Back Download Printable version of this Article
लेख
चंगेज खां - उसे लाशें देखकर मिलती थी खुशी स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       डॉ.हेमचंद्र जोशी
मंगोलिया की वीरान भूमि में चौदह वर्ष का एक लड़का घोड़े पर सवार होकर पहाड़ियों पर चढ़ और उतर रहा है। घोड़े को थकान ने चूर कर दिया है और अब उसके कदम टेढ़े-मेढ़े पड़ने लगे हैं। उसकी थकावट बढ़ती जा रही है और चाल धीमी हो रही है। कभी-कभी मालिक की आज्ञा पर वह तेज कदम करता है पर फिर ढीला पड़ जाता है। चारों ओर विजनता है और कभी-कभी इसे और भी भयंकर रूप देने के लिये सन्नाटे की ठण्डी हवा चलती है जिसकी धार तलवार का काम करती है। तूफान ऐसा आता है कि बालू के घनघमण्ड बादल सवार को दाबने की तैयारी करते हैं।

लड़का खूब स्वस्थ है। आंखें छोटी और तिरछी, पर एक-दूसरे से बहुत दूरी पर। माथा चौड़ा और पीछे को हटा हुआ। शरीर का रंग गेहुंआ। बदन पर सब कपड़े जानवरों के चमड़े के हैं। इस पोशाक में यह घुड़सवार झूमता-झूमता न मालूम किस धुन में चला जा रहा है।

चोरों ने उसके आठ घोड़े चुरा लिये हैं। यही उनकी सम्पत्ति थे और इनके मिलने या न मिलने पर ही उसके वंश की प्रतिष्ठा डूबेगी या रहेगी। नवयुवक मंगोल है और इस जाति के लोग 'चलते-पुरजे' होते हैं। वे एक स्थान पर नहीं रहते। अपना सब सामान मय मकान और नारियों के ये अपने साथ ही एक स्थान से दूसरे को ले जाते हैं और जहां रात पड़ी वहीं डेरा तान देते हैं। यह इनकी जीवनचर्या है। इसमें सबसे महत्व की सम्पत्ति घोड़ा है जो रेल, बस और मोटर कार का काम देता है। इसलिये वह तीन दिन से लगातार चोरों का पीछा कर रहा है और भूख-प्यास तथा नींद को तृणवत्‌ समझ कर आगे बढ़ा चला जा रहा है।

चौथे दिन के प्रातः काल वह एक स्थान पर पहुंचता है जहां घोड़ों का एक गोल चर रहा है। बोर्जू नामक गड़रिया अकेले उन्हें देख रहा है। उसने गड़रिया से पूछा-

-तूने वे चोर देखे थे जो मेरे आठ घोड़े चुरा ले गए हैं?

-हां, जरूर देखे थे, वे मेरे सामने से उधर को भाग गए। उसने उंगली से दिशा बताई और कुछ देर तक चुप रहा। फिर बोला-

-तू थका-मांदा है और इस समय तुझपर गाढ़ वक्त आ पड़ा है। चल मैं भी तेरा साथ देता हूं कि चोर पकड़े जाएं और तेरे घोड़े तुझे मिल जाएं।

यह लड़का तेमूजीन था। बड़ी उम्र में जब यह लड़का विश्व-विजयी हुआ तो इसका नाम 'जिंगीज खां' अर्थात लोकधिप पड़ा। बोर्जू ने दो घोड़े लिये। तेमूजीन का थका घोड़ा वहीं छोड़ दिया और ये दोनों वीर आगे बढ़े। डाकुओं से घोड़े छुड़ाकर शाम तक ये वापिस आ गए। अब गड़रिये को घबराहट हुई कि मेरा बाप मुझे मारेगा, क्योंकि मैं घोड़ों को चराते-चराते भाग गया। वह सीधा अपने बाप के पास गया और अपना नया मित्र तेमूजीन उसके सामने खड़ा कर दिया। फिर कहा-

मैंने इसे थकान से चूर पाया और जैसे ही मुझे मालूम हुआ कि वह संकट में है तो मैं उसके साथ हो लिया।

गड़रिया का पिता प्रसिद्ध लड़ाकू और अपनी जाति का नामी वीर था। उसने तेमूजीन पर एक निगाह दौड़ाई और अपने बेटे से कहा-

- तुम दोनों अभी लड़के हो। आज से दोस्त बन जाओ और सदा सच्चे मित्र बने रहो।

इस प्रकार तेमूजीन ने 14 वर्ष की उम्र में अपने विशेष व्यक्तित्व के कारण एक अनुयायी बनाया। यही गुण था जो जंगली मंगोलों को उन्नति के शिखर पर पहुंचाता था। जो अपने पराक्रम से जितने अधिक अनुयायी बना सकता था वह उतना बड़ा आदमी या राजा बन जाता था।

इससे कुछ पहले तेमूजीन का बाप मरा था। कुछ कुचक्रियों ने उसे विष दे दिया था और उसकी जाति वाले 13 वर्ष के लड़के की अधीनता स्वीकार करने को तैयार न थे। भला 13 या 14 वर्ष का सुकुमार बालक उनकी रक्षा कैसे कर सकेगा। अपनी भाषा के मुहावरे में उन्होंने अपनी सम्मति यों प्रकट की- 'गहरा तालाब सूख गया है और जमी-जमायी चट्टान गिर गई है, अब एक साधारण औरत अपने नन्हें बच्चे की सहायता से क्या कर सकेगी?'

यह जिंगीज खां (चंगेज खां) के बचपन का इतिहास है। करीब 900 वर्ष पहले वह मंगोलिया के बालुकामय प्रदेश में जन्मा था जहां केवल घास उपजती है जो जानवरों के चरने के काम में आती है। इस भूमि के अधिवासी स्वभाव से लुटेरे होते हैं और उनमें से प्रत्येक यह समझता है कि मैं अपने सब शत्रुओं को अकेला धराशाई कर दूंगा। इस नीरस तथा अन्नविहीन भूमि में मनुष्य और प्रकृति के बीच सदा लड़ाई चलती है। कभी ऐसी गरमी पड़ती है कि बालू तपकर शरीर को झुलस देता है और तत्काल ही ऐसी कड़ी सर्दी हो जाती है कि सरद झोंके देह के नाना अंगों को इस प्रकार काटते हैं मानो तलवार की धारें उन्हें छेद रही हों। इस प्रदेश के निवासी मृत्यु से आठों पहर जूझते रहते हैं इसलिये मौत उनके सामने कुछ मूल्य नहीं रखती। किसी का प्राण हर लेना उनके बाएं हाथ के खेल हैं। इस परिस्थिति में तेमूजीन पैदा हुआ और छुटपन से ही उसके कानों में पूर्वजों की वीरगाथा पड़ी। उसने यही शिक्षा पाई कि शत्रुओं के लिये नाममात्र दया न दिखानी चाहिये और उन्हें समूल उजाड़ने के लिये कोई भी उपाय और नीति अच्छी है। एक बूढ़े ने उससे कहा- 'हमारे पड़ोस में ऐसे बड़े राज्य हैं कि हम उनका सौंवा हिस्सा भी नहीं हैं। वे जब चाहें, हमें कुचल सकते हैं। पर हमने उनके दांत खट्टे कर रखे हैं, क्योंकि हम घुमक्कड़ जाति के हैं। हम अपनी सारी सम्पत्ति अपने साथ जहां जाते हैं ले जाते हैं और अपने ढंग की लड़ाई में अपना सानी नहीं रखते। जब अवसर देखते हैं तो दूसरों को लूट लेते हैं और जब देखते हैं कि अभी हम कमजोर हैं तो छिप जाते हैं। यदि हम नगर बसाने लगें और अपनी पुरानी आदतें बदल दें तो हम उजड़ जायेंगे। एक बात स्मरण रखो- आश्रम और मंदिर दयाभाव को उत्तेजित करके चरित्र को दुर्बल बना देते हैं। पर संसार पर वही राज कर जाते हैं जो निर्दय योद्धा होते हैं।'

इस सत्य का परिचय तेमूजीन को मिला। उसे बालक और दुर्बल देखकर उसकी जाति वालों ने उसे मारकर अपने रास्ते से इस कांटे को हटाने की चेष्टा की। पर तेमूजीन संकट में न घबराया और उसके वीर स्वभाव का परिचय इससे मिलता है कि घोर विपत्ति पड़ने पर भी उसने अपने ससुर से सहायता की भिक्षा मांगना उचित न समझा। उसने कहा- 'सहायता मांगने के लिये भिक्षुक बनकर जाना पाप है।' उसके शत्रु तार्गुताई ने घोषणा कर दी कि मैं राजा हूं और मंगोलों को अपनी ओर करके उसने तेमूजीन को खदेड़ना आरम्भ कर दिया। तेमूजीन अपने भाई-बहनों समेत पहाड़ों और खोहों में छिपता रहा। पर एक रोज भूख ने उसे इतना सताया कि भूखा मरने से बेहतर उसने यही समझा कि शत्रु से लड़कर प्राण दिये जाएं। तेमूजीन गिरफ्तार हो गया और तार्गुताई के सामने सज+ा के लिये लाया गया। उसने आज्ञा दी कि इसकी गर्दन लकड़ी के एक बड़े कुन्दे से बांध दी जाए और हाथ शिकंजे में कस दिये जाएं। तार्गूताई का दल आनन्द मनाने लगा। तेमूजीन पर पहरा रखने वाले उसकी रखवाली के लिये एक आदमी छोड़कर स्वयं भोजन-पान में शरीक हो गए। यह अवसर देख अंधेरा होते ही तेमूजीन ने पहरेदार के सर पर ऐसा हाथ मारा कि वह वहीं ढेर हो गया और आप वहां से भागा। कुछ ही देर में उसकी खोज होने लगी और कुछ घुड़सवार देखते क्या हैं कि वह मयशिकंजे के नदी में तैर रहा है। एक उसके पास पहुंचा और न मालूम क्या जादू हुआ कि उसने उसे छोड़ दिया। इतना ही नहीं उसने शिकंजा खोल दिया और उसे छिपाकर अपने यहां शरण दी। दूसरी रात को उसने तेमूजीन से कहा- 'यदि वे लोग तुझे मेरे घर में पकड़ पाते तो मेरे घर का धुआं बंद हो जाता और आग बुझ जाती। ले यह बाण और ये दो तीर तथा दौड़ इस अंधेरे में अपनी मां और भाई-बहनों के पास।' इसके बाद उसकी ऐसी बुरी हालत हुई कि उसके पास जो अंतिम आठ घोड़े थे उन्हें भी चोर चुरा ले गए।

तेमूजीन पर घोर संकट पड़े और उसने सदा उनपर विजय पाई। इस जंगली आशावादी ने कभी हिम्मत न हारी। उसकी छोटी उम्र में ही वह दिन आया जब वह सचमुच बादशाह बन गया। उस समय उसकी प्रतिहिंसावृति जाग उठी। संसार ने उसे दबाना चाहा था, अब उसे बलवती इच्छा हुई कि संसार को अपना गुलाम बनाया जाए। उसके शत्रुओं ने बार-बार उसके प्राण लेने चाहे थे, इसलिये उसे अपने दुश्मनों को मारने की कामना ने धर दबाया। उसे धन की परवाह न थी। सोना- चांदी और जवाहरात उसके लिये कौड़ी के न थे। बयाबानों और चारागाहों में जंगली जीवन व्यतीत करने वाले वीरों को केवल जानवर, उनका चमड़ा, तम्बू और सच्चे साथियों की आवश्यकता रहती है। मूल्यवान धातु और पत्थर उनके किस काम के।

एक बार तार्गूताई ने तीस हजार सैनिकों की सहायता से तेमूजीन के तेरह हजार जाति भाइयों पर आक्रमण किया। उस समय तेमूजीन पागल हो गया और उसने ऐसी वीरता दिखाई कि शत्रु के छः हजार सैनिक कटे और सत्तर सरदार गिरफ्तार होकर उसके सामने आए। तेमूजीन ने आज्ञा दी कि इन सबको उबलते पानी के कड़ाह में डाल दिया जाए। इस नृशंसता से उसने अपना बदला लिया। इसके बाद ही उसके दिन पलटे और चारों ओर से मंगोल जाति के शूर-वीर योद्धा उसके झण्डे के नीचे आने लगे। उस समय तेमूजीन ने अपने अनुयाइयों से साफ शब्दों में कहा- 'मुझे अपने सच्चे मित्रों की आवश्यकता है, धोखेबाजों और कृत्नों की नहीं।' उस आदमी का क्या भरोसा जो सुबह वचन देकर शाम को उसे तोड़ दे। मैं शिकारियों का शिकार नहीं छीनता और न युद्ध से विजयी वीरों की लूट में हिस्सा मांगता हूं। मैंने अपना कोट उतारकर सच्चे साथियों को पहनाया है और स्वयं पैदल चला हूं, पर अपने संकट ग्रस्त मित्रों को घोड़े पर बिठाया है। तेमूजीन नित प्रार्थना करता था कि उसे सच्चे साथी मिलें। वह एक टीले की चोटी पर जाकर भगवान से निवेदन करता था- 'हे अनन्त आकाश! मेरे ऊपर कृपा कर। स्वर्ग के देवताओं को मेरे अनुकूल बना, किन्तु इससे भी बड़ी यह कृपा कर कि इस लोक में मेरे पास ऐसे आदमी भेज जो मेरी सहायता करें- मुझे धोखा न दें। उसे ऐसे ही आदमी मिले और वह एक जाति के बाद दूसरी

को जीतता गया। मंगोल मृत्यु का कैसा उपहास करते थे, इसका परिचय इस घटना से मिलता है। जब तेमूजीन ने करैत जाति के विद्रोही मंगोलों को हराया तो उसके सब सरदारों को उचित उपदेश देकर और उनसे राज भक्ति की शपथ दिलाकर अपनी सेवा में रख लिया। उनके साथ उसने काराकोरम या 'कालीरेत' पर आक्रमण किया और अपने चचेरे भाई चामूका को गिरफ्तार कर लिया। यह चामूका करैतों का राजा था। तेमूजीन ने उससे पूछा- 'तुझे क्या दण्ड दिया जाए?' चामूका ज+रा भी विचलित न हुआ और उसने शांति से उत्तर दिया।

- मुझे वही सजा दे जो मैं तुझे देता यदि मेरी विजय होती और तू पकड़कर मेरे पास लाया जाता।

- उस दशा में तू मुझे क्या दण्ड देता?

- मैं तुझे तिल-तिल करके मारता। पहले रोज दो उंगलियां काटता और फिर नित्य एक-एक अंग काटकर तुझे महीनों में तड़पा-तड़पा कर मारता। तू भी मुझे वैसे ही मार।

यह वीरता सब मंगोलों में थी पर तेमूजीन ने आज्ञा दी कि रेशम के रस्सों से उसका गला घोंटकर मारा जाए। यह उसने अपने चचेरे भाई पर बड़ी दया की। इसके बाद उसकी जाति के बुजुर्ग ऐसे खुश हुए कि उनकी पंचायत 'कुरुल्ताई' ने उसे जिनगीज खां-खान की उपाधि दी। जिसका अर्थ मंगोल भाषा में बड़ा या श्रेष्ठ होता है, 'गीज' जोड़ने से इसके माने 'सर्वश्रेष्ठ' हो जाते हैं। खां-खान का मतलब है 'मनुष्य मात्र का सम्राट।' उसकी जाति वाले उसे जो कहें, पर एतिहासिकों ने उसे सर्व शक्तिमान 'नर-संहारक' और 'दैवी प्रकोप' आदि उपाधियां दी हैं।

पृथ्वी में अनेक उत्पात हुए हैं। भूकम्प, महामारी, अग्निकांड आदि ने जनसंहार किया है। पर जितना जन नाश जिंगीज या चंगेज खां ने किया है उतना किसी ने नहीं। उसकी विजय की यात्रा अबाध गति से चीन से यूरोप तक हुई। यह वीर ऐसा ऊंचा शिखर लांघ गया कि उसका जिक्र पढ़ विश्वास नहीं होता। नेपोलियन को 5 से 6 हजार फुट चढ़ने में महान कठिनाइयों का सामना करना पड़ा पर जिंगीज खां को प्रन्द्रह हजार फुट चढ़ने में अधिक कठिनाई न हुई। चीन की जबर्दस्त दीवार उसके सामने बालू की भीत बन गई। इस दैवी प्रकोप ने जिधर को घोड़ा मोड़ा उधर ही तबाही फैला दी। उसके नाम से संसार की सब जातियां होश-हवास खो देती थी। जाति की जातियां तलवार के घाट उतार दी गईं। जब मृत्यु के इस दूत की दृष्टि कीएफ पर पड़ी तो वहां एक प्राणी जीता न बचा। बूढ़े तिल-तिल करके मार डाले गए, नवयुवक असह्‌य यंत्रणा के शिकार बने, औरतें मार डाली गई और नवयुवतियों को उनका धर्म भ्रष्ट करने के बाद बेरहमी से परलोक भेज दिया गया। उस नगर में बच्चों को खोज-खोज कर उनका शिकार किया गया।

आसपास की लहलहाती खेती मिट्टी में मिला दी गई ताकि यदि कोई मनुष्य इस प्रलय के बाद भी जीवित रह सका हो तो वह अन्न बिना मर जाए। नगर लूट लिया गया और मकान जलाकर खाक कर दिये गए। इसके बाद नगर में लाशें बिछ गईं और सड़कर उनसे ऐसी बदबू उठने लगी कि स्वयं गंदे मंगोलों को वहां ठहरना असम्भव हो गया। उन्होंने कीएफ का नाम रखा 'मू-बलीग' अर्थात 'नष्ट नगर'। एक ऐतिहासिक ने उसके बारे में लिखा है- 'उसने अपने बेटों और जाति के लिये वे सब चीजें लूटी जिनकी उसने आवश्यकता समझी। चूंकि उसे कोई दूसरा उपाय मालूम न था, इसलिये उसने यह युद्ध और लूटमार द्वारा किया। जिसकी उसे आवश्यकता न थी उसे उसने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया, क्योंकि वह न जानता था कि उससे क्या काम निकल सकता है।'

मंगोलों ने दुनियां की यह दुर्दशा की कि जिन 90 नगरों पर उन्होंने आक्रमण किया उनमें कुल 10 उनके हमले के बाद किसी प्रकार अपना अस्तित्व कायम रख सके। चीन की पुरानी राजधानी पेकिंग पर, जो वर्तमान राजधानी से कुछ ही दूरी पर थी, जब जिंगीज खां ने घेरा डाला तो उसके नगर निवासी बिना अन्न के मर गए और जो थोड़े लोग बचे रहे वे परस्पर एक दूसरे को मार उनका मांस खाकर जीवन यापन करने लगे। मंगोल सेना पर इन्होंने सब गोली-बारूद खर्च कर डाला। उसके बाद इन मूर्खों ने सोने-चांदी की गोलियां बनाकर उनपर बरसाईं। चीनियों की मूर्ख भावुकता का जिंगीज खां ने बड़ा लाभ उठाया। उसे मालूम हुआ कि चीनी अपने माता-पिता और बड़े-बूढ़ों का इतना आदर करते हैं कि उन पर गोली नहीं छोड़ सकते। इसलिये उसने उनको पकड़वाया और अपनी सेना के आगे उन्हें खड़ा कर दिया। फल यह हुआ कि चीनी सेना ने अपने हथियार रख दिये। इस प्रकार अपनी तथाकथित उच्च संस्कृति के कारण चीन पराजित हुआ और उसके पांच उत्त्ारी प्रदेश मंगोलों की अधीनता में आ गए।

वालटेयर ने लिखा है कि एशिया में जो महायुद्ध लड़े गए हैं उनके सामने यूरोप की लड़ाइयां निरे बच्चों के खेल के समान लगती हैं। जिंगीज खां और उनके चार पुत्रों के नेतृत्व में सात लाख मुगल और तातार सैनिक दिग्विजय को निकले थे। जक्सर्टीज नदी के उत्तर मैदान में इनकी मुठभेड़ सुल्तान मुहम्मद के चार लाख सैनिकों से हुई और पहली ही लड़ाई में मुगल सेना ने ध्वंस का ऐसा भीषण दृश्य दिखाया कि शत्रु के एक लाख साठ हज+ार सैनिक मारे गए। ईरान में भी जिंगीज खां ने प्रलय मचाया। वहां के ऐतिहासिकों ने उसकी विजय-यात्रा का दिल दहलाने वाला चित्र खींचा है। ओचार, कोजन्द, बुखारा, समरकन्द, हिरात, मेरू, निसापुर, बलख और कन्दहार में उसकी सेना ने सर्वनाश का दृश्य उपस्थित कर दिया। ट्रांस-ओथ्क्सयाना, कारिज्म और खुरासान के समृद्ध देशों में उन्होंने मृत्यु और बरबादी फैला दी। अंग्रेज ऐतिहासिक गिबन ने लिखा है- 'कास्पियन सागर से सिंधु नदी तक उसने सैकड़ों मील के समृद्ध और असंख्य जनाकुल प्रदेश को मिट्टी में मिला दिया। चार वर्ष के भीतर उसकी सेना ने इतना प्राणनाश और प्रदेशों को ध्वस्त किया है कि पांच सौ साल में भी उसकी क्षतिपूर्ति न हो सकी। मृत्यु का यह दूत सेना को उन्मत करके रक्त की प्यासी बना देता था। जिस समय उनके सर पर खून सवार होता था तो बिना पूरा सर्वनाश किये दम न लेते थे। जब वह सिंधु से वापिस आ रहा था तो रास्ते में उसने उजड़े नगर और असंख्य मनुष्यों की लाशें बिखरी हुई देखीं। एक क्षण के लिये उसके हृदय में यह विचार पैदा हुआ कि ये भूमिसात्‌ नगर फिर बसाए जाएं। पर ईरान की विजय के मद में वह सब भूल गया और उसकी आज्ञा से उसकी सेना ने उन सब राष्ट्रों को घोड़ों के खुरों के तले रौंद डाला जो उसकी अग्रगति को रोकना चाहते थे।'

किस प्रकार प्राणनाश किया जाता था, इसका ढंग अद्भुत था। विभिन्न प्रदेशों के निवासियों के प्राण विशेष नियम के अनुसार हरण किये जाते थे। उन्हें आज्ञा दी जाती थी कि घर से बाहर निकल पड़ो और जिंगीज खां के सामने कतार बांधकर खड़े हो जाओ। इनमें वही नवयुवक खड़े किये जाते थे जो लड़ने के योग्य होते थे। उनका फैसला तुरंत कर दिया जाता था। या तो वे मंगोल सेना में भर्ती कर लिये जाते थे या तत्काल कत्ल कर दिये जाते थे। जो लोग लड़ने के अयोग्य समझे जाते थे उनसे या तो उनकी जान बचाने के लिये रुपये वसूल किये जाते थे या वे भी परलोक भेजे जाते थे। सब सामान लूट लिया जाता था। मकान खण्डहर कर दिये जाते थे और विजित मनुष्यों का बचना कठिन होता था। 'यह तब की बात है जब मुगल सेना दयालु होती थी। पर जरा-सा क्रोध आते ही वे आग भभूका बन जाते थे। उस समय नगर के नगर उजाड़ दिये जाते थे। बस्तियों की बस्तियां वीरान हो जाती थीं। कई नगरों की सड़कों पर उन्होंने इतनी लाशें बिछा दीं कि बकौल उनके- उनके घोड़े मीलों तक केवल लाशों पर चलते थे और यह क्रूर दृश्य देखकर वे आनन्दमग्न होते थे। खुरासान के तीन बड़े नगर पेरू, निसापुर और हिरात जिंगीज खां की सेना के कोपभाजन बने। इनका मुगलों ने जो हिसाब लगाया है उससे मालूम होता है कि इनमें 43,47'000 आदमी कत्ल किये गए।

बुखारा में जब मंगोलों ने आक्रमण किया तो मुसलमानों की वही दशा हुई जो मुसलमानों के राज्य में मथुरा और काशी की हुई थी। जिंगीज खां की सेना को देखकर सब हैरान थे। सैयद और इमाम खुदा पर भरोसा किये बैठे थे कि अब ऊपर से आग उतरी और इस काफिर पर बरसी। पर उसे उसकी नाम मात्र परवा न थी। उसकी सेना के घुड़सवार शहर में घुसे तो उन्होंने वहां के पुस्तकालयों को अस्तबल में परिणत कर दिया। उनके घोड़े जब कुरान शरीफ़ को रौंदने लगे तो यह देखकर वे स्तब्ध रह गए। स्वयं जिंगीज खां सीधा एक बड़ी मस्जिद की ओर गया और इमाम के मंच पर खड़ा हो गया। सब आश्चर्य में थे कि यह यहां से क्या करता है। उसने न जूता खोलने की परवा की और न हाथ-मुंह धोने की। मैला-कुचैला ही कुरान की वृहत्काय पोथी के सामने गया और नमाज पढ़ने को आए हुए लोगों से कहा- 'मैं तुमसे यह कहने आया हूं कि मेरी सेना को रसद चाहिये। खेत सूखे पड़े हैं। तुम जल्दी बाहर निकलो और अपने गल्ले का गोदाम खोलो।' पर जब मुसलमान नेता बाहर निकले तो देखते हैं कि उसकी सेना के घोड़े गोदामों में बैठकर गल्ला उजाड़ रहे हैं।

बाहर मैदान में बहुत से मुसलमान जमा थे। यह देखकर जिंगीज खां उन्हें धर्म समझाने गया। इस पर एक बूढ़ा सैयद बोला- 'यह कौन शख्स है?' तो उसके साथी ने उत्तर दिया- 'यह खुदा की मार है जो हम पर पड़ी है।' जिंगीज खां ने मुसलमानों को धर्म का असल तत्व समझाया और श्रोताओं से कई ऐसे सवाल किये कि बड़े-बड़े विद्वान भौंचक्के रह गए। तब उसने बताया कि मक्का की यात्रा करना मूर्खता है, क्योंकि 'परमात्मा की शक्ति एक विशेष स्थान में सीमित नहीं रहती, वह तो संसार में सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है।' जिंगीज खां उनकी दशा देखकर तुरन्त ताड़ गया कि ये लोग धर्मान्ध हैं। इसलिये उस नीतिज्ञ ने उनपर आतंक का संचार करने के लिये कहा- 'तुम्हारे शहंशाह के पापों की सीमा नहीं है। मैं परमात्मा का कोप हूं और उसे उजाड़ने आया हूं। उसे कोई शरण मत देना।' इसके बाद उसने बुखारा के धनियों से उनका सब धन मांगा और उन सबके पीछे अपने सिपाही लगा दिये कि पहरा रखें। ये रात-दिन उनके साथ रहे और उन्हें अपना सब धन देने के लिये नाना यंत्रणाएं देने लगे। कई इस संदेह पर मार डाले गए कि उन्होंने कुछ धन छिपा रखा है। मंगोल अफसर मसजिदों में गए और वहां शराब पीकर रंडियां नचाने लगे। जब ये लोग सारा नगर लूट चुके तो इन्होंने नगर वासियों को आज्ञा दी कि वे मैदान में कतार बांधकर खड़े हो जाएं। इस पर एक मुसलमान ऐतिहासिक लिखता है 'वह सर्वनाशी दिन था। उस रोज बच्चे-बूढ़े, नर-नारी सभी छाती कूट-कूटकर रो रहे थे, क्योंकि सब सदा के लिये बिछुड़ रहे थे। उन जंगलियों ने सबके सामने स्त्रियों के साथ व्यभिचार किया। कुछ लोग यह घृणित दृश्य न देख सके और मंगोल सैनिकों पर टूट पड़े। वे तुरंत मार डाले गए।'

मर्व नगर की तबाही बयान नहीं की जा सकती। सब लोग एक मैदान में लिटाए गए और उनकी बाहें पीठ के साथ बांध दी गई। तब मंगोल सिपाहियों ने गला घोंटकर उनके प्राण लिये। एक नगर में जब कत्लेआम हो रहा था तो कुछ आदमी मुर्दों के ढेर के नीचे लेट गए और इस प्रकार उन्होंने अपने प्राणों की रक्षा की। पर जब मंगोलों को यह खबर लगी तो हुक्म निकाला गया कि भविष्य में सबके सर काटे जाएं ताकि कोई अपनी जान न बचा सके। एक ईरानी नगर में कुछ लोग खण्डहरों में छिपकर बच गए थे। एक मंगोल सिपाही यह देख बैठा। इस पर सारी सेना लौट पड़ी और फिर से बचे लोगों का कत्लेआम किया गया। जिंगीज खां और उसके सैनिकों को प्राणनाश से जो खुशी होती थी वह और किसी उपाय से नहीं। एक नगर में इन्हें सन्देह हुआ कि कुछ मुसलमान अभी छिपे हुए हैं, इसलिये उन्होंने एक मुअज्जिन को मसजिद की मीनार पर खड़ा करके अजान दिलाई। मुसलमान समझे कि नगर में फिर शांति हो गई है और सब नमाज पढ़ने मसजिद में आए। तुरंत ही ये कत्ल कर दिये गए।

इस प्रकार मनुष्यों को तृणवत्‌ समझकर जिंगीज खां ने एशिया से यूरोप तक अपना साम्राज्य फैलाया। पर यह समझना निरा भ्रम होगा कि निरक्षर जिंगीज खां सिर्फ नृशंसता का अवतार था। वह वीर था और उसका विचार था कि साधारण मनुष्य, जो भीरूता को गले का हार बनाए रहते हैं, पृथ्वी पर भाररूप जीवित रहते हैं। इसलिये उनके जीवन का वह कोई मूल्य न समझता था। उसे ऐसा भी विश्वास था कि मैं ईश्वर का दूत हूं और सारे संसार में मेरा ही राज्य होना चाहिये।