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लेख
चम्बा का संक्षिप्त इतिहास (1) स्रोत        यू.एन.एन.
स्‍्थान       शिमला
लेखक       
भारतीय गणराज्य की एक इकाई के रूप में हिमाचल प्रदेश पश्चिमी हिमालय पर्वत में स्थित ऐसा पहाड़ी प्रदेश है जिसके अधिकांश भौगोलिक क्षेत्र में बीती हुई अवधि में अनेक राजवंशों का शासन रहा है। कुछ राजवंशों का शासन प्राचीन काल से ही रहा जबकि इस पहाड़ी प्रदेश के क्षेत्रों में समय-समय पर कुछ नये राजवंशों की स्थापना भी होती रही।

वर्तमान हिमाचल के अन्तर्गत आने वाले विभिन्न क्षेत्रों में जिन अनेक बड़े और छोटे राजवंशों का शासन रहा है वे मुख्य रूप से ऐतिहासिक ग्रंथों में पंजाब की पहाड़ी रियासतों के नाम से जानी गई। चंबा रियासत भी पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली पहाड़ी रियासतों में से एक रही है जिसे इतिहासकारों द्वारा प्राचीन रियासत स्वीकार किया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस राज्य की स्थापना पांच सौ पचास ई0 के लगभग हुई थी तथा इसकी प्राचीन राजधानी ब्रह्यपुर रही है। उपरांत के काल में इस राजवंश की राजधानी चम्बा बनी जोकि यहां के शासकों का सदियों तक मुख्य प्रशासन स्थल रहा है। सम्बन्धित राजवंश के शासकों को सूर्यवंशी माना जाता है तथा यह धारणा भी ऐतिहासिक सत्यता के काफी नजदीक स्वीकार की जाती है कि इस राजवंश के लोगों का सम्बन्ध मूलरूप में अयोध्या से रहा है।

920 ईस्वी में इस वंश के शासक राजा शैल वर्मन (प्रचलित नाम साहिल वर्मन) ने रावी घाटी के निचले हिस्सों पर विजय प्राप्त की तथा विजय के उपरांत उसने ब्रह्मपुर के स्थान पर ÷चम्पा' अथवा चम्बा को नयी राजधानी बनाया। अनेक सदियों तक चम्बा राज्य कश्मीर का आधिपत्य स्वीकार करता रहा है तथा ऐसा माना जाता है कि 12वीं शताब्दी के करीब चम्बा राज्य पुनः स्वायत हो गया।

जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, चम्बा पहाड़ी रियासतों में से एक प्राचीन रियासत रही है। रियासतों को आरम्भिक वर्गीकरण में तीन वर्गों में विभाजित किया गया। प्रत्येक वर्ग के अन्तर्गत आने वाली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रियासत पर वर्ग का नामकरण हुआ। यह तीन वर्ग (क) कश्मीर (ख) दुर्गर, (ग) त्रिगर्त अथवा कांगडा रहे हैं। कश्मीर वर्ग के अन्तर्गत कश्मीर और सिन्धु तथा जेह्‌लम नदियों के मध्य की छोटी रियासतें रही हैं। दुर्गर अथवा जम्मू वर्ग के अन्तर्गत जेह्‌लम तथा रावी नदियों के मध्य की रियासतें रखी गइर्ं। त्रिगर्त अथवा कांगड़ा वर्ग के अन्तर्गत रावी, ब्यास तथा सतलुज नदी के मध्य की रियासतें रही हैं। इस वर्गीकरण के उपरान्त एक अन्य वर्गीकरण के अन्तर्गत पंजाब को सिन्धु और सतलुज नदियों के मध्य 22 हिन्दु और 22 मुस्लिम रियासतों में विभाजित किया गया। 22 हिन्दु रियासतों को दो वर्गों में विभाजित कर, प्रत्येक वर्ग में 11 रियासतें रखी गईं। इनमें एक वर्ग के अन्तर्गत रावी नदी के पूर्व और दूसरे वर्ग के अन्तर्गत रावी नदी के पश्चिम की रियासतें रही हैं। 22 हिन्दु रियासतों को जालन्धर वृत्त और दुर्गर अथवा जम्मू वृत्त की रियासतों के रूप में माना गया।

पहाड़ी रियासतों के वर्गीकरण के अन्तर्गत जालन्धर वृत्त की रियासतें, कांगड़ा या कटोच, गुलेर, जसवां अथवा जसवन, दातारपुर, सीबा, चम्बा, कुल्लू, मण्डी, सुकेत, नूरपुर, कोटला, कुटलेहड़ मानी जाती हैं। उपरोक्त वर्गीकरण कनिंघम द्वारा किया गया है। कनिंघम ने इस वर्गीकरण में जालन्धर वृत्त के अन्तर्गत 12 पहाड़ी रियासतें रखी हैं।

हचिन्सन तथा वोगल के वर्गीकरण में 11 रियासतें सम्मिलित की गई हैं। यह रियासतें चम्बा, नूरपुर, गुलेर, दातारपुर, सीबा, जसवां, कांगड़ा कुटलेहड़, मण्डी, सुकेत और कुल्लू हैं। हचिन्सन तथा वोगल के वर्गीकरण से यह स्पष्ट होता है कि कनिंघम ने अपने वर्गीकरण में कोटला रियासत को भी सम्मिलित किया है जबकि दूसरे वर्गीकरण में इसे सम्मिलित नहीं किया गया है। उपरोक्त वर्णित सभी रियासतें तत्कालीन पंजाब की पहाड़ी रियासतें कहलाईं। चम्बा राज्य के अन्तर्गत जो क्षेत्र रहे हैं वे मुख्य रूप में चम्बा जि+ला के दक्षिण पूर्व से उत्तर पश्चिम में फैली चार समानांतर पर्वत श्रृंखंलाओं - जस्कर, पांगी, धौलाधार और हाथीधार के मध्य, मुख्य हिमालय पर्वत की श्रृंखला में स्थित हैं। इसके पश्चिम और पश्चिमोत्तर में जम्मू कश्मीर के बसोह्‌ली, बिलौर, भद्रवाह, किश्तवाड़ और पाडर की तहसीलें हैं तथा उत्तर और पूर्व में लद्दाख, लाहौल और बड़ा भंगाल स्थित है और दक्षिण पूर्व और दक्षिण ओर जि+ला कांगड़ा तथा जि+ला गुरदासपुर के क्षेत्र हैं। एक प्रमाणिक रपट के अनुसार चम्बा राजवंश के अंतर्गत जो क्षेत्र रहे हैं उन का क्षेत्रफल अधिकाधिक होने की स्थित में करीब 3,216 वर्गमील रहा है। 0

दावे के साथ यह मत प्रतिपादित करना कठिन है कि किस ईस्वी में चम्बा रियासत की स्थापना की गई थी। इसका कारण यह है कि हमें फिलहाल कोई ऐसा ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध नहीं हुआ है जिसे आधार बनाकर हम चम्बा राज्य की स्थापना की तिथि दावे के साथ प्रतिपादित कर सकें। ऐसा होने पर भी चम्बा से उपलब्ध सामग्री की विवेचना करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस राज्य की स्थापना छठी शताब्दी में हुई तथा स्थापना की अवधि इस शताब्दी का मध्यकाल स्वीकार किया जा सकता है। स्थापना का यह काल इसलिए भी उचित प्रतीत होता है क्योंकि संस्कृत की रचना राजतरंगणी में हमें चम्पा अथवा चम्बा का नाम उपलब्ध होता है तथा इसी ग्रंथ को हम चम्बा राजवंश द्वारा राज्य स्थापित करने की सम्भावित अवधि का आधार स्वीकार कर सकते हैं।

यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि हिमाचल प्रदेश के क्षेत्रों में जो राजवंश सत्तारूढ़ रहे हैं उन का इतिहास जानने के लिए प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक अत्यन्त सीमित लिखित ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। चम्बा रियासत का इतिहास भी इस स्थिति का पूरी तरह अपवाद नहीं माना जा सकता है। ऐसा होने पर भी अनेक पहाड़ी रियासतों की तुलना में चम्बा रियासत को एक ऐसा राज्य स्वीकार किया जा सकता है, जिसके राजवंश की वंशावलियां अनेक अन्य राज्यों की तुलना में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अधिक विश्वसनीय मानी जा सकती हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि चम्बा के राजवंश की उपलब्ध वंशावलियों में विभिन्न शासकों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से कुछ न कुछ सामग्री उपलब्ध हो जाती है। सम्बन्धित राज्य की वंशावलियों में उपलब्ध राजाओं के नामों के अलावा जो सीमित अन्य ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है, उसकी विश्वसनीयता इसलिए भी ठोस मानी जा सकती है क्योंकि चम्बा के राजवंश से जुड़ी अन्य ऐतिहासिक सामग्री, उदाहरणतय विभिन्न शिलालेख, मूर्तियों पर अंकित लेख, समय-समय पर जारी ताम्रपत्र, फ़ारसी, नागरी आदि भाषाओं में उपलब्ध अन्य दस्तावेज++ आदि से भी वंशावली में उपलब्ध सामग्री की प्राचीनता और विश्वसनीयता पर मोहर अंकित हो जाती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि चम्बा राजवंश के आरम्भिक शासकों द्वारा जारी किए गए कुछ ताम्रपत्रों में उल्लिखित नामों की पुष्टि संस्कृत की रचना राजतरंगणी से भी हो जाती है।

प्राचीन रियासत चम्बा को निश्चित रूप में ऐसी रियासत स्वीकार किया जा सकता है जहां ऐतिहासिक महत्त्व की प्राचीन धरोहरों का भण्डार सुरक्षित पड़ा है। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि अन्य पहाड़ी राज्यों की तुलना में सम्बन्धित ऐतिहासिक महत्त्व की धरोहर के चम्बा क्षेत्र में सुरक्षित रहने का एक विशेष कारण है। तत्कालीन पंजाब के अन्तर्गत आने वाली अनेक पहाड़ी रियासतों की तुलना में चम्बा राज्य की भौगौलिक स्थिति किसी बाहरी आक्रमणकारी के लिए विकट रही है तथा ऐसी स्थिति के परिणाम स्वरूप सम्बन्घित क्षेत्र पर सत्तारूढ़ रहे इस्लाम अनुयायी सुल्तानों अथवा बादशाहों और ऐसे अन्य आक्रमणकारियों का दबाव नाममात्र रहा है।

मध्यकाल में न तो वर्तमान काल की तरह यातायात के साधन थे और न ही उचित मार्ग विस्तृत क्षेत्रों तक उपलब्ध थे। सामरिक दृष्टि से सम्बन्धित काल में न तो वर्तमान काल की तरह उपकरण थे और न ही वर्तमान युद्ध पद्धत्ति। मुख्य रूप में आक्रमणकारियों की सेना किसी अभियान हेतु निश्चित स्थल तक पहुंचने के लिए घोड़ों, हाथियों आदि का प्रयोग करती थी। जहां तक पहाड़ी क्षेत्रों का प्रश्न है सेना के अधिकांश भाग को पैदल यात्रा करनी पड़ती थी। सीमित रूप में घोड़ों का प्रयोग भी किया जाता था। पहाड़ी क्षेत्रों की यात्रा में हाथी जैसे जानवर उपयोगी नहीं थे। उचित मार्गों की सुविधा न होने के कारण सेना को सीमित दूरी पार करने में भी पर्याप्त समय लगता था। उस स्थिति में और भी कठिनाई बढ़ना स्वाभाविक था जब सेना को पहाड़ी क्षेत्रों में मार्ग सुविधा के अभाव के कारण वनों को काटकर अथवा किसी ऐसी अन्य विकट स्थिति से जूझते हुए अपने निर्धारित स्थल की ओर बढ़ना पड़ता था।

किसी आक्रमणकारी के लिए यह उपयोगी नहीं था कि वह अपनी सेना को किसी ऐसे क्षेत्र पर अधिकार स्थापित करने हेतु भेजता रहे जहां सेना को पहुंचने के लिए अधिक समय लगे और अन्य कारणों से भी प्रभावित होकर कठिनाइयों का सामना करना पड़े। मध्यकाल में, जब शक्ति ही सत्ता की प्रतीक रही हो, किसी शासक के लिए ऐसे अभियान पर अपनी सेना को उलझाए रखना सम्भव नहीं था जिस अभियान में अधिक परिश्रम करके कम लाभ अथवा हानि उपलब्ध हो और सेना के कूच करने के पश्चात्‌्‌ मूल स्थान पर विद्रोह होने लगे। ऐसे दूर दराज+ पहाड़ी क्षेत्रों में सेना भेजना तत्कालीन स्थिति के ध्यानार्थ उपयोगी नहीं हो सकता था, जिन क्षेत्रों पर लम्बी अवधि के अभियान के फलस्वरूप राजनीतिक अथवा आर्थिक दृष्टिकोण से आक्रमणकारी को कोई विशेष लाभ न पहुंचता हो।

ऐसी स्थिति में किसी भी क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति का महत्त्व स्पष्ट होता है। यदि भौगोलिक दृष्टि से कोई स्थान आक्रमणकारी को अपने अभियान के लिए सही प्रतीत होता था तो वह उन पहाड़ी स्थानों की अपेक्षा, जहां की भौगोलिक स्थिति उसे अधिक कठिनाई में डालती हो, सही प्रतीत हुए स्थान को परिस्थितियों के सम्भावित परिणामों के कारण चुनना लाभकारी समझेगा। इस तरह स्पष्ट है कि चम्बा की कठिन भौगौलिक स्थिति के कारण यह इस्लाम अनुयायियों अथवा ऐसे अन्य आक्रमणकारियों के आक्रमणों से लगभग अछूता रहा और परिणाम स्वरूप इस क्षेत्र को आक्रमणकारियों की उस तोड़-फोड़ का सामना नहीं करना पड़ा, जिसके होने की स्थिति में यहां की प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री नष्ट हो जाती।

सर एलैक्ज+ैंण्डर कनिंघम ऐसे पहले बाहरी व्यक्ति माने जाते हैं जिन्होंने वर्ष 1839 में चम्बा से जुड़ी ऐतिहासिक धरोहर के सम्बन्ध में ध्यान आकर्षित करवाया था। इसके बाद के दशकों में भी चम्बा से जुड़ी ऐतिहासिक सामग्री निरन्तर प्रकाश में आती रही। सम्बन्धित रियासत के लगभग हर क्षेत्र से विभिन्न अभिलेख उपलब्ध हुए हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार 132 के करीब विभिन्न अभिलेख प्रकाश में आ चुके हैं जिनमें से 40 प्रतिशत मुस्लिम काल से पूर्व की अवधि के हैं जबकि 60 प्रतिशत का सम्बन्ध मुस्लिम काल से है। यहां यह उल्लेखनीय है कि अभी तक जो खोज हुई है उस आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि उपलब्ध अभिलेखों में से सबसे प्राचीन अभिलेख सातवीं शताब्दी से सम्बन्ध रखता है तथा इसकी लिपि शारदा और स्वरूप गुप्त अभिलेख लिए हुए है।

चम्बा राज्य की ऐतिहासिक सामग्री में टांकरी, नागरी तथा तिब्बती भाषा में लिखी गई सामग्री तो उपलब्ध है ही परन्तु शिला-अभिलेख सर्वाधिक प्राचीन हैं। हालांकि ऐसे अभिलेख अति सीमित संख्या में उपलब्ध हुए हैं तथा वर्तमान काल तक भी इनकी विषय वस्तु को सही रूप में पढ़कर इनका अर्थ सामने लाना सम्भव नहीं हुआ है। इस प्रकार के शिला-अभिलेखों में अपवाद अभिलेख ही ऐसे स्वीकार किए जा सकते हैं जिनकी विषय वस्तु को सही रूप में जाना जा सका है। शिला-अभिलेखों के अलावा विभिन्न प्रतिमाओं पर खुदे हुए अभिलेख चम्बा के संदर्भ में ऐसे हैं जिन्हें प्राचीनता की दृष्टि से दूसरे स्थान पर रखा जा सकता है। उदाहरणतय राजा मेरू वर्मन के शासन काल में लगभग 700 ई0 के करीब का ऐसा प्रतिमा अभिलेख प्राचीनता को लिए हुए है।

यहां यह उल्लेखनीय है कि चम्बा राजवंश के संस्थापक स्वीकार किए जाने वाले राजा मरू का शासनकाल लघु अवधि का था क्योंकि राज्य की स्थापना करने के कुछ अन्तराल के बाद ही उसके द्वारा शासन का भार अपने पुत्र को सौंप दिया गया और वह अपने मूल स्थान कल्पा अथवा कल्प लौटकर

एक बार फिर साधु बन गया। जो ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मरू के उपरान्त जिन राजाओं ने शासन किया उन में जय स्तम्भ, जल स्तम्भ तथा महा स्तम्भ नामक शासक हुए हैं परन्तु इन शासकों की शासन अवधि के सम्बन्ध में कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं होती। केवल इन शासकों के नाम ही उपलब्ध हैं।

620 ई0 में आदित्य वर्मन ने शासन भार सम्भाला। इस शासक का नाम वंशावली में हमें आदि वर्मन मिलता है। यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि भरमौर अभिलेखों में सम्बन्धित शासक के नाम का उल्लेख दो बार हुआ है जहां उसे मेरू वर्मन का पितामाह लिखा गया है। यहां यह बात भी विशेष उल्लेख की है कि आदित्य वर्मन ही चम्बा राजवंश के शासकों में से वह पहला शासक स्वीकार किया जा सकता है जिसने अपने नाम के साथ वर्मन शब्द का प्रयोग किया। उक्त शासक के बाद चम्बा की राजगद्दी पर सत्तारूढ़ होने वाले शासकों ने अपने नाम के साथ वर्मन शब्द ही प्रयोग करना आरम्भ कर दिया।

आदित्य वर्मन के बाद बल वर्मन और दिवाकर वर्मन सत्तारूढ़ हुए। बल वर्मन का नाम हमें वंशावली में उपलब्ध नहीं होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वंशावली के रचयिता की भूल के कारण बल वर्मन का नाम वंशावली में सम्मिलित होने से छूट गया होगा। ऐसा होने पर भी बल वर्मन के सत्तारूढ़ होने की पुष्टि भरमौर के ऐतिहासिक अभिलेखों से हो जाती है। इन अभिलेखों में सम्बन्धित शासक को मेरू वर्मन का दादा कहा गया है। मेरू वर्मन ने 680 ई0 में चम्बा की बागडोग सम्भाली थी। बल वर्मन के उपरान्त 660 ई0 में दिवाकर वर्मन शासक बना। इस शासक के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि भरमौर के अभिलेखों में जहां इस शासक का नाम पूर्णरूप में उपलब्ध होता है वहीं वंशावली और छतराड़ी अभिलेख में ऐसी स्थिति देखने को नहीं मिलती। इनमें सम्बन्धित शासक का नाम दिवाकर वर्मन के स्थान पर देव वर्मन पाया जाता है।

दिवाकर अथवा देव वर्मन के बाद मेरू वर्मन चम्बा राजवंश का अगला शासक बना। हम यहां मेरू वर्मन के शासनकाल के सम्बन्ध में चर्चा करें, इससे पूर्व सम्बन्धित राजवशं की वंशावली की स्थिति पर एक नज+र डालना आवश्यक है। इसका कारण यह है कि चम्बा राजवशं की वंशावली में मेरू वर्मन का नाम पांचवें स्थान पर आता है जबकि इसे छठे स्थान पर आना चाहिए था। विभिन्न वंशावलियों में क्रम की स्थिति इसी तरह की बनी पाई जाती है। जैसा की हमने पहले उल्लेख किया है कि बल वर्मन नाम वंशावली में नहीं पाया गया जबकि यह राजा राजगद्दी पर सत्तारूढ़ हुआ है जैसा कि भरमौर के अभिलेखों से स्पष्ट होता है। यद्यपि भूलवश वंशावली में यह नाम शामिल होने से रह गया परन्तु वंशावलियों में यह सुधार किया गया प्रतीत नहीं होता जिसके कारण चम्बा राजवंश की वंशावली में मेरू वर्मन पांचवें स्थान पर दर्शाया गया है तथा शासकों के वास्तविक क्रम में अन्तर पाया जाता है।

मेरू वर्मन ब्रह्यपुर के आरम्भिक शासकों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक स्वीकार किया जा सकता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि आरम्भिक शासकों में से वह एक ऐसा व्यक्ति रहा है जिसने अपनी रियासत की सीमाओं को अपने विजय अभियानों के माध्यम से बढ़ाया। उसके विजय अभियानों की पुष्टि छतराड़ी अभिलेख से हो जाती है। सम्बन्धित अभिलेख में यह वर्णन किया गया है कि मेरू वर्मन ने अपना विजय अभियान शक्ति देवी को समर्पित किया। इस समर्पण का कारण अभिलेख में यह दर्शाया गया है कि वह देवी के प्रति कृत्तज्ञ है जिस की सहायता से उसने अपने शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके मजबूत ठिकानों को धराशायी किया। मेरू वर्मन द्वारा अपने शासन को रावी घाटी में दूर-दराज तक बढ़ा देने का एक और ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध है। गूं नामक स्थान से एक प्रस्तर लेख उपलब्ध हुआ है। इस प्रस्तर लेख को खुदवाने वाला आसधा नामक व्यक्ति रहा है जोकि मेरू वर्मन की सत्ता को स्वीकार करता था। यद्यपि सम्बन्धित अभिलेख से यह स्पष्ट नहीं होता की आसधा कौन था परन्तु ऐसा स्वीकार किया जा सकता है कि यह क्षेत्र का राणा ही था क्योंकि सम्बन्धित काल में कोई आम व्यक्ति इस तरह का अभिलेख खुदवाने की स्थिति में नहीं होता था। इस अभिलेख का महत्त्व इसलिए अधिक स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि इसके प्राप्त होने से हम यह धारणा बनाने की स्थिति में आ जाते हैं कि आरम्भिक शासकों में मेरू वर्मन ने विजय अभियानों के माध्यम से रावी घाटी के अधिकांश हिस्सों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था तथा इस आधिपत्य की सीमा रेखा सम्बन्धित राजवंश की उपरान्त रही राजधानी चम्बा के निकट थी। यहां यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि कुल्लू की ऐतिहासिक सामग्री में भी मेरू वर्मन के बारे ऐसा विवरण प्राप्त होता है जिसके आधार पर हमारी उपरोक्त धारणा को पर्याप्त बल मिलता है।

कुल्लू के राजा दत्तेश्वर पाल के शासन काल में इस राज्य की चम्बा अथवा ब्रह्मपुर से लड़ाई चल रही थी। इस समय चम्बा का शासक अमर था तथा लड़ाई में कुल्लू का शासक मारा गया। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि चम्बा की वंशावली में हमें अमर नाम प्राप्त नहीं होता परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मेरू के लिए ही अमर नाम प्रयोग में लाया गया है।

मेरू वर्मन चम्बा राजवंश का विजेता शासक ही नहीं अपितु एक निर्माता शासक भी स्वीकार किया जा सकता है। वर्तमान काल तक भी भरमौर में ऐसे अनेक भग्नावेश उपलब्ध हैं जो मेरू वर्मन की निर्माण कार्यों के प्रति रूचि को दर्शाते हैं। ऐसे निर्माण कार्यो में मुख्य रूप में देव स्थान शामिल हैं। ऐसे दर्शनीय धार्मिक स्थलों में मणिमहेश तथा लक्षणा देवी शामिल हैं।

मणिमहेश मन्दिर के मुख्य द्वारा पर बैल की एक प्रतिमा है जिस पर एक विस्तृत अभिलेख दर्ज है। ऐसा स्वीकार किया जाता है कि मेरू वर्मन द्वारा विभिन्न धार्मिक स्थानों के लिए भूमि प्रदान की गई लेकिन इसकी पुष्टि के लिए फिलहाल कोई ठोस ऐतिहासिक दस्तावेज+ उपलब्ध नहीं हुआ है।

मेरू वर्मन के उपरान्त अनेक राजा सत्तारूढ़ हुए परन्तु अभी तक कोई ऐसा ऐतिहासिक तथ्य सामने नहीं आया है जिसके आधार पर हम इन के बारे कोई विशेष जानकारी प्राप्त कर सकें। ऐसे कुछ शासकों के हमें केवल नाम का ही ज्ञान है जिन में मंदर वर्मन, कंतर वर्मन, प्रगलभग वर्मन शामिल हैं।

760 ई0 के करीब अजय वर्मन सम्बन्धित राजवंश का अगला शासक बना। ऐसी धारणा प्रचलित है कि इस राजा के शासनकाल की अवधि में गद्दी, ब्राह्मण तथा राजपूत दिल्ली से भरमौर में आए। यद्यपि ऐसी धारणा प्रचलित है परन्तु इसका ऐतिहासिक पुष्टिकर्ता कोई दस्तावेज++ फिलहाल प्रकाश में नहीं आया है। ऐसा स्वीकार किया जाता है कि जब अजय वर्मन का पुत्र जवान हुआ तब राजा ने उसे राजपाठ चलाने की दक्षता प्रदान करने के बाद स्वयं को राजशासन से अलग कर लिया और वह रावी और बुढ़ल+ नदियों के निकट उलांसा नामक स्थान पर जा कर शिव भक्ति करने लगा। अजय वर्मन के बाद सुवर्ण वर्मन 780ई0 में गद्दी पर बैठा परन्तु इस शासक के बारे में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।

800 ई0 में ब्रह्मपुर की गद्दी पर लक्ष्मी वर्मन सत्तारूढ़ हुआ। इस राजा के शासनकाल में सम्बन्धित राज्य के क्षेत्रों में हैजा अथवा ऐसी कोई अन्य महामारी फैलने का उल्लेख प्राप्त होता है। महामारी के कारण असंख्य लोग काल का शिकार हो गए तथा शासन व्यवस्था चरमरा कर रह गई। ऐसी स्थिति का लाभ उठा कर ब्रह्मपुर पर कीर नामक जाति द्वारा आक्रमण करने की जानकारी प्राप्त होती है। यह कीर कौन थे, इस बारे वर्तमान काल तक भी कोई मत दावे के साथ प्रतिपादित कर पाना सम्भव नहीं है क्योंकि इस बारे हमें कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। वृहत्‌ संहिता से हमें केवल यह जानकारी उपलब्ध होती है कि कीर कश्मीर के सहयोगी थे। इस आक्रमण के बारे व्यापक शोध किये जाने की आवश्यकता है तथा किसी ठोस प्रमाण के सामने आने पर ही दावे के साथ यह कहा जा सकेगा कि कीर कौन थे जिन्होंने ब्रह्मपुर पर आक्रमण किया था। यहां यह उल्लेखनीय है कि कांगड़ा के बैजनाथ को प्राचीनकाल में कीरग्राम के नाम से जाना जाता था। सुन्दर नगर से सटे क्षेत्रों में आज भी कीर लोग निवास करते हैं जिनकी बोलचाल और रीति रिवाज+ क्षेत्र के बहुसंख्यकों से नितांत भिन्न हैं।

जो ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है इसके आधार पर ऐसा स्वीकार किया जा सकता है कि कुल्लू मेरू वर्मन के शासनकाल से ही ब्रह्मपुर का आधिपत्य स्वीकार करता था परन्तु लक्ष्मी वर्मन की मृत्यु के बाद यह आधिपत्य समाप्त हो गया। कुल्लू के राजा द्वारा बुशहर रियासत की सहायता से ब्रह्मपुर अथवा चम्बा के सैनिकों को अपने क्षेत्रों से खदेड़ दिया गया।

राजा लक्ष्मी वर्मन के कोई पुत्र नहीं था परन्तु कीरों से युद्ध के दौरान उसकी मृत्यु के समय रानी गर्भवती थी। रानी के पुत्र होने के बारे सम्बन्धित क्षेत्र में परम्परागत कथा प्रचलित है जिसके अनुसार राजा की युद्ध में मृत्यु हो जाने के बाद राज्य के एक वज+ीर और राजगुरू अथवा पुरोहित ने रानी को पालकी में बिठाकर सुरक्षित निकाल लिया और वे उसे कांगड़ा क्षेत्र की ओर ले गए। होली के समीप गरोह नामक स्थान में पहुंचने पर रानी को प्रसव पीड़ा होने लगी तथा पालकी को एक गुफा में उतारा गया जहां रानी ने पुत्र को जन्म दिया। यह सोच कर कि कहीं उसका पुत्र शत्रुओं के हाथ न लग जाए रानी ने यह निर्णय लिया कि बालक को गुफा में ही रहने दिया जाए तथा उसके द्वारा ऐसा किया जाने पर रानी पुनः आकर पालकी में बैठ गई। उपरान्त काफी पूछताछ के बाद रानी ने यह रहस्य खोला कि उसने पुत्र को जन्म दिया है जिसे वह गुफा में छोड़ आई है। यह जानकारी प्राप्त होने पर वज+ीर और राजगुरू वापिस लौट कर गुफा में आए तो उन्होंने पाया कि नन्हें राजकुमार को चारों ओर से चूहों ने ऐसे घेरा हुआ है मानो चूहे उसकी रक्षा कर रहे हों। ऐसी स्थिति में इस राजकुमार को मूषण वर्मन नाम दिया गया क्योंकि संस्कृत में चूहे को मूषः भी कहा जाता है।

बालक को साथ लेकर वज+ीर और राजगुरू ने रानी सहित अपनी यात्रा जारी रखी और कांगड़ा क्षेत्र में पहुंचने पर रानी ने एक ब्राह्मण के घर में शरण ली तथा उसे अपना गुरू बना लिया। कई वर्ष तक अपने तथा अपने पुत्र के बारे कुछ भी असलियत बताए बिना रानी इसी ब्राह्मण के पास आश्रय लिए रही जहां राजकुमार का आरम्भिक पालन पोषण हुआ। प्रचलित कथाओं का कथानक है कि एक दिन ब्राह्मण ने नन्हें बालक के पैरों में कुछ ऐसे विशेष चिन्ह देखे जिससे उसे यह आभास हुआ कि सम्बधित बालक किसी कुलीन परिवार से ही सम्बन्ध रखता है। उपरान्त रानी को अपने बारे सत्य जानकारी देनी पड़ी। जानकारी मिलने पर ब्राह्मण रानी और राजकुमार को सुकेत रियासत के राजा के पास ले आया और इसी रियासत में मूषण वर्मन जवान हुआ तथा सुकेत के राजा की पुत्री से उसका विवाह हुआ।

ऐसा स्वीकार किया जाता है कि उपरोक्त वर्णित विवाह के बाद सुकेत के राजा ने दहेज के रूप में अपने दामाद को पांगणा नामक स्थान जोकि सुकेत रियासत की प्रथम राजधानी रही थी, प्रदान किया तथा उसे सैनिक सहायता भी दी गई। इस सहायता के बाद मूषण वर्मन ने अपने पैतृक राज्य ब्रह्मपुर पहुंच कर आक्रमणकारी कीरों को खदेड़ दिया और कुछ अन्तराल के बाद ब्रह्मपुर पर पुनः सम्बन्धित राजवंश का शासन स्थापित हो गया।

मूषण वर्मन के बाद ब्रह्मपुर की राजगद्दी पर हंस वर्मन, सर वर्मन, सेन वर्मन, सज्जन वर्मन और मृत्युंजय वर्मन नामक शासक बैठे परन्तु इनके शासनकाल के बारे कोई भी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। यहां यह उल्लेखनीय है कि इन राजाओं में से मृत्युंजय वर्मन का नाम पाषाण अभिलेख में उपलब्ध होता है परन्तु इस शासक का नाम वंशावली में उपलब्ध नहीं है।

उपरोक्त वर्णित राजाओं के बाद ब्रह्मपुर की राजगद्दी पर शैल वर्मन सत्तारूढ़ हुआ। इस शासक को सम्बन्धित राजवंश का सर्वाधिक उल्लेखनीय शासक माना जाता है तथा इसके राजगद्दी में बैठने की तिथि 920 ई0 के करीब स्वीकार की जाती है। शैल वर्मन वह शासक हुआ है जिसने न केवल निचली रावी घाटी के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की अपितु ब्रह्मपुर के स्थान पर चम्पा अथवा चम्बा को राज्य की नई राजधानी भी बनाया। ऐसा स्वीकार किया जाता है कि शैल वर्मन के शासनकाल के आरम्भिक वषार्े में कुल्लू राज्य द्वारा एक बार फिर ब्रह्मपुर पर आक्रमण किया गया। इस युद्ध की अवधि लम्बी रही। ऐसा माना जाता है कि यह युद्ध करीब बारह वषोर्ं तक चला और इसके बाद संधि हो सकी।

शैल वर्मन के सत्तारूढ़ होने की लघु अवधि के बाद ब्रह्मपुर राज्य में 84 योगियों द्वारा भ्रमण करने की जानकारी उपलब्ध होती है। किम्बदन्ति है कि इन योगियों की राजा द्वारा पर्याप्त सेवा की गई जिससे प्रसन्न हो कर इन्होंने राजा को दस पुत्र प्राप्त होने का आशीर्वाद दिया। समय बीतने के साथ राजा के दस पुत्र तथा एक पुत्री हुई जिस का नाम चम्पावती रखा गया। एक अन्य धारणा के अनुसार इसी चम्पावती के नाम पर चम्पा अथवा चम्बा का नामकरण हुआ है।

अपने शासनकाल की पर्याप्त अवधि में शैल वर्मन अपने विजय अभियानों में व्यस्त रहा तथा उसने निचली रावी घाटी के अधिकांश छोटे राणाओं को अपना आधिपत्य स्वीकार करवाया। ऐसा माना जाता है कि सम्बन्धित अभियान की अवधि में उसकी पत्नी और पुत्री चम्पावती भी उसके साथ व्यस्त रहती थीं। इसी अभियान की अवधि में राजा की पुत्री चम्पावती को चम्बा का कुछ क्षेत्र इतना अच्छा लगा कि उसने अपने पिता से इस क्षेत्र में अपनी राजधानी स्थापित करने का अनुरोध किया। जो स्थान राजा की पुत्री को पसन्द आया था उसमें से अधिकांश क्षेत्र कुछ ब्राह्मणों के अधिकार क्षेत्र में था जिसके कारण शैल वर्मन तत्काल इस क्षेत्र पर कब्जा करने की स्थिति में नहीं था। अन्त में यह निर्णय हो गया कि सम्बन्धित भूमि राजपरिवार को प्रदान कर दिए जाने के बदले नगर में होने वाले हर विवाह के अवसर पर सम्बन्धित ब्राह्मण परिवार को उनकी भूमि के मालिकाना अधिकारों को मानते हुए आठ चकल+ी यानी की चम्बा रियासत की मुद्रा के आठ सिक्के प्रदान किए जाएंगे। यह समझौता हो जाने के उपरान्त शैल वर्मन ने ब्रह्मपुर की जगह चम्बा में नई राजधानी की स्थापना की।

शैल वर्मन के बाद उसका पुत्र युगाकर वर्मन गद्दी पर बैठा। इस शासक के शासनकाल का एक मात्र ताम्रपत्र उपलब्ध हुआ है जिस पर उसने अपनी माता का नाम दिया है। यह नाम नैना देवी है जोकि एक देवी का नाम भी है तथा रानी का नाम भी हो सकता है। उसकी भक्ति की याद में एक धार्मिक स्थल की स्थापना उसके पति द्वारा की गई थी जहां आज भी पहली बैसाख को एक मेला लगता है जो चम्बा का प्रसिद्ध सूही मेला कहलाता है। युगाकर वर्मन के शासनकाल के सम्बन्ध में भी कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है केवल उसके शासनकाल का उपरोक्त वर्णित ताम्रपत्र ही उपलब्ध है। इसे युगाकर वर्मन द्वारा अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में जारी किया गया था। इसकी विशेषता यह स्वीकार की जा सकती है कि अभी तक चम्बा राजवंश से जुड़ी ऐतिहासिक सामग्री में यह ताम्रपत्र सबसे प्राचीन माना जाता है। इसमें युगाकर वर्मन ने अपने पिता और माता के अलावा त्रिभुवन रेखा का नाम दिया है जोकि उसकी पत्नी का नाम हो सकता है। हालांकि इसके बारे में मतभेद हैं। इस ताम्रपत्र में ब्रह्मपुर के नृसिंह मन्दिर को भूमि प्रदान किए जाने का भी उल्लेख है। ऐसा माना जाता है कि युगाकर वर्मन द्वारा चम्बा में गौरी शंकर मंदिर की स्थापना की गई थी जोकि वहां के लक्ष्मी मन्दिर नारायण परिसर में स्थित है।

युगाकर वर्मन के उपरान्त विदग्ध वर्मन 960 ई0 में चम्बा का शासक बना। इस के शासनकाल का एक ताम्रपत्र उपलब्ध हुआ है जोकि उसने अपने शासनकाल के चौथे वर्ष में जारी किया था। इसमें उसने अपने पिता युगाकर वर्मन, माँ भोगमती देवी के अलावा अपना भी उल्लेख किया है।

चम्बा राजवंश की वंशावली के अनुसार विदग्ध वर्मन के बाद दोदक वर्मन नामक राजा शासक बना। बस्सु स्थान के पास प्राप्त हुए एक प्रस्तर अभिलेख में चम्बा राजवंश के कुछ राजाओं के नाम प्राप्त होते हैं जोकि युगाकर, दग्ध तथा दोदक हैं। दोदक वर्मन के बाद वंशावली में हमें सलवाहन वर्मन का नाम नहीं मिलता। यद्यपि इस राजा का नाम वंशावली में उपलब्ध नहीं है परन्तु उसके सत्तारूढ़ होने की पुष्टि तीन ताम्रपत्रो से हो जाती है। इन सभी में उसके बारे उल्लेख किया गया है। इस राजा के सत्तारूढ़ होने के काल से चम्बा राजवंश के इतिहास में अपनी तरह के रूचि पूर्ण इतिहास का आरम्भ होता है। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि प्राचीन काल से ही कश्मीर का अनेक पहाड़ी क्षेत्रों पर आधिपत्य रहा है। ऐतिहासिक सामग्री से यह बात सामने आती है कि चम्बा के राजा शैल वर्मन के समय में कश्मीर के आधिपत्य पर अंकुश लगा परन्तु यह स्थिति निरन्तर कायम नहीं रह सकी। 1028 ई0 में अनंत देव जब कशमीर की गद्दी पर बैठा तब वह बालक था। उसके द्वारा युवा होने पर पहाड़ी क्षेत्रों पर अपने पूर्वजों की ही तरह आधिपत्य स्थापित करने के प्रयत्न किए गए परन्तु अब पहाड़ी राजाओं को यह स्वीकार नहीं था।

सलवाहन वर्मन के काल के दो शिला अभिलेख सेई और तीसा से उपलब्ध हुए हैं जिनमें राजा का नाम त्रिलोक देव दिया गया है। इन शिला अभिलेखों से चम्बा राज्य की तत्कालीन उत्तरी सीमा के बारे प्रकाश पड़ता है। त्रिलोक देव का नाम चम्बा वंशवली में उपलब्ध नहीं होता। परन्तु इस नाम की पुष्टि बसोली के अभिलेख से होती है जिसे करीब 1041 ई0 का स्वीकार किया गया है। यह अभिलेख एक राणा द्वारा खुदवाया गया था जिसने अपने को सम्बन्धित राजा का आधिपत्य स्वीकार करने वाला व्यक्ति दर्शाया है।