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लेख
संगीत द्वारा रोग-चिकित्सा स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       विश्वम्भर नाथ
संगीत के मोहन-सुर संगीत की मादकता जीव जगत पर जो प्रभाव पड़ता है, वह किसी से छिपा नहीं है। संगीत की स्वरलहरी पर मुग्ध होकर हिरन का व्याध के बाण से विद्ध होना, महाविषधर भुजंग का सपेरे के वशवर्ती होना हम बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं। किन्तु वर्तमान युग में संगीत के प्रभाव से मनुष्य की व्याधियों का उपचार करने का प्रयोग भी होने लगा है। एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जबकि विज्ञान चिकित्सा अपने रोगियों के लिए मिक्सचर, पिल या पाउडर की व्यवस्था न करके दिन-रात में उसके लिए दो-तीन बार संगीत श्रवण का व्यवस्था पत्र देंगे।

हमारे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को पुनरुज्जीवित करने की जो एक स्निग्ध एंव आश्चर्यजनक शक्ति संगीत में है, इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव अब संसार के श्रेष्ठ चिकित्सकों को अस्पतालों और गवेषणालयों के प्रयोगों द्वारा होने लगा है। यहां तक कि अध्यापक एस0बी0 क्रेकफ्‌ ने सोवियट रूस के कई अस्पतालों में परीक्षा करके यह प्रमाणित किया है कि संगीत नेत्ररोगियों की दृष्टि शक्ति को वर्द्धित कर सकता है। इस प्रकार की संगीत चिकित्सा में रोगियों को किसी प्रकार की औषधी खाने के लिए नहीं दी जाती, केवल नियत समयों में उसे निर्दिष्ट संगीत सुनना पड़ता है। इतना ही नहीं, बल्कि समान ताल और सुर मे घड़ी का जो टिक्‌-टिक्‌ शब्द होता है, उससे भी दृष्टि शक्ति की उन्नति हो सकती है। इसलिए दूरवीक्षण, अणुवीक्षण आदि यन्त्रों द्वारा जो लोग प्रतिदिन दीर्घ समय तक काम करते हैं, अथवा जो लोग नाना प्रकार के भास्कर्य्य करते हैं, उनकी दृष्टि शक्ति को वर्धित करने के लिए यह संगीत चिकित्सा बहुत ही उपकारी और सहायक सिद्ध हो सकती है।

व्याधिजनित ग्लानि को कम करने की शक्ति भी संगीत में कम नहीं है। इसलिए अस्त्रोपचार-चिकित्सा में भी संगीत का प्रयोग होने लगा है। जिस रोगी की अस्त्र चिकित्सा करनी पड़ती है, उसके शरीर पर व्यापक रूप में एनेस्थेटिका करनी पड़ती है, उसके शरीर पर व्यापक रूप में एनेस्थेटिक का प्रयोग न करके केवल व्याधिग्रस्त अंशपर उसका व्यवहार किया जाता है और इस समय रोगी के मन को दूसरी ओर आकर्षित करने के लिए संगीत द्वारा एनस्थेटिक समान अचेतनावस्था की सृष्टि की जाती है। बहुत से प्रसिद्ध चिकित्सकों ने इस व्यवस्था का प्रयोग किया है और इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। इस कार्य के लिए प्रायः यन्त्र संगीत नल द्वारा रोगी के कानों में पहुंचाने की व्यवस्था की जाती है।

प्रयोग द्वारा यह भी जाना गया है कि हिस्टीरिया रोग के रोगी पर निर्दिष्ट समय में जब रोग का आक्रमण होता है, उसकी अवस्था को लक्ष्य करके डाक्टर लोग ऐसे समय में रोगी को संगीत के प्रभाव से मुग्ध कर रखने की व्यवस्था करते हैं। इसका फल यह देखा गया है कि रोगी अन्य किसी प्रकार की औषधि का व्यवहार न करके भी न केवल संगीत की सहायता से भीषण हिस्टीरिया के आक्रमण से मुक्त हो गया है।

अतएव स्वाभाविक अवस्था में संगीत का मनुष्य के मनपर जो प्रभाव पड़ता है उससे जो सुखप्रद सपन्दन जाग्रत होते हैं- व्याधिग्रस्त होने पर भी नाना प्रकार से अनुरूप मानसिक परिवर्तन साधन करने में वह सहायता पहुंचाता है। संगीत प्रभाव केवल आधुनिक युग में ही नहीं, बल्कि प्राचीन युग में परिज्ञात था। संगीत के प्राणोन्मादकारी प्रभाव को देखकर ही आदिम काल के असभ्य बर्ब्बरों में युद्ध-वाद्य और युद्धनृत्य प्रवर्तित हुए थे। उस समय रणवाद्य की अनुप्रेरणा से स्त्रियां भी पुरुष के समान ही युद्ध के समय उनके साथ लड़ने के लिए तैयार हो जाती थीं। स्त्रियों को इस प्रकार युद्ध में आकर्षित करके लाने के लिए दलपतियों ने रणवाद्य एवं समरनृत्य का आविष्कार किया था। आधुनिक युग में जो भयंकर मारणास्त्र अविष्कृत हुए हैं, उनकी तुलना में प्राचीन काल के युद्धवाद्य और समरनृत्य के आविष्कार का महत्व कुछ कम नहीं कहा जा सकता।

जीव-जन्तुओं में संगीत के प्रति जो असाधारण मोह देखा जाता है वह तो है ही, इसके सिवा उनमें विशेष सुर या संगीत को पसन्द करने की जो शक्ति देखी जाती है, वह और भी आश्चर्यजनक है। आमतौर से यह देखा जाता है कि सब जानवरों में किसी न किसी संगीत के प्रति आसक्ति और सुर-विशेष के प्रति विद्वेष देखा जाता है। इसका दृष्टान्त खोजने के लिए हमें बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। परीक्षा के रूप में यह देखा जा सकता है कि पालतू कुत्ते कभी-कभी कांसे का विकट टन्‌-टन्‌ शब्द और शंख का उच्च घोष बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसीलिए कांसा या शंख की आवाज होते ही कुत्ते उत्तेजित कण्ठ से भूंक-भूंककर उसका प्रतिवाद करना आरम्भ कर देते हैं। ऐसा मालूम होता है, मानों वे शंख के उच्च घोष को विद्रूप करके उसके अनुरूप उच्च कण्ठ से हृदय विदारक आक्षेप ध्वनित करते हों। किन्तु ये ही कुत्ते जब बेहाला, बांसुरी या हारमोनियम का नरम कोमल सुर सुनते हैं, तो उससे उत्तेजित न होकर शान्त भाव से उसे ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार यह भी प्रत्यक्ष देखा गया है कि ढोल, डफ, मृदंग आदि का शब्द सुनकर कुत्ता जिस तरह उत्तेजित हो उठता है, सुमधुर कण्ठ संगीत से, चाहे कितनी ही ऊंची आवाज से क्यों न हो, उसका चित्त-विभ्रम कुछ भी नहीं होता।

यह भी देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है कि जिन सब सुकोमल संगीत-सुरों से कुत्ते उत्तेजित नहीं होते, उनके भी आकस्मिक उत्पन्न होने पर कुत्ता पहले भूंकने लगता है; किन्तु बाद में उसके स्वरूप अर्थात्‌ उसकी मधुरता की अनुभूति करके कुत्ता नीरव हो जाता है। बिल्ली के सम्बन्ध में यह देखा जाता है कि वह कांसे के घण्टे का शब्द सुनकर उस प्रकार उत्तेजित नहीं होती; किन्तु किसी प्रकार का घर्षण शब्द (किसी धातु के बर्तन पर लोहे की छड़ द्वारा घर्षण करने का शब्द) वह बिलकुल सहन नहीं कर सकती। इस प्रकार का शब्द उसके कान में प्रवेश करते ही वह दुम फुलाकर और पीठ ऊंची करके एक अजब तरह से आघात करती हुई अपना विद्वेष प्रकट करने लगती है।

मृदु होने पर भी कुछ घर्षणजनित शब्द इस प्रकार के होते हैं जिनसे हमें सिहरन होने लगती है। इस प्रकार के रोमान्च कर शब्दों से हम लोग कहां तक अस्वस्ति बोध करते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं। इस प्रकार के शब्दों का प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी समय अनुभव प्राप्त हुआ होगा। इसलिए शब्दों के हेर-फेर से उसी प्रकार की अस्वस्ति कुत्ते, बिल्ली आदि जानवरों को भी बोध होगी, इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है।

एक बार इंग्लैण्ड के किसी घर में रात में लोहे के सन्दूक को काटकर चोरी हुई। चोरी के बाद घर के सब लोग जाग पड़े। वे अपनी पालतू बिल्ली की दशा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। बिल्ली उस समय अपनी पीठ ऊंची करके विकट आवाज से अपनी विरक्ति प्रकट कर रही थी। बिल्ली की इस आवाज को सुनकर ही गृहस्वामिनी की निद्रा भंग हुई थी। बाद में खुफिया पुलिस वालों ने वहां पहुंचकर यह राय दी कि लोहे के सन्दूक के ढक्कन को काटते समय जो घर्षण शब्द हुआ था, उस अश्रुतपूर्व अजब शब्द को सुनकर बिल्ली अधीर हो उठी थी। इस प्रकार की विचित्र आवाज उसके लिए असह्य हो गयी थी।

प्राणीशास्त्रवेत्ताओं का कहना है कि जीव-जन्तु संगीत से अनभिज्ञ होने पर भी उसके किसी सामान्य कर्कश शब्द को भी तुरन्त पकड़ लेते हैं। संगीत और कोमल सुरों का साधारण त्रुटि-दोष भी उनके कानों में विषम कर्कश बोध होता है। इससे हम यह अनुमान कर सकते हैं कि वे बहुत उच्च प्रकार के संगीत या किसी प्रकार का बेसुरा उच्च स्वर किसी प्रकार भी बर्दाश्त नहीं कर सकते और उसके प्रतिवाद में अपनी उत्तेजना अस्वाभाविक गर्जना द्वारा प्रकट करते हैं।

दृष्टान्त-स्वरूप अध्यापक जे0जे0 टामसन ने लिखा है :- ''एक दिन मैं अपने गांव के बंगले के नीचे की मंजिल में ड्राइंग रूम में बैठा हुआ पियानो बजा रहा था। कमरे के बाहर घास पर एक गाय का बच्चा घास खा रहा था। पियानो से जब सादा सुर बज रहा था, उस समय वह बच्चा निविष्ट चित्त से घास खा रहा था; किन्तु जब किसी कोमल पर्दे से सुर बजता था, गाय का बच्चा घास खाना भूलकर, मुंह उठाकर कमरे की खिड़की की ओर देखने लगता था। जब तक शेष सप्तक और उसके कोमल सुर में बाजा बजता था, तब तक वह घास खाना छोड़कर मानो सुर के रस में तन्मय हो जाता था। किन्तु जब भी सादा सुर बजने लगता था, अथवा जब तक किसी कोमल पर्दे का सुर नहीं सुना जाता था, तब तक वह विरक्त होकर पियानो का सुर सुनना बन्द करके घास खाने में मन लगाये रहता था। सिर्फ एक ही दिन नहीं, बल्कि लगभग दो सप्ताह तक प्रतिदिन मैं यह व्यवहार देखा करता था। उसकी संगीत प्रियता की विशेष रूप में परीक्षा करने के लिए मैंने एकमात्र कोमल पर्दे पर गत बजाकर और सादे सुर में उच्च स्वर से गान गाकर बार-बार उसकी अवस्था का लक्ष्य किया है। किन्तु बच्चे का रुख शुरू से आखिर तक एक ही प्रकार का देखा गया।''

कुत्ता, बिल्ली, बछड़ा- इन सब में जिस प्रकार संगीत के सम्बन्ध में उच्च ताल-लययुक्त संगीत की उपलब्धि करने योग्य श्रवणशक्ति पायी जाती है, हिरन के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात कही जा सकती है। एक बार एक हिरन को कन्सर्ट के अड्डे के पास बांध रखा गया। कन्सर्ट पर जब सादे सुर में कोई गत बजायी जाती थी, उस समय हिरन उस शब्द की ओर मुखातिब नहीं होता था। किन्तु जब कोई कीर्तन या उच्च राग-रागिनी का गान शुरू होता था, उस समय हिरन केवल कन्सर्ट की ओर मुखातिब ही नहीं हो जाता था, बल्कि आनन्द के आतिशय्य नाचना भी शुरू कर देता था। कभी जंजीर के बंधन को खींचकर तोड़ने की चेष्टा करता और कभी दो करुण आंखों से कन्सर्ट बजाने वालों की ओर देखता था।

इससे प्रमाणित होता है कि संगीत के मोहन सुर के प्रति बहुत से जीव-जन्तुओं का आकर्षण विशेष रूप में देखा जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि स्वर-सामन्जस्य के सम्बन्ध में उनकी रसग्राहिता बहुत ही उच्च प्रकार की होती है आैर इस क्षेत्र में वे जरा सी साधारण कर्कशता भी सहन नहीं कर सकते।

सर्वसाधारण में यह विश्वास प्रबल है कि सांप के समान और किसी भी जीव में संगीत के प्रति मोह नहीं देखा जाता। किन्तु संगीत से सांप के शरीर में जो विकार उत्पन्न होता है, उसका विश्लेषण करने पर मालूम हुआ है कि वह सांप के लिए सचमुच सुखप्रद होता है या नहीं, इसमें सन्देह है।

गुदगुदी या शरीर के अंश-विशेष पर धीरे-धीरे हाथ सहलाने से जिस प्रकार मनुष्य शरीर में रोमांच होता है और यह रोमांच केवल स्फूर्ति की ही सृष्टि नहीं करता, बल्कि हंसी उत्पन्न करने के साथ-साथ एक प्रकार की अप्रीतिकार अनुभूति का भी संचार करता है, उसी प्रकार सांप की जीभ पर संगीत की झंकार से एक प्रकार के अप्रीतिकर स्पन्दन की सृष्टि होती है। और इस स्पन्दन का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि जिस क्षण वह नीरव होता है, उसी क्षण क्रुद्ध सर्प दारुण हला-हल का प्रयोग करने के लिए जिसे सामने पाता, उसे ही काट खाता है। उस समय उसका विष इतने वेग के साथ विनिःसृत होता है कि जिस पर वह चोट करता है, उसपर लक्ष्य भ्रष्ट होने, लक्ष्य पर विष दांत बिद्ध न होने पर, वेग के साथ संचालित वह विष धारा पिचकारी के जल के समान चार-पांच फीट की दूरी पर पहुंचकर गिरती है।

सांप के सामने साधारण रूप में भी किसी वस्तु के हिलने-डोलने से उसकी जीभ में स्पन्दन होने लगते हैं। उस समय वह विषम आक्रोश प्रकट करते हुए फण को बाहर करता है। इस सम्बन्ध में एक बात यह जानी गयी है कि इस दशा में वह कुण्डलीकृत अवस्था में चाहे जिस किसी को दंशन करने लिए तैयार हो जाता है। तेजी से दौड़ने वाला सांप भी दंशन करने के लिए पलभर में कुण्डलीकृत होकर फुत्कार करने लगता है। इस अवस्था में जो सांप दंशन करने लगता है, वही विशेष सांगितिक होता है, कारण, इस अवस्था में जिस वेग के साथ विष चालित होता है, उस प्रकार अन्य अवस्था में नहीं। बिना कुण्डलीकृत अवस्था में या फुत्कार किये बिना भी सांप काटता है अवश्य, किन्तु इस प्रकार का दंशन विशेष मारात्मक नहीं होता।

जीव-जगत्‌ में संगीत प्रभाव यहीं तक नहीं देखा जाता। मनोवैज्ञानिक, चिकित्सा जिस प्रकार उन्माद रोग में, आंख और कान के रोगों में, साधारण अस्त्र-चिकित्सा में और सब प्रकार की दन्त-चिकित्सा में संगीत का अमोघ औषधि के रूप में व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार जीव-जन्तुओं के रोग-निवारण में, उनकी शरीर पुष्टि के लिए, विशेषकर उनके प्रजनन के व्यापार में भी संगीत का सफल प्रयोग किया जाता है।

जीव जन्तु के रोग निवारण में संगीत का प्रयोग किस प्रकार आरम्भ हुआ, इसका एक इतिहास है। मानसिक रोगों में संगीत का फलाफल देखकर डा0 विलियम वान डी0 वाल ने उसका प्रयोग करना आरम्भ किया- विद्रोह-भावा-पन्न कैदियों और खतरनाक दागी कैदियों के ऊपर। इससे बहुत कुछ सफलता प्राप्त होने पर इन्होंने संगीत द्वारा जीव-जन्तुओं के शरीर में कहां तक परिवर्तन लाया जा सकता है, इसकी परीक्षा की।

डा0 वाल का जन्म यद्यपि हालैण्ड में हुआ था, किन्तु उनकी शिक्षा अमेरिका में सम्पन्न हुई। इन्होंने पहले-पहल न्यू मेक्सिको के एक जेलखाने में परीक्षा आरम्भ की। वहां एक ऐसा कैदी था, जिस पर हमेशा सतर्क पहरा नहीं रहने से वह अन्य कैदियों या वार्डरों के साथ मारपीट शुरू कर देता था। डॉ0 वाल केवल एक हैण्ड आर्गन बाजा लेकर उस कैदी के पास उपस्थित हुए और बाजा बजाने लगे। फौरन्‌ वह बदमाश कैदी बाजे के सुर के साथ सुर मिलाकर गीत गाने लगा। उस दिन से रोजबरोज यह देखा जाने लगा कि उस कैदी को प्रतिदिन एक बार आर्गन बाजा सुनाने पर और उसके साथ गीत गाने का सुयोग देने पर वह किसी प्रकार का दंगा-फसाद नहीं करता और स्वाभाविक रूप में ही-स्थिर भाव से रहता। इसके बाद एक महीना बीत गया और उस कैदी पर अब पहरा बैठाने का प्रयोजन नहीं रह गया।

संगीत द्वारा श्रमिकों की कार्य करने की क्षमता बढ़ायी जा सकती है, यह भी बाद में अविष्कृत हुआ। इसीलिए यूरोप-अमेरिका के कारखानों और बड़े-बड़े आफिसों में टिफिन की छुट्टी के समय संगीत और नृत्य की व्यवस्था भी की जाती है। इससे कर्मचारियों की कर्मशक्ति बहुत कुछ बढ़ जाती है, ऐसा जाना गया है। इन्हीं सब कारणों से संगीत द्वारा जीव-जन्तुओं की कार्यक्षमता-वृद्धि और साधारण स्वास्थ्य की उन्नति सम्भव है या नहीं, इसकी भी परीक्षा की जा रही है। देखा गया है कि प्रतिदिन निर्दिष्ट समय में कुछ काल के लिए नरम सुर में यन्त्र संगीत सुनाने की व्यवस्था करके एक महीने के अन्दर ही हंस, मुर्गी आदि पक्षियों की अण्डा देने की क्षमता में वृद्धि की गयी है। जेलखाने के कैदी को शान्त करने की प्रणाली का अवलम्बन करके एक बाघ के बच्चे को यन्त्र संगीत सुना कर उसकी उत्तेजना कुछ अंशों में दूर की गयी। जब भी वह बाघ का बच्चा उत्तेजित हो उठता था, उसे यन्त्र संगीत सुनाकर शान्त कर दिया जाता था।

इस प्रकार यह प्रमाणित हो चुका है कि जीव-जन्तुओं के उत्तेजित स्नायुमण्डल को संगीत के स्निग्ध स्पन्दन से विशेष रूप में शीतल किया जा सकता है। यही कारण है कि बहुत से चिड़ियाखानों में भयानक हिंसक जन्तुओं को समय-समय पर संगीत की मनोमुग्ध कर तान से शान्त करने की व्यवस्था की गयी है।

(यू.एन.एन.)