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लेख
कौन नहीं चाहता आजादी स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       जगन्नाथ प्रसाद मिश्र
कसी पराधीन जाति के लिये उसका राष्ट्रीय आदर्श ही उसके मनुष्यत्व, शक्ति, एवं पौरुष की एकमात्र कसौटी होता है। यह राष्ट्रीय आदर्श क्या है? यह राष्ट्रीय आदर्श है जाति की मुक्ति, जन्मभूमि की स्वाधीनता के लिये आकुल आकांक्षा। इस राष्ट्रीय आदर्श को अपने जीवन में सर्वान्तःकरण स्वीकार करके जो लोग उसकी वेदी के नीचे सर्वस्वार्पण करने, मुक्ति-संग्राम में योगदान देने के लिये प्रस्तुत रहते हैं, उन्हें ही हम देश के मुक्ति-कामी दल में परिगणित कर सकते हैं। इसके विपरीत जो लोग नाना प्रकार की युक्तियों की अवतरणा करके अथवा शान्ति, बन्धुत्व, विश्व प्रेम जैसे अति मधुर सिद्धांतों की दोहाई देकर स्वाधीनता-संग्राम से वितरत रहते हैं, उन्हें हम स्वाधीनता-कामी नहीं मान सकते। पराधीन देश में स्वाधीनता कामी और स्वाधीनता विरोधी इन दो दलों के सिवा बीच का कोई दल हो ही नहीं सकता। ।सस ूम ूंदज जव ादवू पे ेपउचसल जीपेए ूीव पे वित प्दकमचमदकमदबम ंदक ूीव पे दवजण् अर्थात्‌ हम इतना ही जानना चाहते हैं कि कौन स्वाधीनता के पक्ष में है और कौन नहीं। अमरीका में जब स्वाधीनता संग्राम प्रवर्तित हुआ था, उस समय एक अमेरिकन इतिहास लेखक टामस पेन ने अमेरिका वासियों के लिये यही कसौटी उनके सामने रखी थी। उस समय अमेरिका में कुछ ऐसे लोग थे, जो अपने आभिजात्य, पद मर्यादा एवं ऐश्वर्य की रक्षा के लिये पूर्ण स्वाधीनता के नाम मात्र से सन्त्रस्त हो उठे थे। प्रश्न था इंगलैंड से सम्बंध विच्छेद करके स्वाधीनता लाभ की जाप अथवा इंग्लैंड की छत्रछाया में स्वराज्य प्राप्त किया जाए? इनमें पिछड़े विचार के समर्थक लोगों को उपदेश देते थे कि जिस देश के सम्पर्क में हम इतने दिनों तक रहे हैं, जिस सम्पर्क के फलस्वरूप हमारे देश की सब प्रकार से उन्नति हुई है, उसके साथ सम्बंध बनाए रखने में ही हमारा कल्याण निहित है। विरोध, कलह एवं राग-द्वेष से दूर रहकर प्रेम एवं बन्धुत्व का मार्ग ग्रहण करो। किन्तु इस प्रकार के उपदेशों के पीछे जो स्वार्थपरता, भीरूता एवं भण्डता छिपी हुई थी, वह बहुत दिनों तक अप्रकट नहीं रह सकी।

टामस पेन ने इस प्रकार की युक्तियों एवं उपदेशों की निस्सारता बताते हुए लिखा कि इस प्रकार के उपदेश देने वाले लोग स्वार्थी हैं, उनका विश्वास नहीं करना। ये दुर्बलचित हैं, इनमें दूरदर्शिता नहीं है, इनके मन में पहले से ही कुछ ऐसे संस्कार जमे हुए हैं, जो इन्हें निष्पक्ष भाव से विचार ही नहीं करने देते। ये भीरू होने के कारण नरम दली हैं। ऐसे लोगों पर विश्वास नहीं करना। ये पंडित हो सकते हैं, विचारशील हो सकते हैं, परोपकारी एवं दानी हो सकते हैं, धर्मध्वजी हो सकते हैं, किन्तु स्वाधीनता-कामी नहीं हो सकते। मुक्ति संग्राम के ये साधक न होकर बराबर बाधक ही होते रहेंगे। इसलिये ऐसे लोगों से सतत सावधान रहना, इनकी बातों पर विश्वास नहीं करना, इनके उपदेशों के प्रति श्रद्धा नहीं दिखलाना। उनकी धर्म-भीरूता, उनकी परोपकार कृति, उनके दान, उनके नाम-सुग्रश को देख-सुनकर भूलना नहीं, धोखे में नहीं आना। वे पंडित होते हुए भी मूर्ख हैं, धर्म-भीरू होते हुए भी कापुरुष हैं, परोपकारी होते हुए भी नाम-यश के लोलुप हैं और दानी होते हुए भी हृदय से कृपण हैं। उनकी धार्मिकता का क्या मूल्य हो सकता है, जब कि जिस स्वाधीनता द्वारा जन समूह का सर्वांगीण कल्याण सम्भव हो सकता है, उस स्वाधीनता प्राप्ति की चेष्टा से वे विरत रहते हैं। उनके दान और परोपकार का क्या महत्व हो सकता है, जब कि जिस स्वाधीनता द्वारा सारे देश का उपकार हो सकता है, उस स्वाधीनता के लिये किये जाने वाले संग्राम का वे उपहास करते हैं, उसके प्रति द्रोह भाव प्रकट करते हैं और अपने स्वार्थ साधन के लिये देश के आदर्श के प्रति विश्वासघात करते हैं। ऐसे लोगों के समस्त गुणों के परखने की एक ही कसौटी हो सकती है, उनके मनुष्यत्व का एक ही मानदण्ड हो सकता है और वह यह कि वे स्वाधीनता-संग्राम के समर्थक बनेंगे अन्यथा उसके विरोधी। यदि वे स्वाधीनता-आन्दोलन के विरोधी हैं, स्वाधीनता के प्रति उनके हृदय में अनुराग नहीं है, तो उनकी विद्या-बुद्धि, चरित्र, सौन्दर्य बोध, कला प्रेम आदि गुणों का हमारी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं। वे हमारी सुख-शांति एवं कल्याण के मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकते। वे हमारे मित्र नहीं बन सकते, हमारे हितैषी नहीं बन सकते। हमें विद्या-बुद्धि नहीं चाहिये, पाण्डित्य नहीं चाहिये, सौन्दर्य बोध नहीं चाहिये, कला-प्रेम नहीं चाहिये, धर्मात्मा और साधु-सन्त हमें नहीं चाहिये, हमें चाहिये स्वाधीनता के उपासक, मुक्ति-यज्ञ के पुरोहित, स्वाधीनता का जय-निशान वहन करने वाले वीर सैनिक!

हमारा राष्ट्रीय आदर्श स्वराज्य एवं स्वाधीनता है। यह आदर्श सूर्य के प्रकाश के समान उज्ज्वल एवं प्रकाशमान है। इसी आदर्श के हम पुजारी हैं। यही हमारे जीवन पथ का प्रधान सम्बल है। हम इस आदर्श को किसी रूप में भी म्लान एवं क्षुण्ण नहीं होने देंगे। इस आदर्श के चरितार्थ करने में हमें जो सहायता पहुंचाएगा, हमारा साथ देगा, वही हमारा मित्र होगा, वही हमारा विश्वासपात्र होगा, वही हमारा स्नेह भाजन बनेगा, उसी में हम निजत्व का बोध करेंगे, चाहे वह कितना ही मूर्ख, कितना ही निर्धन, कितना ही सामान्य व्यक्ति क्यों न हो! वह स्वाधीनता के पक्ष में है, हृदय से स्वाधीनता की कामना करता है, मातृभूमि की दासता की श्रृंखलाओं से मुक्त देखना चाहता है, पराधीनता को वेदनाओं का अनुभव करता है, इसलिये वह हमारे लिये मान्य है।

हम स्वाधीनता की इसलिये कामना करते हैं कि पराचीनता के कारण जाति का मानस मुकुल दिन-दिन शुष्क होता जा रहा है, उसे आत्म बोध का अवसर नहीं मिलता, उसके वैशिष्ठय के विकास का मार्ग अवरुद्ध बना रहता है। जाति के लिये यह पराधीनता कितनी सांघतिक हो रही है, इसका अनुमान इसी से किया जा सकता है कि आज जाति अपने स्वरूप को, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को, अपनी शिक्षा एवं साधना को भूल चुकी है। इस पराधीनता के कारण ही सब दिशाओं में उसकी गति अवरुद्ध हो रही है, उसके व्यक्तित्व पर पर्वत-प्रमाण चाप पड़ा हुआ है और सभ्यता एवं संस्कृति का स्रोत शुष्क हो गया है, जिससे उसकी धारा में किसी प्रकार का गतिवेग नहीं रह गया है। साहित्य, संगीत, शिल्प, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान आदि किसी भी क्षेत्र में हमारा अवदान जो आज मानव जाति की सभ्यता में नगण्य हो रहा है, इसका कारण क्या है? इसका कारण है हमारी पराधीनता। इस पराधीनता एवं परवशता से मुक्त होकर ही जाति नवजीवन लाभ कर सकती है, उसका पुनरुत्थान हो सकता है और वह आत्मप्रतिष्ठ बन सकती है। पराधीन रहकर सुख-स्वाच्छन्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा हमारे लिये स्वाधीन जीवन ही वरेण्य है- चाहे उसमें कितनी ही विपत्तियां, कितनी ही असुविधाएं, कितना ही दुःख भोग क्यों न हो। दासत्व के बंधनों को विच्छिन्न करके हमारी आत्मा मुक्त गगन में विहंगम की भांति विचरण करने के लिये व्याकुल हो रही है। उस मुक्त गगन में अनन्त नीलाकाश ही उसका गृह होगा, जहां वह अपने परों को फैलाकर यथेच्छ उड़ सकेगी। पिंजरवद्ध कीर की भांति सब सुख-सुविधाओं का उपयोग करते हुए भी हमारी आत्मा आज उस आनन्द की कंकाल हो रही है, जो एकमात्र स्वाधीनता में ही उपलब्ध हो सकता है।

स्वाधीनता कितना बड़ा वरदान है, यह उस जाति से जाकर पूछो, जो आज स्वाधीनता का उपभोग कर रही है। स्वाधीनता जाति के जीवन को कितना उन्नत, कितना ऐश्वर्यशाली बना सकती है, यह स्वाधीन जातियों के इतिहास में ज्वलंत अक्षरों में अंकित है। जो लोग यह युक्ति उपस्थित करते हैं कि दूसरे की छत्रछाया में रहकर भी हम सब प्रकार की उन्नति कर सकते हैं, शान्त, निरापद एवं सुरक्षित रूप में आत्म-विकास कर सकते हैं, उनसे जाकर पूछो कि चिरकाल तक दूसरे के अभिभावकत्व में जीवन व्यतीत करने वाली क्या कोई भी ऐसी जाति आज संसार में वर्तमान है, जो किसी स्वाधीन राष्ट्र की तुलना में अपने को महत्‌ एवं गैरवशाली कह सके। देखिये न, अमरीका के पड़ोस में ही तो कनाडा है। दोनों एक जाति के हैं। दोनों की धमनियों में एक ही शोणित धारा बहती है। किन्तु दोनों में कितना अन्तर है! अमेरिका को आज जो गौरव, जो मान-मर्यादा एवं बल वैभव प्राप्त है, वह क्या सम्भव होता, यदि अमेरिका इंग्लैंड के अभिभावकत्व में रहकर क्रमशः स्वराज्य प्राप्त करता! अमेरिका की तुलना में कनाडा का क्या स्थान है? और वह कनाडा भी जब पराधीन नहीं है! नाममात्र की पराधीनता की छाप लगी रहने के कारण ही आज अमेरिका और कनाडा में इतना अन्तर रहा है। स्वाधीनता के वातावरण में रहकर अमेरिका को अपने जातीय वैशिष्ठय के अनुरूप फूलने-फलने का सुयोग मिला, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति की धारा सहज रूप में प्रवाहित होती रही, उसके जीवन का गतिवेग किसी भी दिशा में अवरुद्ध नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि आज मानवीय सभ्यता के किसी भी क्षेत्र में उसका नाम और राष्ट्रों के लिये स्पर्धा की वस्तु हो रहा है।

जो जाति स्वाधीनता को खो बैठती है, वह वस्तुतः अपनी आत्मा को ही खो देती है। उसमें निजत्व कुछ भी नहीं रह जाता। दासत्व की वेदना, उसकी ग्लानि एवं हीनता उसके मन-प्राण को इस प्रकार आच्छन्न किये रहती है कि उसके मन में किसी महत्‌ विचार के लिये स्थान ही नहीं रह जाता। पराधीन जाति की न तो कोई सभ्यता होती है, न संस्कृति, न धर्म, न साहित्य, न कला, न ज्ञान-विज्ञान। इन सब पर पराधीनता की छाप अंकित होने के कारण उनके द्वारा जाति की जो आत्मा है, उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती, जाति का जो प्रकृत स्वरूप है, वह प्रस्फुटित नहीं होता। इसलिये पराधीन जाति को जीवित रखने उसे एक सजीव जाति के रूप में क्रियाशील बनाने के लिये सबसे पहले जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है स्वाधीनता।

इस स्वाधीनता का अभिय-रस पिलाकर ही उसके मृत प्राणों को संजीवित किया जा सकता है, उसमें बलवीर्थ, शक्ति, साहस, पौरुष तथा कर्मोद्यम का संचार किया जा सकता है और उसके मनुष्यत्व को विकसित किया जा सकता है। जिस प्रकार मीन जल के बिना जीवन धारण नहीं कर सकता, प्राण के बिना देह एक क्षण के लिये भी कायम नहीं रह सकती, उसी प्रकार जाति भी स्वाधीनता के अभाव में निष्प्राण तुल्य बनी रहती है।

ऊपर हमने कहा है कि एक पराधीन जाति के लिये उसका एकमात्र राष्ट्रीय आदर्श स्वाधीनता ही हो सकता है और यही आदर्श उसके लिये काम्य एवं वरेण्य हो सकता है। पराधीन राष्ट्र इसी आदर्श की आह्‌वाण वाणी सुनने के लिये चातक की भांति चिर-तृषित रहता है। जो नेता, जो राष्ट्रकर्मी, जो आन्दोलन, जो संस्था उसे स्वाधीनता की वाणी सुनाती है, उसकी मुक्ति की इच्छा को अजेय, उसके संकल्प को अविचलित, उसकी महत्वाकांक्षा को अदम्य बनाती है, स्वाधीनता के लिये उसे अनुप्राणित करती है, उसके हृदय में चिरनूतन आशा एवं उत्साह का संचार करती है, वही उसके मन-प्राण को विमुग्ध एवं आकृष्ट कर सकती है। जिस विराट राष्ट्रीय संघ ने कोटि-कोट निराश हृदय में आशा का आलोक प्रज्वलित किया, जनता ने सब प्रकार के नीति प्रदर्शन, उपद्रव, चाप एवं लोभ की उपेक्षा करके श्रद्धायुक्त हृदय से उसका समर्थन किया। सरकारी और अर्धसरकारी संस्थाओं की अनुकूलता एवं पृष्ठपोपकता प्राप्त करके, प्रभुओं एवं सत्ताधारियों के आशीर्वाद भाजन बनक ऐश्वर्य मदोन्मत प्रतिपतिशाली राजों और महाराजों, जमींदारों और ताल्लुकेदारों, रायबहादुरों और राय साहबों, सुविधावादियों और जीहुजूरों का दल अपने को ÷राष्ट्रीय' एवं ÷कृषक' दल का बताकर अन्य दलों को प्रतिद्वंद्विता करने के लिये अग्रसर हुआ था। किन्तु अर्थ, वैभव, प्रतिपति और भीति-प्रदर्शन के होते हुए भी उनकी अत्यंत शोचनीय पराजय हुई। दल के दल दरिद्र, अशिक्षित ग्रामवासी जुलूस साजकर, राष्ट्रीय पताका उड़ाते हुए, राष्ट्रीय आदर्श का जय-जयकार करते हुए, जातीय संगीत की लहरों में उद्वेलित होते हुए पैदल ही मीलों का मार्ग अतिक्रमण करके निर्वाचन केन्द्रों पर पहुंच और शान्त भाव से वोट देकर चले जाते हैं। (यू.एन.एन.)