ प्राप्त था। पत्नी भोजन परोस कर सामने रखती थी, पंखा हाथ में लेकर झलती थी, रात्रि में कोमल शय्या प्रस्तुत करती थी, दुःख के दिनों में जननी अपने हाथों से अश्रुजल पोंछ देती थी, पुत्र-कन्या की काकली से घर मुखरित बना रहता था। उस समय यह कौन जानता था कि अदृष्ट हमें अपना क्रीड़ा कन्दुक बनाकर क्षण-भर में ही हमारे इस स्वप्न-जाल को विच्छिन कर देगा, हमारी सोने की दुनिया को नष्ट कर देगा और हमारे समस्त प्रयास को व्यर्थ करके दुर्वार घटना स्त्रोत में बहा ले जायेगा। इस प्रकार अदृष्ट पुरुष द्वारा प्रेरित घटना स्त्रोत के प्रवाह से होकर ही तो हमें अपनी जीवन नौका को खेकर कूल तक ले जाना है। कौन जाने कब अचानक झंझावात आये और हमारी इस क्षुद्र नौका को किसी अज्ञात प्रदेश में बहा ले जाये।

तो क्या मनुष्य इस अदृष्ट पुरुष के सामने आत्मसमर्पण करके अपनी पराजय को स्वीकार कर ले? जीवन व्यापी संग्राम से, जीवन के संघर्ष एवं द्वन्द्व से विरत हो जाये? नहीं, इस प्रकार दुः,खमय जीवन में हतबुद्धि बनकर पराजय स्वीकार कर लेने में जीवन की सार्थकता कहां है। जिस दिन मनुष्य जीवन के संघर्ष एवं द्वन्द्व से विरत होकर भाग्य देवता के सामने अपना माथा टेक देगा, निर्मम नियति के सुतीक्ष्ण आघातों से जर्जरित होकर प्रयत्नों से मुख मोड़ लेगा, उस दिन मनुष्य जाति का दुर्भाग्य ही समझना चाहिए। अदृष्ट के साथ मनुष्य अपनी अदम्य आकांक्षाओं को लेकर संग्राम करता है, उस संग्राम में बार-बार पराजित एवं भू-लुण्ठित होने पर भी जब वह शेष पर्यन्त अपने को पराजित स्वीकार नहीं करता, तो उसका यह दृश्य कितना भीषण मधुर होता है। मनुष्य के जीवन को इस ट्रेजडी में ही तो हमें उसकी अपराजेय एवं अमर आत्मा का माहत्म्य देखने को मिलता है।

(यू.एन.एन.)